भारतीय लोकतंत्र में लगातार बढ़ रही आर्थिक असमानता पर चर्चा कब होगी?

अनेक अर्थशास्त्रियों को यह आशा थी कि नवउदारवाद और वैश्वीकरण जैसी आधुनिक अवधारणाएं भारतीय सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था से जातीय और लैंगिक गैरबराबरी को दूर करने में सहायक होंगी किंतु ऐसा हुआ नहीं।

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जब HIV पॉज़िटिव लोग सामान्य ज़िंदगी जी सकते हैं तो 2020 में 6.8 लाख लोग एड्स से क्यों मरे?

वैज्ञानिक शोध की देन है कि अनेक एचआइवी संक्रमण से बचाव के तरीक़े भी हमारे पास हैं फिर 2020 में 15 लाख लोग कैसे नए एचआइवी से संक्रमित हो गए? यदि हम एचआइवी नियंत्रण और प्रबंधन में कार्यसाधकता बढ़ाएंगे नहीं तो 2030 तक कैसे दुनिया को एड्स मुक्त करेंगे?

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तन मन जन: कोरोना ने प्राइवेट बनाम सरकारी व्यवस्था का अंतर तो समझा दिया है, पर आगे?

स्वास्थ्य और उपचार का सवाल जीवन से जुड़ा है और यह हर नागरिक का मौलिक अधिकार है। स्वास्थ्य सेवाओं को निजीकरण के जाल से बाहर निकाले बगैर आप स्वस्थ मानवीय जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकते। अभी भी वक्त है। जागिए और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की गारन्टी के लिए आवाज बुलंद कीजिए।

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समानता के विचार से इतना परहेज़ क्यों है सरकार, कि सुझाव देने वाले IRS अफ़सरों को ही मुजरिम बना दिया?

इस रिपोर्ट के आते ही वित्त मंत्रालय, सेंट्रल बोर्ड ऑफ़ डायरेक्ट टैक्सेज़ (CBDT) सकते में आ गये और आनन–फानन में इस रिपोर्ट से पल्ला झाड़ने लगे। मात्र चौबीस घंटे के अंदर रिपोर्ट जारी करने वालों पर अनुशासनात्मक कार्यवाही की दिशा में ठोस कदम उठा लिए गये।

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