प्रेस स्वतंत्रता दिवसः नौ महीने से लॉकडाउन कश्मीर के आईने में अभिव्यक्ति की आज़ादी का भयावह सच


प्रेस किसी भी समाज का आइना होता है। भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में प्रेस की स्वतंत्रता बुनियादी जरूरत है। मीडिया की आजादी का मतलब है कि किसी भी व्यक्ति को अपनी राय कायम करने और सार्वजनिक तौर पर इसे जाहिर करने का पूरा अधिकार है। भारत में प्रेस की स्वतंत्रता भारतीय संविधान के अनुच्छेद−19 में भारतीयों को दिए गए अभिव्यक्ति की आजादी के मूल अधिकार से ही सुनिश्चित होती है। विश्व स्तर पर प्रेस की आजादी को सम्मान देने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा द्वारा 3 मई को विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस घोषित किया गया, जिसे विश्व प्रेस दिवस के रूप में भी जाना जाता है। इस दिवस को मनाने का उद्देश्य प्रेस की स्वतंत्रता का मूल्यांकन करना, प्रेस की स्वतंत्रता पर बाह्य तत्वों के हमले से बचाव करना एवं प्रेस की स्वतंत्रता के लिए शहीद हुए संवाददाताओं और पत्रकारों की यादों को सहेजना है।

प्रेस की आज़ादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सवाल कोई नया नहीं है और न ही इसकी बहस कोई आज की बहस है। ये तो शताब्दियों से राज्य, क़ानून और समाज के इर्द गिर्द एक अनसुलझी जटिल बुनावट के रूप में रची बसी है। कुछ मीडिया विश्लेषकों का कहना है कि ये एक अंतहीन बहस है और जब तक राज्य, समाज, सरकार और मीडिया का वजूद रहेगा इनके बीच का यह अंतर्द्वंद्व चलता ही रहेगा। पिछले कई सालों से समय समय पर पूरी दुनिया में मीडिया जगत हो या बौद्धिक राजनीतिक समाज में किसी न किसी घटना के बाद प्रेस की आज़ादी और लिखने बोलने की स्वतंत्रता का सवाल ज़ेरे बहस हो जाता है।

हाल ही में भारत प्रशासित कश्मीर में सरकार ने सख़्त क़ानून यूएपीए (ग़ैरक़ानूनी गतिविधियाँ रोकथाम अधिनियम) के तहत एक महिला फ़ोटो-पत्रकार समेत तीन पत्रकारों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की है जिसके ख़िलाफ़ देश के अंदर पत्रकारों समेत आम जनता में भी ग़ुस्सा है। दुनिया भर के पत्रकारों के संगठनों ने भी इसकी कड़ी भर्त्सना की है।

कश्मीर में पत्रकारों की आज़ादी के ताज़ा हालात

पाँच अगस्त, 2019 को भारत सरकार ने संविधान की धारा 370 के तहत कश्मीर को मिलने वाले विशेष राज्य के दर्जे को ख़त्म कर दिया और पूरे राज्य को लॉकडाउन कर दिया था। उसके बाद पूरे राज्य में हर तरह की आवाजाही और सामान्य गतिविधियों तक को पूरी तरह से ठप कर दिया गया। न तो घाटी में कोई स्कूल कॉलेज खुले और न ही किसी तरह कोई भीड़भाड़ वाली जगह। सिनेमाघर, शॉपिंग मॉल, बाज़ार, होटल, रेस्टोरेन्ट और यहाँ तक कि 21वीं सदी में जब पूरी दुनिया ही को डिजिटल करने की बात हो रही है और देश के प्रधानमंत्री पूरे देश को डिजिटल करने के भगीरथ प्रयास में लगे हैं उस युग में कश्मीर में इंटरनेट तक बंद कर दिया गया। हाल की घटनाओं ने फिर से देश में प्रेस की आज़ादी के सवाल को ताज़ा कर दिया है।

पहला मामला 26 वर्षीय कश्मीरी फ्रीलांस फ़ोटो पत्रकार मसरत ज़हरा से जुड़ा है जिन पर सरकार ने राष्ट्रविरोधी फ़ेसबुक पोस्ट्स लिखने का आरोप लगाया है जिसे लेकर सोशल मीडिया पर काफ़ी आक्रोश देखा गया। ज़हरा पिछले चार वर्षों से वाशिंगटन पोस्ट और गेटी इमेजेज़ और अल-जज़ीरा के लिए कश्मीर से रिपोर्ट कवर कर रही थीं। कश्मीर में घटने वाली हर घटना पर और उसकी मूलभूत समस्याओं पर मसरत पिछले कई सालों से लगातार लिखती आ रही थीं। वो ज़्यादातर हिंसाग्रस्त क्षेत्रों में महिलाओं और बच्चों से जुड़े मामलों पर रिपोर्ट करती रहीं हैं। अपने चार साल के करियर में उन्होंने आम कश्मीरियों पर हिंसा के प्रभाव को दिखाने की कोशिश की है और इसीलिये मसरत कश्मीरी आवाम के बीच काफ़ी पॉपुलर व्यक्तित्व भी हैं। मसरत ज़हरा ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी जिसे उन्होंने वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के इस भरोसे के बाद वापस ले लिया है कि उनके ख़िलाफ़ लगे आरोप वापस ले लिए जाएँगे।

दूसरा मामला है राष्ट्रीय समाचार पत्र द हिंदू के संवाददाता आशिक़ पीरज़ादा का, जिनको एक पुलिस हैंडआउट के अनुसार “फ़ेक न्यूज़” लिखने के आरोप में थाने तलब किया गया। उन्हें इसके लिए लॉकडाउन के बीच श्रीनगर से लगभग 100 किलोमीटर दूर अपने घर से लंबा सफ़र करना पड़ा और थाने तक पहुँचना पड़ा।

आशिक़ ने एक मारे गए चरमपंथी के परिवार वालों से एक इंटरव्यू लिया था जिसमें उनको ये कहते दिखाया था कि प्रशासन ने उन्हें बारामुला में उनके घर से लगभग 160 किलोमीटर दूर दफ़न चरमपंथी की लाश को निकालने की अनुमति दी है। बस इतनी सी बात पर पीरज़ादा आशिक़ को पुलिस ने समन जारी कर तुरंत थाने बुलवा लिया था।

एक तीसरा मामला कश्मीर के एक लेखक और पत्रकार गौहर गिलानी से जुड़ा है। पुलिस की ओर से जारी किए गए बयान में आरोप लगाया गया है कि गौहर गिलानी कश्मीर में चरमपंथी गतिविधियों को बढ़ावा देने वाली बातें करते हैं और सोशल मीडिया पर अपनी पोस्ट के जरिए वो ग़ैरकानूनी गतिविधियों में भी शामिल हैं जो कि देश की एकता के लिए ख़तरा है। आज तक पुलिस ने ये नहीं बताया कि देश की उनकी एकता और अखंडता की ऐसी कौन सी परिभाषा है जो बात बात पर खंडित होती रहती है।

साइबर पुलिस का कहना है कि गौहर गिलानी के ख़िलाफ़ कई शिकायतें मिली थीं जिसके बाद उनके ख़िलाफ़ केस दर्ज किया गया है।  

गौहर गिलानी ने फ़ेसबुक पर अपने हालिया पोस्ट में लिखा है, ”उम्मीद है कि ‘शुद्धीकरण’ की प्रक्रिया या प्रवचन व्यक्तिगत, तुच्छ और धार्मिक नहीं बनेंगे। हर किसी को सभ्य तरीके से सभी तरह के विचारों का सम्मान करना चाहिए क्योंकि विविधता से भरी दुनिया में विचारों की एकरूपता नहीं हो सकती है। एक व्यक्ति महत्वपूर्ण नहीं है। महत्वपूर्ण है स्वतंत्रता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और विचार रखने का अधिकार। प्रतिशोधी मत बनो, दयालु बनो सज्जन बनो”।

देश और दुनिया भर में हो रहा है विरोध

देश भर के बुद्धिजीवियों समेत कश्मीरी पत्रकारों ने भी सोशल मीडिया पर इन पत्रकारों के ख़िलाफ़ दर्ज आरोपों को वापस लेने की माँग की। तमाम राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थाओं रिपोर्टर्स सांस फ़्रंतिए और एमनेस्टी इंटरनेशल ने भारत सरकार से आरोपों को वापस लेने और प्रेस की स्वतंत्रता को तुरंत बहाल करने की माँग की। लोगों का कहना है कि किसी भी देश में से आज़ादी का मखौल है कि वहाँ सच बोलने और लिखने की सजा आतंकी गतिविधि मानी जाये।

नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता और जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ट्विटर पर लिखा कि बिना सवाल जवाब के जिस तरह कश्मीर में पत्रकारों और विचारकों के ख़िलाफ़ केस दर्ज किए जा रहे हैं वो ग़लत हैं और उन्हें रोका जाना चाहिए।

इसके अलावा एडिटर्स गिल्ड जो कि देश में प्रेस की आज़ादी और संपादकीय नीतियों के बारे में काम करता है, उसने भी इस घटना की कटु आलोचना करते हुए कहा कि किसी भी चीज़ को मुख्यधारा की मीडिया में छापने या सोशल मीडिया पर लिखने को लेकर कानूनी कार्रवाई करना कानून का ग़लत इस्तेमाल है। और देश के दूसरे हिस्सों में भी पत्रकारों को दबाने की एक कोशिश बदस्तूर जारी है जो कि एक स्वतंत्र देश में बहुत ग़लत है। बयान में साफ़ तौर पर कहा गया है अगर सरकार को किसी की रिपोर्टिंग से कोई शिकायत है तो उससे निपटने के दूसरे भी सामान्य तरीके हमारे यहाँ पहले से मौजूद हैं। महज सोशल मीडिया पोस्ट के आधार पर किसी पर कार्रवाई करना और उस पर आतंकवाद निरोधक कानून के तहत केस दर्ज करना सरासर तानाशाही है और यह एक एक स्वस्थ लोकतंत्र के लिये सही नहीं है।

प्रेस की आज़ादी के मामले में पिछड़ रहा है भारत!

हाल ही में जारी 180 देशों के ‘विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक 2020 में भारत 142वें स्थान पर पहुँच गया है, जबकि बीते वर्ष भारत इस सूचकांक में 140वें स्थान पर था।

रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स नामका एक गैर-सरकारी संगठन हर साल एक रिपोर्ट जारी करता है। इसके द्वारा जारी किये जाने वाला यह सूचकांक विश्व के कुल 180 देशों और क्षेत्रों में मीडिया और प्रेस की स्वतंत्रता को दर्शाता है।

रिपोर्ट के अनुसार, भारत में जो लोग एक विशेष विचारधारा का समर्थन करते हैं वे अब राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे सभी विचारों को दबाने की लगातार कोशिश कर रहे हैं, जो उनके विचार से मेल नहीं खाती हैं। इसके अतिरिक्त देश में उन सभी पत्रकारों के विरुद्ध एक राष्ट्रव्यापी अभियान चलाया जा रहा है, जो सरकार और राष्ट्र के बीच के अंतर को समझते हुए अपने कर्त्तव्यों का निर्वाह कर रहे हैं। महिला पत्रकारों की स्थिति में इस प्रकार के अभियान और अधिक गंभीर हो जाते हैं।

रिपोर्ट में स्पष्ट तौर पर कहा गया है कि भारत में आपराधिक धाराओं को उन लोगों खासकर पत्रकारों के विरुद्ध प्रयोग किया जा रहा है, जो अधिकारियों की आचोलना कर रहे हैं। उदाहरण के लिये बीते दिनों देश में पत्रकारों पर भारतीय दंड संहिता (IPC) की धारा 124A (राजद्रोह) के प्रयोग के कई मामले सामने आए हैं।

रिपोर्ट के अनुसार, “सरकार की खुलकर आलोचना करने वाले पत्रकारों का मुंह बंद करने के लिए भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए के तहत मुकदमा दर्ज कराने की धमकियां तक दी जाती हैं, जिसके तहत देशद्रोह के लिए आजीवन कारावास तक की सजा का प्रावधान है।”

रिपोर्ट में ये भी कहा गया है, “भारतीय मीडिया में सेल्फ़ सेंसरशिप बढ़ रही है और पत्रकार कट्टर राष्ट्रवादियों के ऑनलाइन ट्रोलर्स के बदनाम और परेशान करने के अभियान के निशाने पर हैं। सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों को रोकने के लिए अनाप-शनाप मुक़दमे तक किए जा रहे हैं।

कश्मीर में प्रेस की आज़ादी

रिपोर्ट में जम्मू एवं कश्मीर में पत्रकारिता करने के खतरों का भी जिक्र किया गया है। रिपोर्ट में कहा गया है, “भारत सरकार जिन क्षेत्रों को संवेदनशील मानती है, जैसे कश्मीर, उन जगहों से पत्रकारिता करना लगातार कठिन बना हुआ है और पत्रकारों की सुरक्षा के लिए कोई प्रणाली भी नहीं विकसित की गई है।”

जुलाई 2016 में कश्मीर में शुरू हुए विरोध प्रदर्शन के पहले दिन ही सेना द्वारा यहां इंटरनेट सेवा बंद कर दी गई। यहां अक्सर इंटरनेट सेवा पर लगाम लगाया जाता रहा है ताकि प्रदर्शनकारियों की आपस में बातचीत न हो सके। ऐसा इसलिए भी किया जाता है ताकि मीडिया, स्थानीय पत्रकारों और सिटीजन जर्नलिस्ट आदि को रिपोर्ट करने से रोका जा सके। स्थानीय मीडिया संस्थानों के लिए काम कर रहे पत्रकार अक्सर सैनिकों की हिंसा का शिकार बनते हैं, जिसके लिए उन्हें केंद्र सरकार की मौन सहमति मिली रहती है।

कश्मीर प्रेस क्लब (केपीसी) जो कि कश्मीर का सबसे बड़ा निर्वाचित मीडिया निकाय है उसके अनुसार इस साल फरवरी में देखा गया कि जब से भारत की संसद ने संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त किया है, पत्रकार और मीडिया घाटी में स्वतंत्र रूप से काम करने से कोसों दूर हैं। लंबे समय तक इंटरनेट बंद होने से पत्रकारों को भारी परेशानी हुई। केपीसी का दावा है कि पत्रकारों को खूब डराया जा रहा है और अक्सर भड़कीले आधारों पर सवाल उठाए जाते हैं।

कश्मीर में पिछले कुछ वर्षों में लगातार कई इंटरनेट ब्लैकआउट देखे गये हैं लेकिन यह लगभग 213 दिनों तक चलने वाला सबसे लंबा शटडाउन था। कश्मीर में इंटरनेट शटडाउन 4 अगस्त, 2019 को लागू किया गया था, जिस दिन भारत सरकार ने धारा 370 को निरस्त कर दिया था, जिसने कश्मीर को भारतीय संघ के भीतर विशेष दर्जा दिया था और इसे 4 मार्च, 2020 तक बढ़ाया गया था। भारत सरकार ने हाल ही में पोस्टिंग कनेक्शन पर सेलुलर सेवाओं को बहाल किया, लेकिन केवल लैंडलाइन फ़ोन पर बातचीत की सेवाएं ही बहाल की गई हैं।

संगीनों के साये में प्रेस की आज़ादी?

अंतर्राष्ट्रीय प्रेस संस्थान (IPI) ने 17 मार्च को प्रकाशित अपनी एक रिपोर्ट में कहा है कि श्रीनगर, भारतीय प्रशासित कश्मीर में प्रेस की आज़ादी “सुरक्षा बलों की गंभीर धमकी के तहत” है। वहाँ मीडिया की आज़ादी पर सुरक्षाबलों और भारत सरकार का मज़बूत दबाव है।

एमनेस्टी इंटरनेशनल ने भी अपनी कई रिपोर्ट में कश्मीर में पत्रकारों की सुरक्षा पर सवाल उठाया है। हाल की घटनाओं पर भी उसने भारत सरकार से कड़ी प्रतिक्रिया दर्ज कराई है और पत्रकारों क ऊपर से सभी तरह के चार्ज वापस लेने को कहा है। अपने बयान में उसने कहा कि पत्रकार पूरी दुनिया में मानवाधिकारों की सुरक्षा के लिये और जन सरोकारों को ध्यान में रखकर काम करते हैं। उनके ऊपर इस तरह की कार्रवाई निंदनीय है।

पत्रकार रोहिन वर्मा जो कि कश्मीर में पत्रकारों की स्थिति पर खूब लिख चुके हैं उनकी रिपोर्ट में ज़िक्र है कि कश्मीर में किसी भी पत्रकार को कभी भी काउंटर इनसर्जेंसी बलों द्वारा बुला लिया जाता है। वहाँ पत्रकारों से घंटों पूछताछ की जाती है और उनके फ़ोन, लैपटॉप, पेन ड्राइव आदि की बेतरतीब तरीक़े से तलाशी ली जाती है। मतलब यह कि उस जगह पर उनकी फोन या लैपटॉप भी उनका अपना नहीं होता है। वे फोन करके इसे ले सकते हैं। यहां पत्रकारों के लिए काम करने की कोई गोपनीयता नहीं होती है। यह घटनाएं और माहौल कई बार पत्रकारों के लिये मानसिक रूप से बहुत परेशान करने वाला होता है।

कश्मीरवाला मैगजीन के एडिटर-इन-चीफ फ़हद शाह ने एक इंटरव्यू में कहा कि दिल्ली में एक पत्रकार को ट्वीट करने के लिए उत्तर प्रदेश पुलिस उठा ले जाती है तो सिद्धार्थ वरदराजन, राजदीप सरदेसाई, रवीश कुमार सारे नामचीन पत्रकार उस पत्रकार के पक्ष में लिखना-बोलना शुरू कर देते हैं। ट्विटर ट्रेंड करने लगता है। मीडिया की स्वतंत्रता पर हमला हो जाता है लेकिन हर रोज़ कश्मीरी पत्रकार जान जोखिम में डालकर रिपोर्ट लिखता है, फोटो खींचता है, उसके बारे में दिल्ली के पत्रकारों को चिंता नहीं होती।”

असुरक्षा और डर का माहौल

इंटरनेट के बिना या केवल प्रतिबंधित इंटरनेट के साथ काम करने से पत्रकारों को कश्मीर के दूरदराज के हिस्सों में हिंसा और तमाम तरह की घटनाओं और विकास के बारे में रिपोर्टिंग करने में बाधा उत्पन्न होती है। और तो और पत्रकारों को राज्य सरकार द्वारा सप्ताह में एक या दो बार जारी किए गए प्रेस ब्रीफ पर भरोसा करने के लिए मजबूर किया जाता है, बिना सत्यापन की संभावनाओं के।

ये तो सिर्फ़ पुलिस सुरक्षाबलों और इंटरनेट की समस्या है। यहाँ तो सरकार अख़बारों पर लगाम लगाने का आर्थिक हथकंडा भी खूब अपनाती है। कश्मीर के दो प्रमुख समाचार पत्र, ग्रेटर कश्मीर और कश्मीर समय पिछले कई दिनों से पाठकों के पैसों पर निर्भर हैं, जब से जम्मू और कश्मीर राज्य सरकार ने 16 फरवरी को उनसे सभी विज्ञापन वापस लेना शुरू किया। इस निर्णय के लिए कोई आधिकारिक स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है।

मई 2014 में जब मोदी देश के प्रधानमंत्री बने थे तब भारत प्रेस की आज़ादी की रैंकिंग में 140वें नबंर पर था। 2015 में भारत 136वें नंबर पर आया, 2016 में 133वें नंबर पर आया और 2017 में 136वें पायदान पर आ गया। अभी हाल की रिपोर्ट में भारत इस रैंकिंग में 142वें स्थान में है। 2010 में भारत इस सूची में 122वें नंबर पर था और तब यूपीए सरकार सत्ता में थी. इसके बाद भारत 2014 तक 140वें नबंर पर रहा।

ऐसा नहीं है कि जब से केन्द्र में भाजपा की सरकार आई है तभी से देश में प्रेस की स्वतंत्रता और पत्रकारों की आज़ादी पर ख़तरा मंडराने लगा है। यूपीए सरकार के दौरान भी कश्मीर सहित देश भर में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और पत्रकारों की आज़ादी पर पर्याप्त प्रतिबंध लगाये गये हैं। राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय रिपोर्टों में भारत हमेशा से ही पत्रकारों की सुरक्षा और उनके ऊपर प्रतिबंध के लिये बदनाम रहा है। कांग्रेस सरकार आजतक इमरजेंसी के दौरान प्रेस के मर्दन का कलुषित दाग अपने दामन से छुटा नहीं पाई है।

असल में कश्मीर के अंदर पत्रकार बिरादरी में डर का माहौल कश्मीरी पत्रकार शुजात बुख़ारी की हत्या के बाद से और बढ़ गया है। इस घटना ने कश्मीर में प्रेस की आज़ादी और लिखने के अधिकार की धज्जियाँ उड़ाकर रख दीं। पूरी दुनिया के सामने कश्मीर में प्रतिरोध की आवाज़ और मीडिया पर भयंकर दबाव की क्रूर सच्चाई को उजागर किया। शुजात बुखारी का अख़बार ‘राइज़िंग कश्मीर’ अपनी ऊर्जा और संपादकीय ताक़त के लिए जाना जाता रहा है।

कश्मीर पिछले वर्ष अगस्त से ही अनिश्चितता के दौर से गुज़र रहा है जब भारत सरकार ने उसका विशेष दर्जा समाप्त कर दिया और कई तरह की पाबंदियाँ लगा दी गईं।

अब हालाँकि कुछ हद तक फ़ोन सेवाएँ और 2-जी इंटरनेट भी धीमी स्पीड में बहाल हो गया है मगर पत्रकारों की शिकायत है कि वो ख़ुद को पूरी तरह स्वतंत्र नहीं महसूस कर पा रहे हैं। न तो उन्हें कुछ भी खुलकर लिखने दिया जा रहा है और न ही कहीं भी निकलकर फ़ील्ड रिपोर्टिंग करने दी जा रही है। हर वक्त यही डर रहता है कि कब किस बात पर सरकार कोई भी केस दर्ज कर गिरफ़्तार कर ले।

सीपीजे के आँकड़े हैरान कर देंगे आपको

पूरी दुनिया में प्रेस की आज़ादी और पत्रकारों के अधिकारों की सुरक्षा और उनके ऊपर अलग अलग जगहों में हो रही दमनात्मक कार्रवाईयों को ख़िलाफ़ एक ग़ैर सरकारी संगठन सीपीजे (कमिटी टू प्रोटेक्ट जर्नलिस्ट्स) काम करता है। उसकी रिपोर्टिंग और खबरों के आधार पर कश्मीर में जब से लॉकडाउन (पिछली 5 अगस्त को अनुच्छेद 370 के हटाये जाने के बाद) लगाया गया है वहाँ पत्रकारों के साथ दुर्व्यवहार और उनके ऊपर रिपोर्टिंग को लेकर अनुचित कार्रवाई की घटनायें बढ़ी हैं।

पिछले आठ महीनों में कश्मीर में कई पत्रकारों को पूछताछ के लिए बुलाया गया है। कामरान यूसुफ़ नामक फ़्रीलांस पत्रकार को अनुच्छेद 370 हटाने के पहले कई महीनों तक हिरासत में रखा गया था और पिछले साल अगस्त के बाद तनाव भड़कने पर फिर तलब किया गया और कई घंटो तक पूछताछ की गई। बांदीपोरा के शेख़ सलीम और तारिक़ मीर को कई महीनों तक क़ैद में रखा गया।

आसिफ़ सुल्तान नामक पत्रकार को चरमपंथियों को पनाह देने के आरोप में दो साल से भी ज़्यादा वक्त से क़ैद रखा गया है। आउटलुक पत्रिका के संवाददाता नसीर गनाइ को भी पिछले साल पूछताछ के लिये बुलाया गया था। सीपीजे इन सभी घटनाओं पर लगातार सरकार से कार्रवाई की माँग कर रही है।

कोरोना काल में प्रेस पर दमन जारी है!

भारत में प्रेस की आज़ादी और पुलिसिया राज का आतंक सिर्फ़ इसी घटना से लगाया जा सकता है कि अभी 27 अप्रैल को ही अंडमान निकोबार के एक स्थानीय पत्रकार ज़ुबैर अहमद को सिर्फ़ इस बात के लिये ग़ैर ज़मानती वारंट के तहत गिरफ़्तार कर लिया गया कि उन्होंने एक ट्वीट कर दिया था। ट्वीट में उन्होंने स्थानीय प्रशासन से एक सवाल किया था कि आख़िर एक परिवार को सिर्फ़ इसलिये क्यों जबरिया क्वारंटाइन कर दिया गया कि उसने एक ऐसे मरीज़ से फ़ोन पर बात कर ली जिसे कोरोना था। सिर्फ़ एक ट्वीट कर वाजिब सवाल पूछ लेने भर से जिस देश में पत्रकारों को जेल हो जाये वहीं प्रेस की आज़ादी का ग्राफ़ रसातल में ही रहेगा।

सरकार एक तरफ़ तो एडवाइज़री जारी करती है कि कोरोना महामारी से बचाव के लिये लागू किये गये देशव्यापी लॉकडाउन के बीच मीडियाकर्मियों को उचित एहतियात के साथ कहीं भी रिपोर्टिंग करने की छूट होगी। पुलिसकर्मी और सुरक्षाबल कहीं भी मीडियाकर्मियों को बिना वजह रोक टोक कर परेशान न करें। पर सीपीजे की शिकायतों को देखा जाये प्रतिदिन दर्जनों ऐसे केस देश भर में देखने को मिल रहे हैं जहाँ पुलिस मीडिया पास होने के बाद अभी पत्रकारों के साथ बदसलूकी कर रही है और कोविड19 की रिपोर्टिंग करने के लिये जेल तक भेजने की धमकी दे रही है।

आज तक टीवी चैनल के सीनियर एडिटर नवीन कुमार के साथ नई दिल्ली में पुलिस ने उस समय बदतमीज़ी करते हुए उनके साथ हाथापाई की जब वो अपनी कार से नोएडा स्थित अपने ऑफिस जा रहे थे। उनका कहना है कि पुलिस ने उनकी गाड़ी रोकी और लॉकडाउन के उल्लंघन के लिये गाली गलौज करने लगी और मीडिया कार्ड दिखाने के बावजूद भी उनके साथ मारपीट की गई।

हैदराबाद में द हिंदू अख़बार के ब्यूरो चीफ़ रवि रेड्डी के साथ भी कुछ इसी तरह का वाक़या हुआ जिसमें रिपोर्टिंग के दौरान पुलिस ने उनके साथ बदसलूकी की।

ऐसी घटनाओं पर सरकार की तरफ़ से कोई कार्रवाई सा कठोर कदम उठाने की बात को दूर उल्टा पत्रकारों पर ही मुक़दमे दर्ज हो जाते हैं। ऐसी स्थिति में पत्रकारों के बीच एक असुरक्षा और भय का माहौल बन जाता है जिससे वे ग्राउंड पर जाने में या तो घबराते हैं या फिर डर कर अपने पत्रकारीय मूल्यों से समझौता कर लेते हैं।और धीरे धीरे जन सरोकार की पत्रकारिता ख़त्म होने लगती है।

स्वस्थ लोकतंत्र में मीडिया की स्वतंत्रता

रिपोर्ट में इस बात का बखूबी ज़िक्र किया गया है कि देश में लगातार प्रेस की आज़ादी का उल्लंघन हुआ। यहां पत्रकारों के विरुद्ध पुलिस ने भी हिंसात्मक कार्रवाई की, राजनीतिक कार्यकर्ताओं पर हमले हुए और साथ ही आपराधिक समूहों-भ्रष्ट अधिकारियों द्वारा विद्रोह भड़काने का काम किया गया। कई कई बार तो ऐसी घटनाएं भी पता चली हैं कि पुलिसकर्मियों ने पत्रकारों के कैमरे तोड़ दिये और उनके साथ मारपीट तक किया।

प्रेस या मीडिया, सरकार और आम नागरिकों के मध्य संचार के माध्यम के रूप में कार्य करता है। मीडिया, नागरिकों को सार्वजनिक विषयों के संदर्भ में सूचित करता और सभी स्तरों पर सरकार के कार्यों की निगरानी करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करता है।

किसी भी लोकतंत्र में सूचना की स्वतंत्रता एक मौलिक अधिकार होता है, किंतु आँकड़े दर्शाते हैं कि दुनिया की लगभग आधी आबादी की स्वतंत्र रूप से रिपोर्ट की गई सूचना और समाचार तक कोई पहुँच नहीं है। कई बार ऐसे प्रश्न पूछे जाते हैं कि हम पत्रकारों की स्वतंत्रता सुनिश्चित नहीं की जाएगी तो नागरिकों पर हो रहे अत्याचारों से लड़ना, नागरिकों के मूलभूत अधिकारों की रक्षा करना और पर्यावरण जैसे विभिन्न मुद्दों को संबोधित करना किस प्रकार संभव हो सकेगा?

दिल्ली जैसे बड़े शहर में या फिर तमाम मेनस्ट्रीम मीडिया चैनल और वेबसाइट से जुड़े पत्रकारों पर हमले और कार्रवाइयाँ ही ज़्यादातर चर्चा में रहती हैं। छोटे शहरों और ग्रामीण इलाक़ों में तमाम वैकल्पिक मीडिया और छोटे छोटे यूट्यूब चैनल और पत्र पत्रिकाओं के लिेये रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों पर दबाव, हिंसा और दमन की घटनायें तो दबी ही रह जाती हैं। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के मिर्ज़ापुर ज़िले में मिड डे मील में बच्चों के खाने की खबर चलाने भर के लिये पत्रकार पर एफ़आइआर दर्ज कर उस पर कार्रवाई की गई थी। इसलिये ऐसी स्थिति में ये आवश्यक हो जाता है कि समाज की सच्चाई दिखाने और सरकारों को उनकी ग़लत नीतियों पर टोकने के लिये पत्रकारों पर दबाव और हिंसा की रुके और उनपर जाँच भी हो।


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2 Comments on “प्रेस स्वतंत्रता दिवसः नौ महीने से लॉकडाउन कश्मीर के आईने में अभिव्यक्ति की आज़ादी का भयावह सच”

  1. This is really sick! Press is the only bridge for the masses to the masses from the masses! But sufferings only potray brutalities.

  2. Mr. gandhi ने कहा था की मौलिक अधिकार और मौलिक कर्त्वय एक दुसरे के पूरक है अगर आप अपने कर्त्वय को निभाए गे (इमानदारी से) तो आप को अपने अधिकारो के लिये नाही लड़ना हो गा
    क्या पत्रकार का कर्तव्य सिर्फ इत्ना होता है की वो अपना और समाज का (सिर्फ अलगाववादी) हित देखे बाकी देश क्या उन्का नही है ? क्या सेना के जवान समाज का हिस्सा नही है ? या आप की जिम्मेदारी उन्के लिये नही है ?
    आज हमरे इंटेलीजेंस की ताकत है की आतंकवाद सिर्फ कश्मीर के कुछ हिस्सो मे सिमित है। अगर आप कोई ऐसी तकनीक जान्ते हो जिससे इंटरनेट को सिर्फ और सिर्फ पत्रकार ही प्रयोग कर सके और कैसे सरकार माने की उसका प्रयाग आतंकी नही करेगे?
    और रही बात कश्मीर के पत्रकारों के कर्त्वय की तो जरा बताये की उन्हो ने कैसी पत्रकारिता की अपने देश के प्रती प्रेम ही नाही जगा पाये? क्या यह प्रश्नचिंह आप की पत्रकारिता पे नही है?
    ऐसी कौन सी पत्रकारिता की आप वहा के लोगो मे सेना के प्रती विस्वास नही जगा सके क्या यही पत्रकारिता का मय्ना होता है ?
    बताइये गा अगर किसी अन्तर्राष्ट्रीय रेपोर्ट मे दिया गया हो गा तो
    अगर इस्का जवाब हो गा तो rohitpathak1581997@gmail.com पे बताईये गा की आप ने कितना कर्तव्य निभाया है ?

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