COVID-19: भूख का समंदर और बदलती दुनिया के संकेत


कोरोना ने हम दुनिया की चौथी मिलिट्री ताक़त वाले तमगे को ज़मीन में मिला दिया है, लॉकडाउन से हम विपदा से टालमटोल कर बच तो सकते हैं लेकिन जन स्वास्थ्य प्रणाली के फेल्योर ने देश के नागरिकों के सामने सरकारों को नंगा कर दिया है। हमने भारतीयों के टैक्स के पैसे से GDP का 2.4% हथियार बम्ब गोला बारूद खरीदने में लगाया, वहीं अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वास्थ्य मामलों के इंडिकेटर में  188 देशों में भारत 143 पर टिका हुआ है। आज हम नहीं संभले तो भारत सामाजिक आर्थिक अस्थिरता की तरफ बढे़गा जिसके सँभालने में हमसे दशक लग सकते हैं। इसलिए हमें नागरिकों के सामने “फील गुड” व देश के नाम सन्देश की जगह एक मजबूत स्वास्थ्य प्रणाली के लिए कड़े कदम उठाने होंगे

कोरोना से आज पूरी दुनिया सहित हम सब लड़ रहे हैं। इस वायरस के संक्रमण से पूरी दुनिया का ज्ञान विज्ञान जगत दंग है। विकसित देश में इटली हो या अमीर देश अमेरिका हो, सभी सरकारों ने हथियार डाल दिए हैं! कहते हैं दुनिया के बनने की शर्त उजड़ना भी है। उम्मीद हम न उजड़ें। ऐसा न हो। लेकिन दुनिया बदल रही है, जिसके बाद नए तरह के सवाल और मुख्यतया भूख का उबाल लिए एक समंदर हमारे माज़ी के हुक्मरानों को नंगा कर नयी दुनिया नए संकट का सामना करेगी।

आज जब भारत के प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी स्वतंत्रता संग्राम के वीरों के सामने नतमस्तक होते हैं, उन्हें याद करते हुए उनके सपनों की बात करते हैं तो यह देख अच्छा लगता है। आखिर मुल्क को आज़ाद कराने वाले नेताओं व स्वाधीन भारत के संविधान निर्माताओं ने भारत को कल्याणकारी राज्य बनाने का सपना शायद इसीलिए बुना होगा कि देशवासियों के लिए पढ़ाई, दवाई व लड़ाई (न्याय) का इन्तेजाम राज्य करेगा लेकिन 73 साल बाद कोरोनाकाल में हम सामूहिक रूप से हार चुके हैं। हमने दिल्ली से बेदखल होते मजदूर, जिनके पसीने से फैक्ट्री और कल कारखानों के इंजन चलते हैं, जिनसे GDP बनती और सरकारें इतराते हुए वोट लेती हैं, हमने उन मजदूरों को फिर गाँव में धकेल दिया है जहां उनके खेत जिसे वो 1992 की नवउदारवादी नीति के लागू होते भारत में छोड़ आये थे अब बंजर हो चुके हैं। उन्होंने शहर वालों से अपनाने की उम्मीद की थी लेकिन उन्हें गुड़गाँव, सोनीपत नॉएडा की हाइ राइज़ बिल्डिंग वालों ने नहीं रोका।

मुल्क शीशे की आसमान छूती चमकीली इमारतों से ही नहीं बनते। वो गाँव से बनते हैं जिन्हें 1990 की नवउदारवादी नीतियों ने समाजवादी भारत की मिक्स इकॉनमी को लील लिया था। जहां किसान गाँव मजदूर की ज़िन्दगी भारत की रगों में थी। स्वामी सहजानंद सरस्वती और आचार्य नरेंद्रदेव के सपने का किसान जब बनता है तो खेत बनता है, तब गाँव बनता है और गाँव के लोग। किसान मजदूर जो पूरे देश को निवाला खिलाते हैं उन किसानों के बनने से तब शहर बनता है। आज इन सवालों पर बात होनी ज़रूरी है!

वर्ल्ड बैंक ने भारत को “विकासशील देशो” की श्रेणी से हटा दिया है। आज घाना और पाकिस्तान की श्रेणी में भारत की गिनती “लोअर मिडिल इनकम कटेगरी” में होती है। खुदको “तीसरी दुनिया” देश होने के नाते हम सबको कुछ सार्थक सवाल के जवाब चाहिए। हमने देश की फिलहाल स्वास्थ्य नीति को रिवैम्प करते हुए कड़े फैसले न किये तो कोविड-19 से हम आज हार जाएंगे और भारत भयंकर भुखमरी, लूटमार अस्थिरता की तरफ बढेगा। अगर प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी इस पर अमल करते हैं तो इस राष्ट्रीय इमरजेंसी में हमें उनका साथ देना है। वो ऐसा करना चाहते हैं यह लम्बी बहस का हिस्सा है।

भारत में स्वास्थ्य व्यवस्था को लेकर आज हम इस गरीब देश की जनता और दुनिया के सामने खोखले हो चुके हैं।  मौजूदा 70 साल का हिसाब किताब पीछे छोड़ बात करें तो मौजूदा सरकार का स्वास्थ्य सेवा में सरकारी निवेश GDP के 1.5 फीसद से भी कम है। WHO के अनुसार, भारत में जहां स्वास्थ्य सेवा पर कुल खर्च में सरकार की हिस्सेदारी महज 30 फीसदी ही है, वहीं ब्राजील में यह 42 से 58 फीसदी, चीन में 58 फीसदी, दक्षिण अफ्रीका में 50 फीसदी है! भारत का नाम दुनिया में हेल्थ पर सबसे कम निवेश वाले मुल्कों की फेहरिस्त में हमें खड़ा करता है। सरकार का दावा है कि वो 2025 तक इस निवेश को GDP के 2.5. फीसद तक पहुंचा देगी, लेकिन दिल्ली किसने देखी है जबकि आज हम गरीब तबके में मौत और भूख का सैलाब देख रहे हैं!

हम भारतीय आज सामूहिक रूप से अपनी सरकार की नाकामी पर पर्दा डालने के लिए मीडिया प्रोपगेंडा जगत का सहारा लेकर समस्य को टाल रहे हैं जबकि दुनिया में देशों के प्रमुख व सरकारें रोज़ ब्रीफिंग में अपनी कामयाबियों की जगह अपनी नाकामियां सामने रखती हैं जिससे हम खुद को बदल सकें। फिलहाल, हम दुनिया से हथियार खरीदने में खूब आगे जा रहे हैं। अमेरिका से हथियार खरीदने में हमने 2010 में चीन को पीछे छोड़ने की होड़ की। फिर 2013 में सरकारें रूस को पीछे छोड़ अमेरिका की लिस्ट में ऊपर आकर $1.9 बिलियन की मिलिट्री किट खरीदते हैं। और भारत का तबका डिफेन्स बजट से विदेश हथियारों की खरीद में $5.9 billion खर्च करता है।  हमें यह हथियार बम गोले बारूद नहीं बचा पा रहे। हमें हर नागरिक के लिए फ्री अस्पताल, वेंटिलेटर, फ्री दवाई, हेल्थ स्कूल, एम्बुलेंस चाहिए थे। PPE  किट चाहिए थे। भारत में कोविड से लड़ने के लिए पूरे देश में 40,000 वेंटिलेटर बताये जा रहे हैं और 20 से 30 हज़ार वेंटिलेटर खराब बताये जा रहे हैं। PPI किट्स नहीं होने से डॉक्टर्स भी कोरोना के निशाने पर  पर आ रहे हैं। जन स्वास्थ्य प्रणाली, चिकित्सा विज्ञानं और वैज्ञानिक जागरूकता को तरजीह देने की जगह पूरे देश में कोरोना को सांप्रदायिक रंग देकर समस्या से ध्यान हटाने के काम में सत्तापक्ष लगा हुआ है। इस बहस के बीच 130 करोड़ लोगों में हम दस लाख की जनसंख्या पर 708 लोगो की जाँच कर पा रहे हैं। 37776 संक्रमित और 1223 लोग 2 मई तक मारे जा चुके हैं, यह तय है कि केंद्र सरकार लॉकडाउन, ताली पीटने, दीया जलाने व तबलीगी खेल से इस महामारी को टाल नहीं सकती!

गाँव से पलायन के बाद मजदूर गाँव लौटे हैं। ज़ाहिर सी बात, उनके पेट में भूख है, खेत बंजर है और जो खेती है वो यह फसल बरबादी की कगार पर है। ऐसे में अगले दो हफ्ते में संभावित मौतें भूख से होंगी जिसके लिए अभी तक सरकार ने कोई ठोस कदम नहीं उठाये हैं। सरकार को चाहिए कि प्रत्येक परिवार को 5000 प्रति माह दे। राशन प्रणाली को यूनीवरसलाइज़ करे, गाँव से जन्मी शेयर की परम्परा, सामुदायिक जीवन से हम उम्मीद कर सकते हैं कि भारत के गाँव एक दूसरे का सहारा बन जाएंगे लेकिन यह समय हाकिमों के जागने का है क्योंकि इस भयंकर महामारी और मौतों के बाद देश बदल चुका होगा। शक्ति सन्तुलन बदलेगा। विश्व व्यवस्था बदलेगी। सभी देशों की अर्थव्यवस्था बदलेगी। सियासत बदलेगी। नीतियां व विदेश नीतियां बदलेंगी।

संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुएरेस (António Guterres, Secretary-General of the United Nations) ने कोरोना वायरस (कोविड-19) संक्रमण को द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दुनिया के लिए सबसे बड़ी चुनौती करार देते हुए इसके कारण होने वाली आर्थिक मंदी को लेकर आगाह किया है। उन्होंने कहा कि संयुक्त राष्ट्र के गठन के बाद कोविड-19 अब तक की सबसे बड़ी चुनौती है जिसका हम सभी सामना कर रहे हैं।

देश के प्रधानमन्त्री से हम सभी सुनना चाहते हैं कि वे स्पष्ट तरीके से कब बताएँगे कि देश में कितने टेस्टिंग किट, कितने वेंटिलेटर्स, कितने पीपीई, कितने मास्क, कितने दस्ताने, कितनी दवाइयां उपलब्ध हैं; आगे और कितने की जरूरत पड़ेगी, इनका इंतज़ाम कैसे होगा? प्रधानमन्त्री को बताना चाहिए कि अगर यह पाकिस्तान या चीन के खिलाफ युद्ध होता तो हमारी तैयारी कोरोना से लड़ने के मुकाबले ऐसी होती? आखिर क्यों स्वास्थ्य की जगह देशवासियों के टैक्स के पैसे से गोला बारूद जंगी जहाज़ खरीदने में लगाये गए? हर सुख दुःख को किसी इवेंट में बदलने की कला को दिखाने की जगह उन्हें देश को बताना चाहिए कि देश में अभी तक केवल 976363 सैंपल टेस्ट हुए, रोजाना तकरीबन 11616 टेस्ट हुए, यानी बताना 138 करोड़ की आबादी वाले देश में 7223 लोगों के बीच एक टेस्ट ही क्यों हो रहा है।

आज PPE किट न होने से डॉक्टर्स के अपनी जान गंवाने की घटनाएं सामने आ रही हैंं। WHO ने चेतावनी  देते हुए कहा है कि यदि सरकार अब भी नहीं चेती और उसने स्वास्थ्य व्यवस्था को बहाल नहीं किया, तो यह महामारी भारत में 30000 लोगों की बलि लेगी लेकिन यह तय है कि देश में लॉकडाउन के समय भूख से लोगों के मरने की खबर ज्यादा आएँगी! विश्व स्तर पर आज संक्रमण के शिकार लोगों की संख्या लगभग 3,456,223 तक पहुंच गई है. 243,024 से अधिक लोग मर चुके हैं. अकेले 138 करोड़ वाले भारत देश 1223 के ऊपर मौतें हो चुकी हैं। यह संक्रमण हमारी तमाम युद्ध की ताक़त, उग्र राष्ट्रवाद के आँख दरेरते तेवर, ताक़त, धार्मिक जातीय उन्माद को मुंह चिढ़ा रहा है, उसने आज पूरे देश को अपने घुटनों पर ला दिया है तो उस वक्त हमारे हाकिमों को सँभलने की ज़रूरत है।

कोरोना का संकट आज का है लेकिन हमने उत्तर प्रदेश के गोरखपुर BRD में हजारों बच्चों के मरने के बाद कुछ नहीं सीखा। अंत में देखा गया कि राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय मीडिया के राडार से बचने और सरकार ने समस्या टालने के लिए आंकड़े बदलने शुरू किये।सिर्फ 2017 में एक हज़ार बच्चे मारे गए जिसकी जानकारी छुपाई लेकिन बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था पर संसद में सरकार ने 2017 में प्रश्न का उत्तर देते हुए राज्य स्वास्थ्य मंत्री MCI के हवाले से 10,22,859 MBBS डॉक्टर होने की बात करते हैं जो 128 करोड़ के भारत की जनसंख्या वाले देश में  प्रति 1000 की आबादी पर 1 डॉक्टर भी नहीं है। इस मामले में पाकिस्तान में 1000 आबादी पर 0.806:1000 और चाइना में  1.49:1,000 आबादी पर डॉक्टर हैं!

प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के नागरिकों को दिए तीन राष्ट्रीय उद्घोष को सुनने से लगता है वो “आल इज़ वेल” थेरेपी से काम चलाना चाहते हैं लेकिन आने वाले महीने में पूरे देश से जो मजदूर अपने घरों को पहुचे हैं, वो अप्रवासी मजदूर जो राज्यों में फंसे हैं, उन्हें राशन की कमी में से मौतों में इजाफा होगा क्योंकि अप्रवासी मजदूरों को अभी तक उत्तर प्रदेश का ही उदाहरण लें तो ज़मीन पर कोई इन्तेजाम खाद्य प्रदार्थ देने का नहीं किया गया है। हमें कौमी पैगाम से एक क़दम आगे आकर PM को 5000/प्रति मजदूर/किसान बैंक खातों में अगले तीन महीने तक देने की ज़रूरत है और भ्रष्टाचार में डूबे PDS सिस्टम को अगर काम में ले लें तो भूख से मौतों में कमी हो सकती है। जो मजदूर शहर की फैक्ट्री, काम धंधे छोड़ गाँव पहुचे हैं ज़ाहिर सी बात है वो जल्द शहर नहीं लौटेंगे तो उस दिशा में बड़े बड़े उद्योग धंधे बंद हो जाएंगे और यह आर्थिक संकट अंतरराष्ट्रीय मंदी से भयंकर होगा।

ऐसे में मुल्क अस्थिरता की तरफ बढेगा। आज देश की सभी सरकारों को चाहिए कि वे देश के सभी इंजन व इसके थक चुके कलपुर्जे, निजी हस्पतालों का फ़ौरन राष्ट्रीयकरण कर इस राष्ट्रीय आपदा के समय हुकूमत चुनाव प्रचार स्टाइल से बचकर टीम इण्डिया बनकर काम करें और इकबाल हो तो हस्पताल, दवाई, आम लोगों तक न दे पाने के लिए राष्ट्र से माफ़ी मांगें और इस आपदा के बीच कोविड के खिलाफ जंग को कोई धार्मिक सांप्रदायिक रंग देने वाले मीडिया समूहों के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया जाए!

अमीक जामेई समाजवादी पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं


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