भारत सरकार का खजाना पहले से ही खाली है। उसके सामने यह सवाल खड़ा हो गया है कि महामारी के इस युग में वह धन कहां से जुटाये! अभी केंद्रीय कर्मचारियों का महंगाई भत्ता रोक दिया गया है। माना जा रहा है कि इससे एक साल के अंतराल में सरकार क़े पास करीब सवा लाख करोड़ रुपये बचेंगे। यह ओस चाटकर प्यास बुझाने वाली बात है।
भारत में पांच करोड़ परिवार गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) श्रेणी के हैं और शाश्वत भुखमरी का शिकार हैं। उन्हें खिलाने के लिए 6000 रुपया मासिक की दर से भारत को कम से कम 30000 करोड़ रुपये मासिक यानी छह माह के लिए कम से कम 180,000 करोड़ रुपये चाहिए। इसके अलावा 19 करोड़ लोग ऐसे हैं जो समाज के हाशिये पर हैं और रोजाना एक वक्त का खाना बमुश्किल खाते हैं। अनुमान के अनुसार यदि दिन में एक टाइम 35 रुपये प्रति व्यक्ति खाने की बात की जाय तो दो वक्त के उनके खाने के लिए कम से कम 39900 करोड़ रूपये मासिक की जरूरत छह माह तक पड़ेगी। इसके लिए सरकार को 2,39,400 करोड़ रूपये की जरूरत पड़ेगी। मोटे तौर पर सरकार को सिर्फ गरीबों को अनुदान देने के लिए 4,19,400 करोड़ रुपये की जरूरत पड़ेगी।
मझोले, लघु एवम सूक्ष्म उद्योगों (एमएसएमई) की कमर टूट चुकी है। उन्हें भी छोड़ा नहीं जा सकता। बैंकों का कुल ऋण एमएसएमई पर करीब साढ़े सोलह लाख करोड़ रुपये का है। वहां भी 10 फीसदी के हिसाब के ही सही करीब डेढ़ लाख करोड़ रुपये का बफ़र चाहिए। अर्थव्यवस्था में मांग की बेहद कमी है। मांग बढ़ाने के कारगर उपाय करने होंगे और यह मांग सरकारी उत्प्रेरक से ही बढ़ सकती है।
विश्व बैंक के आँकड़ों के मुताबिक 2018 में भारत का फॉरेन रेमिटेंस (विदेश से आया पैसा) करीब 78.6 बिलियन डॉलर रहा है जो आज के हिसाब से 597,360 करोड़ के करीब आता है। यह रेमिटेंस शिक्षा, स्वास्थ्य और भोजन पर खर्च होता है। विश्व बैंक का अनुमान है कि यह रेमिटेंस 23 फीसदी तक गिर सकता है। इसका मतलब है करीब डेढ़ लाख करोड़ रुपये की गिरावट। इसका सीधा प्रभाव शिक्षा, स्वास्थ्य और भोजन पर पड़ने वाला है। इन बुनियादी जरूरतों पर लोगों का खर्चा कम हो जाएगा। विश्व मुद्रा कोष (आइएमएफ) के अनुसार रेमिटेंस आर्थिक उन्नति में सहायक होता है। रेमिटेंस के कारण कृषि में प्रच्छन्न बेरोजगारी (डिसगाइज्ड अनएम्प्लोयमेंट) कम हो जाती है। इतना ही नहीं, रेमिटेंस का सीधा प्रभाव उपभोग (कंजम्प्शन) पर पड़ता है जिसके फलस्वरूप मांग में कमी आती है और नतीजतन अर्थव्यवस्था व रोजगार सीधे प्रभावित होते हैं।
ऐसी परिस्थिति में सरकार को कर्मचारियों के महंगाई भत्ते पर अंकुश नहीं लगाना था। फरवरी में सरकार को वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के मद में कुल 105,366 करोड़ रूपये की आय हुई थी। यदि इसे ही मानक मानकर चलें, साथ ही यह मानकर चलें कि लॉकडाउन 3 मई को खुल जाएगा, तब भी सरकार को प्रभावी रूप से दो महीने की जीएसटी आय का कुल 210,000 करोड़ रुपये का नुकसान हो रहा है क्योंकि भारतीय और वैश्विक बाज़ार 15 मार्च से ही डरे हुए थे। लिहाजा 3 मई को बाज़ार खुलने के बाद कम से कम 10 दिनों का समय तो लगेगा ही। यह एक सीमित अनुमान है। कुल मिलाकर देखा जाय तो सरकार को तत्काल करीब नौ लाख करोड़ रुपये की ज़रूरत है जो वास्तविक जीडीपी का साढ़े छह फीसदी है। इसमें कृषि को शामिल नहीं किया गया है।
अपने चुनावी क्षेत्र के विकास के लिए सांसदों और विधायकों को मिलने वाला फंड एमपीलैड और एमएलएलैड धन के विकेंद्रीकृत स्रोत हैं। 1990 के बाद से इनका स्थानीय विकास में बड़ा योगदान रहा है। सरकार को यह फंड तुरंत जारी करना चाहिए। इस फंड की खूबसूरती यह है कि कोरोना संकटकाल में देश के तमाम विधायकों और सांसदों ने यथासंभव इस निधि से खर्च किया है।
भारतीय रिजर्व बैंक के अनुसार 31 मार्च 2020 तक पब्लिक के पास कुल 2349715 करोड़ रूपये की करेंसी थी। यदि नौ लाख करोड़ रुपये की मुद्रा और छापी जाती है तो अर्थव्यवस्था का क्या होगा इसका किसी को अंदाज़ा नहीं है! यह तो तय है कि रूपया यह दबाव बिलकुल नहीं झेल पाएगा। आइएमएफ या वर्ल्डबैंक से जो ऋण मिलेगा वह 120 बिलियन डॉलर भी नहीं होगा। पिछले छह वर्षों की विदेश नीति का यदि विश्लेषण किया जाय तो यही निष्कर्ष निकलता है कि हमें विश्व विरादरी द्वारा फूटी कौड़ी भी नहीं मिलेगी। अमेरिकी सरकार की एजेंसी USAID ने कहा है कि वह भारत को 2.9 मिलियन डॉलर देगी, वहीं वर्ल्ड बैंक ने मात्र 1 बिलियन डॉलर देने की बात्त कही है!
इसलिए यह आशंका व्यक्त की जा रही है कि इस दौर के बाद तमाम लोग बेरोजगार होंगे, बिना वेतन के छुट्टी पर चले जाएंगे, बचत खत्म होगी, बेरोजगार अस्थायी श्रमिक (गिग) बढ़ेंगे। लोगों को इस संकट से उबारने के लिए सरकार को प्रोत्साहन पैकेज में विविधता लाने में संकोच नहीं करना चाहिए। नकदी के रूप में प्रोत्साहन समय की आवश्यकता है। सरकार भारतीय रिजर्व बैंक से पहले ही सरप्ल्स मुद्रा ले चुकी है। अब सरकार के पास पैसा छापने के सिवा कोई दूसरा रास्ता नहीं है। सरकार के पास पैसा छापने के दो तरीके हैं: एक है हेलिकॉप्टर मनी (नया मुद्रित पैसा जो जनता के बीच वितरित किया जाता है) और दूसरा क्वांटिटेटिव ईजिंग (अपरंपरागत मौद्रिक नीति का एक रूप जिसमें केंद्रीय बैंक धन की आपूर्ति बढ़ाने और ऋण देने तथा निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए खुले बाजार से लंबी अवधि की सिक्योरिटी खरीदता है)। इस स्थिति में क्वांटिटेटिव ईजिंग उचित नहीं है क्योंकि इससे सरकार के लिए देनदारियां बढ़ सकती हैं।
कुछ जानकारों का मानना है कि सरकार को सभी नैतिक खतरों को ताक पर रखते हुए हेलिकॉप्टर मनी का उपयोग करना चाहिए, ‘इसके लिए भले ही कोई कीमत क्यों न चुकानी पड़े’। यह सही है कि डॉलर अब तक की सबसे ऊँची कीमत पर ट्रेड कर रहा है। पैसा छापने से हो सकता है कि डॉलर 100 रुपये को भी पार कर जाय। इससे आयात तो महंगा हो जाएगा, लेकिन समय की मांग यही है। पूरी दुनिया में सरकारें पैसा छापने के विकल्प पर काम कर रही हैं। नवउदारवादी तंत्र में इसे मजबूरी कहें या विकल्प, लेकिन जो है यही रास्ता है। इस मामले में हम जापान से सीख सकते हैं जहां 1990 से ही सरकार के द्वारा वित्तीय प्रोत्साहन दिया जा रहा है, जिसकी मदद से वहां की सरकार ने जीडीपी वृद्धि में ठहराव और निजी मांग में कमजोरी आने के बावजूद रोजगार सृजन जारी रखा है।