बात बोलेगी: बिकवाली के मौसम में कव्वाली

आर्थिक विभाजन, सामाजिक विभाजन, सांप्रदायिक विभाजन, वैचारिक विभाजन और कुछ नहीं तो रंग, कद, काठी, नाक की सिधाई, चपटाई, मोटाई के आधारों पर मौजूद विभाजन सरकारों के लिए सबसे मुफीद परिस्थितियां हैं। इनके रहने से एक ऐसी एकता का निर्माण होता है जिससे सार्वजनिक संपत्ति को अपना मानने की भूल लोग नहीं करते।

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बात बोलेगी: अपने-अपने तालिबान…

एक समय में दो देशों को देखना, उनकी एक सी नियति को देखना, उनके एक से अतीत को देखना और उनके एक से भविष्य को देखना असहज करता है लेकिन आँखों का क्या कीजिए जो समय के आर-पार यूं ही वक़्त की मोटी-मोटी दीवारों को भेद लेती हैं। इन्हें भेदने दीजिए ऐसी दीवारें जिनके पार हमारा बेहतर भविष्य कुछ आकार ले सकता है।

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बात बोलेगी: ‘कम्पल्शन’ के दरबार में ‘कन्विक्शन’ का इकरार

इस भारतवर्ष की सृष्टि में जब सब कुछ आपकी मर्ज़ी से ही हो रहा है तो क्या कोरोना की भेंट चढ़ गए लोग भी आपकी ही इच्छा थी? क्या ऑक्सीज़न के लिए तरसते और उसके लिए भटके लोगों के चित्र आपकी ही लीला थी? नोटबंदी से लेकर जीएसटी और फिर देशव्यापी लॉकडाउन में जो लोग अपनी अपनी देह से मुक्त हुए क्‍या वह भी आपकी कोई रचना थी? आपका ये ‘कंविक्शन’ कितनी लाशों के बाद पूरा होगा, हुजूर?

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बात बोलेगी: पापड़ी चाट के बहाने ताज़ा बौद्धिक विमर्श

जहां तक सब जानते हैं, कोई बुरा महसूस करने के लिए इस तरह प्रधानमंत्री नहीं बनता। आप भी नहीं बने होंगे। तो क्यों बार-बार ऐसा करते हैं? अच्छा कीजिए कुछ, तो लोग भी अच्छा बोलेंगे। आप भी अच्छा महसूस करेंगे।

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बात बोलेगी: बिगड़ा हुआ है रंग जहान-ए-ख़राब का…

मौसम पर ये तोहमत लगती है कि एक-सा नहीं रहता। माशूकाएं अपने आशिक पर ये संदेह करती रहती हैं कि ‘मौसम की तरह तुम भी बदल तो न जाओगे’? मौसम …

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बात बोलेगी: ‘लोक’ सरकारी जवाब पर निबंध रच रहा है, ‘तंत्र’ खतरे के निशान से ऊपर बह रहा है!

बात यहां केवल उन तीन सौ या दो हज़ार लोगों की नहीं होना चाहिए जिनके नाम छाप रहे हैं। बात उनकी भी होना चाहिए जिनके अंगूठे के निशान और आँखों की पुतलियों की आभा नुक्कड़ की दुकानों पर सरेआम बिक रही है। दो किलो धान या चावल के बदले, अपना ही टैक्स अदा करने के बदले, विदेश जाने की ख़्वाहिश के बदले हम सब ने अपनी-अपनी हैसियत और औकात के हिसाब से अपनी निजता खुद बेची है।

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बात बोलेगी: आप पहले पैदा हो गए हैं, केवल इसलिए आगे किसी और के पैदा होने का अधिकार छीन लेंगे?

जनसंख्या नियंत्रण के विचार मात्र को भी इसी कसौटी पर परखने की ज़रूरत है कि क्या इस देश में पहले जन्म ले चुके लोगों को मात्र पहले आ जाने की वजह से ये अधिकार हासिल हैं कि भावी पीढ़ियों को आने ही न दिया जाए?

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बात बोलेगी: जिन्हें कहीं नहीं जाना, उन्हें यहीं पहुंचना था…!

अब केवल दो काम ही दिये जा रहे हैं मंत्रियों को। एक सुबह उठते ही मोदी जी के ट्वीट को रीट्वीट करना। आइटी सेल से आयी किसी पोस्ट को री-पोस्ट करना। थैंक यू अभियान में घर बैठे-बैठे हिस्सा लेना और वक़्त पर राहुल गांधी पर ‘बार्क’ करना।

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बात बोलेगी: एक दूजे की प्रार्थनाओं और प्रतीक्षाओं में शामिल हम सब…

सब एक-दूसरे का किस-किस तरह से इंतज़ार करते हैं यह बात शायद सामूहिक स्मृति से भुलायी जा चुकी थी। इसे इस महामारी ने फिर से साकार कर दिया है। यहां पूरा देश और समाज एक दूसरे के इंतज़ार में है। अगर ठीक से इस इंतज़ार की ध्वनियाँ सुनी जाएं तो असल में सारे लोग एक-दूसरे की बेहतरी के इंतज़ार में हैं। कोई केवल अपने लिए प्रार्थना नहीं कर रहा है, बल्कि उसकी प्रार्थना में सबके लिए कुछ न कुछ मांगा जा रहा है।

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बात बोलेगी: आदिम शिकारियों के कानूनी जंगल में ‘मादा’ जद्दोजहद के दो चेहरे

मूल कथा भले ही एक शेरनी (टी-12) के इर्द-गिर्द बुनी गयी है, लेकिन यह दो मादाओं (स्त्रीलिंग) की बराबर जद्दोजहद भी है जिसमें उन्हें ही खेत होना है। एक महिला के लिए हमारा समाज, हमारी राजनीति, हमारी नौकरशाही ठीक वही रवैया अपनाती है जो एक शेरनी के लिए शिकारी अपनाता है, यह बात बिना किसी उपदेश के इस फिल्म में सतह पर आ जाती है।

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