बुधिनी: एक दुर्लभ मुलाकात की एक अभूतपूर्व साहित्यिक परिकथा


एक अकादमिक संगोष्ठी में सुपरिचित मलयाली लेखिका सारा जोसेफ ने पहली बार चर्चित कवि और राजनीतिक कार्यकर्ता सिविक चंद्रन से “बुधिनी” के बारे में सुना, जिन्होंने उस पर एक संवेदनशील कविता लिखी थी। यह एक ऐसा विषय था जिसने सारा जोसेफ के मन-मस्तिष्क को झकझोर दिया था और उनकी रूह को छुआ था। सिविक चंद्रन ने सारा जोसेफ से आग्रह किया कि क्या वे इस सवंदेनशील विषय को कहानी में विस्तृत कर सकती हैं।

चंद्रन को 2 जून, 2012 को द हिंदू में प्रकाशित चित्रा पद्मनाभन के एक लेख Recovering Budhini Mejhan from the silted landscapes of modern India में बुधिनी की कहानी मिली। सारा जोसेफ ने भी इस लेख को कई बार पढ़ा। इससे संबंधित सूचनाओं का तफ़सील से संकलन किया।

बांध के औपचारिक उद्घाटन के लिए एक 15 वर्षीय लड़की बुधिनी को भी आमंत्रित किया गया था

घटना कुछ इस प्रकार थी कि 6 दिसंबर 1959 को प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू दामोदर नदी पर पंचेट बांध का उद्घाटन करने के लिए वर्तमान झारखंड के धनबाद जिले में गये थे। बांध के औपचारिक उद्घाटन के लिए एक पंद्रह वर्षीय लड़की ” बुधिनी” को भी आमंत्रित किया गया था। उद्घाटन के क्रम में ही बुधि‍नी ने नेहरू जी को माथे पर तिलक लगाया और गले में फूलों की माला पहनायी। बुधिनी संथाल आदिवासी समाज से थी। संथाल परम्पराओं के अनुसार इन औपचारिक संकेतों को विवाह के कार्य के रूप में व्याख्यायित किया गया और अंततः उस पंद्रह वर्षीय बुधिनी को उसके समाज ने बहिष्कृत कर दिया। बुधिनी को ‘अपने समुदाय के बाहर शादी’ करने के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया था। जिस परियोजना में बुधिनी काम कर रही थी वहां से भी उसे निकाल दिया गया था।

स्वतंत्र भारत के इतिहास में ‘’बुधिनी मेझन’’ एक उजड़े हुए जीवन की बेहद पीड़ादायी कथा है। उपन्यास में इस अकथ कथा की कथावाचक है युवा पत्रकार रूपी मुर्मू जो उनसे संबंधित घटनाक्रम को संसार के समक्ष लाने के लिए दृढ़संकल्पित है। पेंग्विन रैंडम हाउस इंडिया से प्रकाशित इस पुनर्कल्पित इतिहास में लेखिका सारा जोसेफ ने बुधिनी के चरित्र को एक विशिष्ट तेवर से अधिकार के लिए संघर्षशील अदम्य जीवट वाली स्त्री के रूप में उजागर किया है, जो उसे एक ही समय में एक मजबूत और सहज-सरल चरित्र बनाता है। यह किताब सारा जोसेफ की बेटी संगीता श्रीनिवासन द्वारा मलयालम से अनूदित है, जो खुद एक चर्चित उपन्यासकार हैं।

लेखिका सारा जोसेफ ने वापस जाकर बुधिनी के बारे में अधिक से अधिक पढ़ा। उनसे सम्बंधित सूचनाओं का संधान किया। उन्होंने उस जगह की यात्रा का निर्णय किया जहां उनकी नायिका बुधिनी रहती थी। उन्हें यह बताया गया था कि उसकी मृत्यु वर्षों पूर्व हो गयी, हालाँकि उनकी इस यात्रा में अप्रत्याशित और नाटकीय मोड़ तब आया जब वह सद्यः जीवित बुधिनी से स्वयं मिलीं। सारा जोसेफ को यह सब एक परिकथा की तरह महसूस हुआ।

यह एक दुर्लभ मुलाकात की स्मृति है जो साहित्य जगत के इतिहास में पहले कभी नहीं हुई। लेखिका सारा जोसेफ अपने शानदार शिल्प के साथ इस मायावी क्षण के बारे में वह सब लिखती हैं, जब वह अपने उपन्यास की एक नायिका से मिली थीं।

सारा और बुधिनी: यह एक दुर्लभ मुलाकात की स्मृति है जो साहित्य जगत के इतिहास में पहले कभी नहीं हुई

पुस्तक अंश

रूपी मुर्मू ने स्वतंत्र फोटोग्राफर और मित्र सुचित्रा से कहा, “हमारे लोग यह विश्वास करना चाहेंगे कि जिस महिला ने वर्षों पहले आत्महत्या की थी, वह जीवित है!” वे कोलकाता से धनबाद जा रहे रास्ते में बुधिनी मेझन के बारे में बात कर रहे थे। रूपी को अपने चचेरे भाई मुकुल मुर्मू से एक संदेश मिला था, जो धनबाद में एक क्रॉकरी की दुकान में काम करता था, जिसमें कहा गया था कि बुधि‍नी अभी भी जीवित है। इस संदेश ने उसे सचमुच झकझोर कर रख दिया था।”

“रूपी ने जून 2012 में एक महत्वपूर्ण समाचार पत्र में बुधि‍नी की मौत की रिपोर्ट को प्रमुख समाचार के रूप में पढ़ा था। लेख में इस बात का संकेत था कि उसके अंतिम दिन कितने दयनीय थे, गरीबी और दुर्बलता ने उसके साथ कैसा क्रूर दुर्व्यवहार किया था और न्याय से वंचित होकर उसे कैसे मरना पड़ा था। बुधिनी, रूपी की दूर की रिश्तेदार थी। चूंकि रूपी ने उसके साथ कोई भावनात्मक संबंध नहीं बनाये रखा था, इसलिए उसकी मौत ने उसे भावनात्मक रूप से प्रभावित नहीं किया। रूपी ने उसे व्यक्तिगत रूप से देखा तक नहीं था। फिर भी, बुधिनी के जीवित होने की सच्चाई ने उसे बहुत प्रभावित किया।”

रूपी मुर्मू ने अपने दादू जगदीप मुर्मू की बदौलत अपने गांव और आसपास के कई गांवों में शोध शुरू किया था। उन्हें निराशा हुई जब उन्हें संपादक को बुधिनी की कहानी का परिचय देना पड़ा। इस नाम ने अब तक उनका ध्यान नहीं खींचा था। ‘वह कौन है?’, उसने पूछा था।

सारा जोसेफ उपन्यास में आगे लिखती हैं:

जब रूपी ने बुधिनी को पंडित जवाहरलाल नेहरू की पत्नी बताया था, तो संपादक की हंसी फूट पड़ी थी।
“अवैध?” उसने प्रतिवाद किया था।


रूपी मुस्कुरायी नहीं, लेकिन उसके सहयोगी संपादक के साथ ज़ोर-ज़ोर से हँसने में शामिल हो गये थे। वह इसे हंसी का विषय नहीं बनाना चाहती थी। वह जानती थी कि उसके चेहरे पर खून दौड़ रहा है, जिससे उसके गाल जल रहे हैं।

“आप कितने वर्षों के भारतीय इतिहास के बारे में जानते हैं?” उसने संपादकों से पूछा था। आखिरकार, उसने उनसे अधिक विवरण साझा नहीं करने का विकल्प चुना। अखबार दिल्ली का था, जाहिर है पत्रकार भी वहीं के थे। उन्हें करबोना नामक एक छोटे से संथाल गांव को स्वीकार करने की आवश्यकता भी नहीं थी, जो झारखंड की पूर्वी सीमाओं के पास पश्चिम बंगाल के करीब स्थित है। हालांकि, पत्रकार होने के बावजूद अगर वे वहां रहने वाली बुधिनी से अनजान थे, तो यह अस्वीकार्य था। रूपी के लिए बुधिनी कोई मामूली विषय नहीं था। अब रूपी मुर्मू का उद्देश्य- निश्चित रूप से- बुधि‍नी की तथाकथित मृत्यु और जीवन का उद्घाटन करने का बन गया था।”

पुस्तक अंश, बुधिनी

सारा जोसेफ ने रूपी मुर्मू के चरित्र का बेमिसाल चित्रण किया है।

जब बुधिनी अपने गाँव करबोना लौटी, तो गाँव के बुजुर्गों ने उसे बताया कि समारोह में नेहरू को माला पहनाकर उसने उससे शादी कर ली थी। चूंकि प्रधान मंत्री संथाल नहीं थे, इसीलिए वह अब समुदाय का हिस्सा नहीं थीं। उसे गांव छोड़ने के लिए कहा गया था। समुदाय के अलिखित नियम ने यह सुनिश्चित किया कि बहिष्कार पूरा हो। बुधिनी मेझन देश की संभवत: पहली मजदूर थीं जिन्हें किसी बांध का उद्घाटन करने का अवसर मिला। यह किसी के लिए भी अनमोल क्षण होता, लेकिन यह बुधिनी के लिए दुखद साबित हुआ। बुधि‍नी की कहानी भारत के इतिहास, भारत के विकास के इतिहास और कई अलग-अलग विषयों की समवेत कथा है।

पंद्रह वर्षीय बच्ची बुधिनी मेझन को पंचेत के निवासी सुधीर दत्ता ने आश्रय दिया था, जिसके बारे में कहा गया था कि उसकी एक बेटी थी जो उसकी माँ की तरह निर्वासन की नियति में पैदा हुई थी। 1962 में बुधिनी को डीवीसी की नौकरी से निकाल दिया गया और वह विषम कार्य करने के लिए बाध्य हो गयी। 1980 के दशक में उन्होंने दिल्ली की यात्रा की। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी से मुलाकात की- उसी प्रधानमंत्री के नाती जिन्‍हें उसने माला पहनायी थी- एक अनुरोध के साथ: वह डीवीसी में पुनः बहाल होना चाहती थी।

लेखक सारा जोसेफ ने देश के विभिन्न चरणों में हुए विकास से हुए नुकसान के बारे में गहरायी से बताया है। वह उपन्यास में उन लोगों के बारे में भी बात करती हैं जिन्हें उनके घरों से निकाल दिया गया था। विभिन्न अध्ययनों से पता चलता है कि 1947 के बाद से लगभग साढ़े छह करोड़ लोगों को अपनी ही जमीन से बेदखल किया गया था। इस मामले में सरकार की चिंता कैसी रही है- क्या स्वतंत्र भारत में ऐसी समस्याएं हल करने के लिए कोई तरीका बनाया गया है?

ब्रिटिश शासन के दौरान भूमि अधिग्रहण आसान था। उनकी निति दमनकारी थी। वे मारपीट करते थे और लोगों को उनके घरों से बाहर निकाल देते थे और जमीन पर कब्जा कर लेते थे। अब प्रश्न यह आता है कि आज़ाद भारत में कई बड़े प्रोजेक्ट के लिए जमीन का अधिग्रहण किया गया है। उन लोगों का क्या होगा जिन्हें इन जमीनों से बेदखल कर दिया गया है?

सारा जोसेफ किताब में लिखती हैं:

हम बाढ़ से परिचित थे क्योंकि हर साल बाढ़ आती थी। दामोदर की उफनती धारा तेजी से घरों और बस्तियों में घुस जाती थी। एक बाढ़ और दूसरी बाढ़ के बीच, हम अपने क्षेत्रों में खेती करते थे, चावल उगाते थे और आने वाली लहर की तैयारी करते थे। लेकिन बांधों के आने से चीजें बदल गईं। पानी ने हमें हमेशा के लिए बाहर कर दिया।

पुस्तक अंश, बुधिनी

रूपी मुर्मू ने अपने दादा की कहानी की तह तक जाने के लिए अपना शोध शुरू किया। नेहरू बांधों के बारे में उत्साहित थे क्योंकि उन्हें लगा कि वे विशाल संरचनाएं हैं जो राष्ट्र की नियति का निर्धारण करेंगी। क्या इससे अधिक पवित्र और उदात्त कोई अन्य स्थान था?

“इसके विपरीत, मैं पूछता हूं कि क्या इनसे अधिक विनाशकारी कोई अन्य स्थान है”? रूपी के दादू ने विरोध की लहर खींची थी। उस दिन का सपना जब बांधों को तोड़ा जाएगा।

राजनीतिक व्यक्ति एक परियोजना की कल्पना कर सकते हैं, लेकिन इसे लागू कैसे किया जाना चाहिए, इसकी परवाह नहीं करते। इस पंचेत बांध परियोजना के लिए लगभग सात या आठ हजार परिवारों को बेदखल किया गया था। वे कहाँ गये, ऐसे सारे पहलू बुधि‍नी की कहानी से निकलेंगे। सारा जोसेफ का यह नया उपन्यास हमारे अथक आधुनिकीकरण की व्यापक जैव-राजनीति और पारिस्थितिक वास्तविकताओं के प्रति उदासीन होने के खतरों को दृढ़ता के साथ रेखांकित करता है।

बुधिनी एक समाचार लेख पर आधारित उपन्यास है। यह उनकी जीवनी या ऐतिहासिक उपन्यास नहीं है।

मैंने इसे बुधिनी की कहानी के रूप में लिखना शुरू किया जो मर चुकी थी। इसे लिखते समय, मैंने इस बात का अत्यधिक ध्यान रखा कि इतिहास को कल्पना के साथ कैसे जोड़ा जाए और समाचार और कल्पना को कैसे मिलाया जाए। मेरे उपन्यास में बुधि‍नी का जीवन मूल्‍य बुधिनी का जीवन नहीं हो सकता है। मूल बुधि‍नी का जीवन मेरे चरित्र के लिए आवश्यक नहीं था। यह मैंने कल्पना और संभावनाओं पर छोड़ दिया। मेरा आकलन है कि कल्पनाशक्ति ऐतिहासिक तथ्यों को सत्य बनाने में मदद करेगी।

(कलिंग लिटरेरी फेस्टिवल (केएलएफ) में सारा जोसेफ)

कहानी और चरित्रों का निर्माण करने वाले हमारे देश के हाशिये पर खरे लोगों के इतिहास और वर्तमान जीवन के साथ यह एक शानदार शोध और व्यापक महत्त्व वाला उपन्यास है। यह बुधि‍नी मेझन थी, जिसे भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की दुल्हन के रूप में लेबल किया गया था और बाद में उनके समुदाय द्वारा बहिष्‍कृत कर दिया गया था। आधुनिक भारत को उसे कभी नहीं भूलना चाहिए!


पुस्तक: बुधिनी
लेखिका: सारा जोसेफ
अनुवाद: संगीता श्रीनिवासन
प्रकाशक: पेंगुइन रैंडमहाउस इंडिया
इम्प्रिंट: भारत हामिश हैमिल्टन
कीमत: 599 रुपये


आशुतोष कुमार ठाकुर बंगलुरु में रहते हैं। पेशे से मैनेजमेंट कंसल्‍टेंट हैं और कलिंग लिटरेरी फेस्टिवल के सलाहकार हैं


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