शाम के चार बज चुके हैं। रोज़ की तरह मनोज अपने ठेले पर सब्जियां सजा रहे हैं। वे सब्जियां बेचने कई मोहल्लों में जाते हैं। इसके चलते उनके जैसे रेहड़ी वालों के लिए कोविड होने का खतरा और बढ़ जाता है। इसीलिए वे मुंह पर मास्क लगाने के साथ अपने पास सैनिटाइज़र जरूर रखते हैं, फिर भी वे कोशिश करते हैं कि लोगों से दूरी बनाकर ही सब्जी बेची जाये। वे चाहें तो इस खतरे से स्थायी रूप से बच सकते हैं क्योंकि कोविड की वैक्सीन को आये कुछ वक्त हो चला है, लेकिन मनोज को उस पर भरोसा नहीं है। वे कहते हैं, ‘’अगर महामारी के डर से घर बैठ जाऊंगा तो परिवार वालों को खिलाऊंगा क्या? अभी बगल के मोहल्ले के दो भाइयों ने कोरोना की वैक्सीन लगवायी थी, चार दिन बाद उनकी मौत हो गयी। इसलिए वैक्सीन पर भरोसा नहीं है। नहीं लगवाऊंगा।‘’
मनोज किसी गांव-कस्बे के निवासी नहीं हैं। ये कहानी लुटियंस की दिल्ली से महज 12 किलोमीटर दूर बसी नेहरू कैंप बस्ती की है जहां रहने वाले लोगों के बीच कोविड की वैक्सीन को लेकर डर का माहौल है। अभी तक खबरें आती थीं कि गांवों में लोग अलग-अलग कारणों से वैक्सीन नहीं लगवा रहे, लेकिन जागरूकता का स्तर शहरों में भी कोई खास बेहतर नहीं है। दिल्ली के नेहरू कैंप निवासियों का कहना है कि वैक्सीन लगवाने से उनके जानने में कई लोगों की जान जा चुकी है।
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ये पूछने पर कि वैक्सीन के बाद हुई मौत की घटना कहां की है, मनोज के पास कोई ठोस जवाब नहीं मिला लेकिन उनका कहना है कि उन्होंने किसी से ये खबर सुनी जरूर है। ज्यादातर लोग हालांकि सुनी-सुनायी बातों पर अपनी धारणा नहीं बना रहे, कुछ को घटनाओं का विवरण तक पता है। इसी मोहल्ले में रहनी वाली एक वृद्धा दुलारी गुस्से में कहती हैं कि उन्हें वैक्सीन नहीं लगवाना है। वे एक हफ्ते पहले राम खेलारी की बहू के साथ हुए हादसे का जिक्र करती हैं जो परिवार नियोजन केंद्र में वैक्सीन लगवा के आयी थी और उसे कोरोना हो गया जबकि इससे पहले वो ठीक थी। वे कहती हैं:
“ऐसे बहुत से लोग हैं जिन्होंने वैक्सीन लगवायी और उन्हें कोरोना हो गया है। हम इतने भीड़-भाड़ वाले मोहल्ले में रहते हैं, दिन भर लोगों का काम के चलते आना-जाना लगा रहता है, संकरी गलियां हैं फिर भी हमें कोरोना नहीं हुआ क्योंकि हम दिन भर मेहनत करते हैं, कड़ी धूप में भी काम करते हैं। हमें कोरोना नहीं होगा।“
दुलारी का मानना है कि कोरोना का खतरा तो उन लोगों को है जो दिनभर एसी में रहते हैं और जिन्हें जरा सी भी गर्मीं बरदाश्त नहीं होती। वे कहती हैं, ‘’आज सबसे ज्यादा वही लोग मर रहे हैं।‘’ वे कहती हैं कि वैक्सीन न लगवा के वो ज्यादा सुरक्षित महसूस कर रही हैं।
यहां के निवासी हरीश कहते हैं कि इस तरह की खबरों को अगर फैलने से रोका जा सके तो लोगों के बीच इस तरह की गलतफहमी नहीं रहेगी। इस डर के पीछे अफवाहों को कारण बताते हुए वे कहते हैं:
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जिस तरह से मोहल्ले में डर का माहौल है, शायद ही इन लोगों के बीच इस तरह की कहीं कोई घटना घटी हो। लोगों में डर का कारण है सोशल मीडिया पर सर्कुलेट हो रहे गलत मैसेज, जिसके चलते लोग अफवाह वाली खबरें पाते हैं फिर एक दूसरे को शेयर करते रहते हैं, जिसको पढ़कर लोग धारणाएं बना लेते हैं।
-हरीश, दिल्ली
हरीश की सलाह एक झटके में सही लग सकती है, लेकिन हकीकत यह है कि सरकार ने अफवाहों पर लगाम लगाने के बजाय वैक्सीन से होने वाली मौतों को सार्वजनिक करने पर लगाम लगा दी है। इसका नतीजा यह हुआ है कि आधिकारिक आंकड़े नहीं मिलने पर लोग सुनी-सुनायी खबरों के आधार पर धारणा बना ले रहे हैं, जिनमें से कुछ सही भी हो सकती हैं क्योंकि वैक्सीन लगाने के बाद मौतें हुई हैं और लगातार हो रही हैं।
बीते 9 अप्रैल को केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से दिये गये बयान में बताया गया था कि 16 जनवरी से 29 मार्च के बीच चले कोविड टीकाकरण अभियान के पहले चरण के 73 दिनों में वैक्सीन लगवाने करने वालों में कुल 180 लोगों की मौत हुईं थी जबकि इन 71 दिनों में 6 करोड़ (6,11,13,354) से भी अधिक लोगों को वैक्सीन लगायी जा चुकी थी। मंत्रालय के अधिकारियों का ये भी कहना था कि इस अवधि में हुई मौतों में से कितनी वैक्सीन लगवाने से जुड़ी हैं इस पर अभी कोई स्पष्टता नहीं है। आश्चर्यजनक रूप से 9 अप्रैल के बाद बीते करीब दो महीनों में इस सम्बंध में सरकार की ओर से कोई आंकड़ा जारी नहीं किया गया जो चौंकाने वाला है। वैक्सीन लेने के बाद संक्रमण के आँकड़े 21 अप्रैल को जारी किये गये थे, उसके बाद सन्नाटा है।
अभी तक 29 मार्च से लेकर 1 जून के बीच वैक्सीन लेने के बाद हुए संक्रमणों (ब्रेकथ्रू इनफेक्शन) और मौतों का कोई सरकारी रिकॉर्ड सामने नहीं आया है, हालांकि ऐसी खबरें रोज़ आ रही हैं। मशहूर पद्मश्री चिकित्सक और आइएमए के पूर्व अध्यक्ष डॉ. के. के. अग्रवाल की मौत इस कड़ी में पिछले दिनों सबसे चौंकाने वाली रही जिन्होंने वैक्सीन की दोनों खुराक महीने भर पहले ही ले ली थी। इस मौत ने पूरे देश में दी जा रही कोवैक्सिन और कोविशील्ड पर संदेह खड़े कर दिये थे। इससे पहले कहीं ज्यादा चौंकाने वाली खबर रही दिल्ली में 28 अप्रैल को हुई डॉक्टर राजेंद्र कपिला की कोविड से मौत, जो अमेरिका स्थित न्यू जर्सी की रुटगर्स युनिवर्सिटी में संक्रामक रोग विशेषज्ञ थे। यह मौत इसलिए अंतरराष्ट्रीय सुर्खियों में आयी क्योंकि डॉ. कपिला अमेरिका से फाइजर की वैक्सीन की दोनों खुराक लेने के बाद भारत आये थे।
कपिला की मौत के बाद फाइजर की वैक्सीन की प्रभावकारिता पर सवाल उठ खड़े हुए थे, जिसे दुनिया में अब तक आज़मायी गयी सबसे प्रभावी वैक्सीनों में माना जा रहा है। अमेरिका की युनिवर्सिटी ऑफ वॉशिंगटन स्थित इंस्टिट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैलुएशन (आइएचएमई) दुनिया में स्वास्थ्य सम्बंधी आंकड़े जारी करने वाली सबसे विश्वसनीय और स्वतंत्र संस्थाओं में एक हैं। इस संस्था ने 14 मई तक पूरी दुनिया में अलग-अलग कोविड वैक्सीनों की प्रभाव क्षमता का जो आंकडा जारी किया है उसमें फाइजर की प्रभावकारिता 97.5 फीसद मानी गयी थी। इसीलिए डॉ. कपिला की मौत के बाद यह मुद्दा गरमा गया था।
Vaccine-Efficacy-Table_05142021_1इसकी तुलना में अगर हम भारत की दोनों वैक्सीनों की प्रभाव क्षमता को जांचें, तो आइएचएमई के 14 मई तक जारी डेटा में कोवैक्स और कोविशील्ड दोनों के रिकॉर्ड नदारद हैं, उनका नाम तक शामिल नहीं है। इसी संस्था द्वारा कोरोना वायरस के अलग-अलग वेरिएंट के हिसाब से दुनिया भर में दी जा रही वैक्सीनों की अलग-अलग प्रभाव क्षमता का जो आंकड़ा जारी किया गया है, उसमें कोवैक्सिन का प्रभाव मात्र 78 फीसद है जबकि कोविशील्ड का नाम सूची में है ही नहीं। दूसरी ओर एक चिंता की बात यह भी है कि 25 मई के अपडेट के मुताबिक कोवैक्सिन को अब तक विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा मंजूरी नहीं मिली है और इसकी निर्माता कंपनी भारत बायोटेक से इस सम्बंध में डब्लूएचओ ने और जानकारी मांगी है।
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जाहिर है, ये तमाम तथ्य वैक्सीनों के प्रति विश्वास को कम करते हैं। उस पर से आम लोग वैक्सीन लेने के बाद हुई मौतों की सुनी सुनायी या सूचित खबरों से भी डर जाते हैं और वैक्सीन नहीं लगवाने के फैसले ले लेते हैं। गांवों में यह संकट और गहरा है क्योंकि वहां वैक्सीनों को लेकर ऐतिहासिक रूप से अंधविश्वास जड़ जमाये हुए हैं। पोलियो टीकाकरण अभियान का अनुभव बताता है कि ग्रामीण क्षेत्रों में लोग जानकारी के अभाव में मानते थे कि वैक्सीन लगने से बच्चों में नपुंसकता आ जाती है। कई बार वैक्सीन लगाने से आये हुए के चलते भी लोग इस पर भरोसा नहीं कर पाते। इस बार भी कोविड के टीके को नपुंसकता से जोड़ कर बहुत से संदेश प्रसारित हो रहे हैं। डॉ. के. के. अग्रवाल ने अपने एक यूट्यूब वीडियो में ऐसी तमाम अफवाहों का तार्किक जवाब दिया था, लेकिन खुद उनकी मौत ने दोबारा वैक्सीनों पर सवालिया निशान लगा गया है।
इसमें कोई शक नहीं कि वैक्सीन लेने के बाद हो रही मौतों की दर संक्रमण की दर के मुकाबले बहुत कम है, लेकिन इतनी भी कम नहीं कि लोगों तक खबर न पहुंचे। कुछ स्वतंत्र प्रयासों के माध्यम से जो जानकारियां निकल कर आ रही हैं वे डराने वाली हैं। वैक्सीन लेने के बाद हो रही मौतों को ट्विटर और टेलिग्राम पर पल-पल रिकॉर्ड कर रहे एक स्वतंत्र चैनल की मानें तो 1 जून को बीते 24 घंटे के भीतर कुल 18 मौतें हुई हैं। यह चैनल मीडिया और सोशल मीडिश में आयी सूचनाओं को रियलटाइम में दर्ज करता है। इसके मुताबिक अब तक भारत में वैक्सीन लेने के बाद हुई कुल मौतों की संख्या 1643 पर पहुंच चुकी है। दिलचस्प है कि केंद्र सरकार ने 180 के आंकड़े पर ही अपना कांटा रोक दिया था और इन मौतों को दर्ज करना छोड़ दिया था। इस सम्बंध में द डायलॉग नाम की एक वेबसाइट पर 16 मई को छपी खबर पढ़ी जानी चाहिए।
सबसे ज्यादा दुख की बात ये है कि इन 1643 मौतों में अप्रैल की शुरुआत से लेकर मई मध्य तक वैक्सीन लगवाने के बावजूद मरने वाले डॉक्टरों की संख्या 300 के आसपास थी। आइएमए ने इस सम्बंध में कोरोना की पहली और दूसरी लहर की तुलना करते हुए चिकित्सकों की मौत का एक विस्तृत आंकड़ा दिया था।
समझा जा सकता है कि जब लोगों की जान बचाने में लगे कोरोना योद्धाओं का ये हाल है तो सामान्य लोगों में वैक्सीन का डर स्वाभाविक ही होगा, भले उसमें अंधविश्वास और अफ़वाहें तड़का लगाने का काम कर रही हों। ऐसी एक खतरनाक अफ़वाह का जिक्र करना यहां ज़रूरी है जिसमें एक नोबल पुरस्कार विजेता वायरोलॉजिस्ट के हवाले से बताया गया था कि वैक्सीन लगवाने वाले सभी लोगों की दो साल के भीतर मौत हो जाएगी। वॉट्सएप पर चले इस संदेश का गांव-गांव में असर हुआ है, जबकि उक्त वैज्ञानिक के किसी दूसरी भाषा में दिये जिस साक्षात्कार के आधार पर यह संदेश प्रसारित किया गया उस मूल साक्षात्कार में यह बात नदारद है। बाद में सरकारी एजेंसी पीआइबी सहित फैक्ट चेक करने वालों ने इसे दुरुस्त किया, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी थी।
वैक्सीन लगवाने को तैयार लोगों के बीच एक और समस्या उसकी उपलब्धता की है। दिल्ली के नेहरू कैंप में ही कुछ और लोग भी हैं जो मन में बैठे डर के बावजूद वैक्सीन लगवाना तो चाहते हैं, लेकिन नहीं लगवा पा रहे। अनुराग दिल्ली में अकेले रहते हैं। उनका कहना है कि वैक्सीन लगने के बाद कुछ दिन बुखार भी रहता है, इस का उन्हें डर है क्योंकि अकेले रहकर चीजें संभालना काफी मुश्किल होगा। अनुराग बताते हैं, ‘’ऑनलाइन माध्यम से वैक्सीन का स्लॉट बुक करने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है जबकि बस्ती में कई लोगों के पास फोन तक नहीं है। यदि किसी के पास फ़ोन है भी तो स्मार्टफोन नहीं है जिससे वो वैक्सीन का अपना स्लॉट बुक नहीं कर पा रहे हैं।‘’
अनुराग कहते हैं कि अगर सरकार लोगों का घर-घर जाकर वैक्सिनेशन करवा देती तो चीजें आसान हो जातीं, वरना इस तरह से वैक्सीन का ऑनलाइन स्लॉट बुक करने में बहुत से लोग छूट जाएंगे। इसके बावजूद आइएचएमई का अनुमान है कि भारत में जो वयस्क आबादी कोविड की वैक्सीन लगवाएगी या जिसके लगवा लेने की संभावना है, उसकी दर 75 फीसदी से ज्यादा रहने वाली है। यह प्रोजेक्शन 23 मार्च को जारी किया गया था, जाहिर है उसके बाद से टीकाकरण के अभियान में तेजी ही आयी है। नीचे पूरी दुनिया में वैक्सीन लगवाने की संभावना वाली आबादी का प्रोजेक्शन दिया गया है जिसे देखकर समझ आता है कि भारत की स्थिति इस मामले में न सिर्फ अफ्रीका बल्कि यूरोप से भी बेहतर रहने वाली है।
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इसके बावजूद जैसा कि हरीश कहते हैं, झूठी खबरों और अफवाहों पर लगाम लगानी ही होगी ताकि लोगों में वैक्सीन को लेकर अनावश्यक डर न फैले। साथ ही सरकार को तत्काल वैक्सीन के बाद हुए संक्रमण और मौतों के आंकड़े जारी करने होंगे, ताकि इस मामले में पारदर्शिता बनी रहे क्योंकि आंकड़े छुपाने से अफ़वाहों को ही बल मिलेगा, उसका कोई लाभ नहीं होगा।
उपेंद्र प्रताप भारतीय जनसंचार संस्थान (IIMC), नयी दिल्ली में पत्रकारिता के विद्यार्थी हैं