बिहार की घुटी हुई चीख वाया ‘कंट्री माफिया’ और ‘खाकी’


इसी दो सप्ताह के दौरान दो वेब-सीरीज नुमाया हुईं। दोनों ही बिहार से संबंधित। दोनों ही के प्रणेता नीतीश कुमार। ‘कंट्री माफिया’ और ‘खाकीः द बिहार चैप्टर’। एक वर्तमान पर आधारित, एक भूतकाल पर। ‘कंट्री माफिया’ जहाँ आज के बिहार को दिखाता है, वहाँ व्याप्त अवैध शराब के संस्थागत कारोबार और उसकी पहुँच, हिंसा और अपराध को दिखाता है, वहीं ‘खाकी’ में नीतीश बाबू के पहले राज की झलक है, जब उन्होंने सुशासन कुमार का तमगा अपने लिए हासिल किया था।  

बिहार के लिए खुश होने लायक कुछ भी नहीं है, दोनों ही सीरीज में। दोनों ही में बिहार की ‘अंडरबेली’ को दिखाया गया है। बिहारी जातिवाद, अराजकता, अर्द्ध-सभ्यता, हिंसा और बात-बेबात का अहंकार, सब कुछ इन दोनों में दिखाया गया है, कुछ भी छोड़ा नहीं गया है। इन तमाम चीजों के साथ जो कुछ अच्छाई है बिहार की, यानी वहाँ का आतिथ्य, लोगों की सहजता, हैप्पीनेस कोशेंट और सबसे बढ़कर जीवट और जिजीविषा, यह भी इन दोनों ही सीरीज में ठीक से प्रदर्शित हो गया है। 

बिहारी माने खाँटी बिहारी

पहले बात खाकी की। खाकी की शुरुआत होते ही सबसे पहले डॉ. सागर का लिखा शीर्षक गीत ध्‍यान खींचता है, जो काफी देसी बन पड़ा है। ‘खाकी’ का समय काल 1998 से 2005-06 तक का है, जब पहली बार नीतीश कुमार ने लालू यादव को बेदखल कर सत्ता सँभाली थी। यह आइपीएस ऑफिसर अमित लोढ़ा की बिहार डायरीज़ पर आधारित है, तो निर्देशक ने बहुत छेड़छाड़ भी नहीं की है, हाँ कुछ दृश्यों को अतिरंजित जरूर किया है। नीरज पांडे एक भरोसेमंद नाम हैं, इस तरह के जॉनर और स्टाइल के लिए। खाकी में भी उन्होंने अपने सम्मान को बचा लिया है। सबसे अहम बात है कि इसमें शाहरुख खान या जाह्नवी कपूर की तरह जबरन ‘बिहारी’ नहीं बनाया गया है। किरदार से लेकर लैंडस्केप, सिनेमेटोग्राफी और डायलॉग तक सब माकूल हैं, ठेठ बिहारी अंदाज में लगते हैं। हाँ, यह अलग बात है कि ‘सब धान बाइस पसेरी’ को कूल दिखाने के चक्कर में लेखक ने ‘सब राइस बाइस पसेरी’ कर दिया है। 

फिल्म की कहानी उस वक्त की है, जब अपहरण बिहार का राष्ट्रीय उद्योग था, ठेकेदारी और ऐसे किसी भी काम में जान का जोखिम था और व्यापारियों को लेवी देना पड़ता था। सीरीज का नायक है- चंदन महतो। नायक शब्द का जान-बूझकर प्रयोग किया है, क्योंकि आजकल प्रतिनायक या खलनायक तो होते नहीं। सीरीज के निर्माता-निर्देशक ने भी आखिरी एपिसोड में चंदन को एक प्रेमिल पिता दिखाकर उसके प्रति दर्शकों की सहानुभूति बटोरने की कोशिश भी की है। इसके अलावा, शुरू में भी तथाकथित उच्च जाति के शोषण का शिकार दिखाकर ऐसा जताया गया है कि चंदन के पास हथियार उठाने के अलावा कोई रास्ता ही नहीं था। 

जातिवाद बिहार के डीएनए में है

सीरीज में सबसे मजेदार किरदार आइजी चौबे का है, जिसे आशुतोष राणा ने पूरी शिद्दत से निभाया है। इस किरदार को देखकर कुछ लोगों को भले गुप्तेश्वर पांडेय की याद आए, लेकिन बिहार (या पूरे देश की) नौकरशाही का वही किरदार है- शिया के साथ शिया, सुन्नी के साथ सुन्नी। वह दृश्य कमाल का है, जब अपने आइजी बनने के पीछे की मेहनत (यानी तत्कालीन मुख्यमंत्री की ससुराल और अपने ननिहाल के एक होने का रिश्ता निकालने और भुनाने) चौबेजी एसपी अमित लोढ़ा को सुनाते हैं। 

कांग्रेसी नेता राजो सिंह का नाम यहाँ लाजो सिंह हो गया है। उनके किरदार को भी पर्याप्त लंबाई नहीं दी गयी है, लेकिन नयी पीढ़ी को जानना चाहिए कि एक शेखपुरा जैसी छोटी जगह को, जो एक ब्लॉक मात्र था, एक झटके में जिला बनवाने वाले राजो सिंह कितने कद्दावर नेता थे। लालू प्रसाद के कार्यकाल में उनके इशारे पर ही शेखपुरा जिला बना था। बिहार में चूँकि आप जाति के बिना चल ही नहीं सकते, तो बता दिया जाए कि भूमिहार समाज का खासा सपोर्ट राजो सिंह को था। उनकी हत्या के पीछे भी लोग भूमिहार बनाम कुर्मी की बात करते हैं, लेकिन इसके पीछे कोई तथ्यात्मक बात मौजूद नहीं है। 

सीरीज में चौबेजी जब अमित लोढ़ा को जबरन राजपूत बनाते हैं, तब जैसे पूरे बिहार पर सफेदी पोती जाती है, लेकिन सच तो यही है। राजो सिंह बिहार के नेता नहीं रहे, वह भूमिहारों के नेता रह गए। उसी तरह अशोक महतो का खास पिंटू महतो (जिसे इसमें चंदन के तौर पर दिखाया है) जब हिस्ट्रीशीटर बन जाता है, तो वह अपराधी नहीं रहता, पिछड़ों का मसीहा बन जाता है। ठीक, उसी तरह जैसे शहाबुद्दीन मुसलमानों का और अनंत सिंह भूमिहारों का मसीहा बनता है। राजपूतों से लेकर ब्राह्मणों और यादवों से लेकर कुर्मियों तक के लिए, विभाजन ऐसे ही होता आ रहा है। हरेक जाति और पंथ का अपना अपराधी है, जिसे उसका समाज महानायक बना लेता है।

नियति की विडंबना

मजे या कहें भीषण दुःख की बात है कि राजो सिंह हत्याकांड में आखिरकार अदालत ने सभी को बरी कर दिया, यानी- नो वन किल्ड राजो सिंह। वैसे, तो 2005 में इस हत्याकांड में कांग्रेस विधायक अशोक चौधरी से लेकर तत्कालीन मुखिया और अभी जदयू विधायक जदयू विधायक रणधीर कुमार सोनी के साथ-साथ शेखपुरा नगर परिषद के पूर्व जिला अध्यक्ष मुकेश यादव और अन्य के खिलाफ नामजद प्राथमिकी दर्ज करायी गई थी।

17 साल बाद आए इस फैसले में सभी अभियुक्तों को बाइज्जत रिहा किया गया। वहीं, मामले के मुख्य सूचक राजो सिंह के पोते सुदर्शन कुमार ही हॉस्टाइल हो गए और उन्होंने मामले से कोई लेना-देना न होने की बात कही।

बस, एक और जानकारी की बात यह है कि सुदर्शन बाबू पहले कांग्रेस में थे, लेकिन 2020 में जदयू में शामिल होकर विधायक बने। 

मुकाम नीतीश कुमार क्यों?

दरअसल, खाकी का जो नायक या खलनायक है, वह असल जिंदगी में भी नवादा से जेल तोड़कर भागा था और इतना ही हिंसक और खूँखार था। उसे जेडीयू के कई नेताओं का भी आशीर्वाद हासिल था, ऐसा कहा जाता है। वह तो मसला तब बिगड़ा, जब उसने सुशासन की बेदाग-कड़क जमीन पर स्याही फैला दी। दरअसल, तब नीतीश कुमार को भी पता नहीं था कि वह अपना ही बेहद घटिया कैरिकेटर महज 10 साल में हो जाएँगे और बालिका गृह कांड, मुजफ्फरपुर से लेकर अवैध शराब से हुई मौतों को नजरअंदाज कर बल्कि लीपते-पोतते हुए इंतहाई बेशर्मी से प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब भी देखते रहेंगे। 

बहरहाल, बात तब की, जब नीतीश कुमार सुशासन बाबू थे। तब बिहार को उन्होंने एक ख्वाब दिया था। बिहार में पहली बार लॉ एंड ऑर्डर की हालत सुधरी थी। पहली बार, पुलिसवालों को उनका रसूख मिला था, खुलकर काम करने दिया गया था। पहली बार भ्रष्टाचारियों की काली कमाई से बने ह्वाइट हाउस में स्कूल खोल दिया गया था, पहली बार बिहार में रिवर्स माइग्रेशन शुरू हुआ था, पहली बार बिहार में बसने-बसाने की बात वे अभागे बिहारी कर रहे थे, जो तीन पीढ़ियों से पलायन का दंश झेल रहे थे, बाहरी राज्यों में लात-जूता खा रहे थे। अफसोस, ये सब बस 2010 तक रहा। 

आज जो कुछ भी हो रहा है, वह ‘कंट्री माफिया’ में दिखता है। शराबबंदी की जिद बल्कि सनक में नीतीश कुमार अपनी आँखें बंद कर चुके हैं, लेकिन माफिया नहीं। हजारों करोड़ के इस अवैध व्यापार को पूरी तरह संस्थागत रूप दे दिया गया है। इस पर कब्जे के लिए होती है गैंगवार और यही है आज का बिहार। जहाँ का एक स्टेशन फिर से एक दिन में सबसे अधिक टिकट बेचने का रिकॉर्ड बनाता है, जहाँ एक शहर ढंग का नहीं है, जहाँ उद्योग-धंधों के न होने के बावजूद भारत के सबसे अधिक प्रदूषित पांच शहर हैं। यह तो वाकई शोध का विषय है कि जब इंडस्ट्री नहीं, पुआल यहाँ के किसान उस मात्रा में जलाते नहीं, तो फिर ये प्रदूषण आया कहाँ से? 

हाँ, उलटबाँसियों वाली योजनाएँ जरूर चल रही हैं। राजगीर तक गंगाजल ले जाना हो या हर घर नल का जल, सभी योजनाएँ पर्यावरण को धता बताकर चल रही हैं। कागजों पर करोड़ों पौधे लग चुके हैं, लेकिन पटना की हवा इतनी जहरीली है कि दिल्ली भी उससे बेहतर लगती है। 

सामाजिक न्याय या अन्याय

बिहार में पिछले 32 वर्षों से सामाजिक न्याय का शासन रहा है। इसके आधे वक्फे में राष्ट्रवादी भी सत्ता-सुख भोग चुके हैं, नीतीश जी को कांधा दिया है। बिहार अभी भी हरेक मापदंड पर पीछे ही चल रहा है। सामाजिक न्याय की बात करने वालों के परिवार का भला होने के अलावा बिहार की बहुसंख्यक जनता का कौन सा भला हुआ है, यह शायद बुद्धिजीवी बता सकें। 

यहाँ तक कि बिहार के साथ के जो बीमार राज्य थे, वे भी आज प्रगति की दौड़ में कदमताल कर रहे हैं। यहाँ तक कि बिहार का सहोदर दिखने वाला राज्य यूपी भी आज खुद को अलग दिखला सकता है, लेकिन बिहार में प्रगति का मतलब दरभंगा में जबरन खुलवाया गया वह हवाई अड्डा है, जहाँ बैठने के लिए प्लास्टिक की कुर्सियाँ और रात में प्लेन ना उतरने की सुविधा है। 

इस लेखक को नहीं पता कि भारत के और किसी हवाई अड्डे को यह गौरव हासिल है या नहीं।  



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