उत्तर प्रदेश में इस आशय की चर्चा चल रही है कि आगामी पंचायत चुनावों में दो बच्चे वाले व्यक्ति ही उम्मीदवारी प्रस्तुत कर सकते हैं। ऐसी किसी भी नीति का परिणाम भारी बहिष्करण ही होगा, जिससे प्रतिनिधित्व की अवधारणा कमज़ोर होगी।
यह नीति तब और अधिक अप्रासंगिक हो जाती है जब औसत प्रजनन दर का राष्ट्रीय लक्ष्य हासिल करने के हम क़रीब खड़े हैं।
इस समय देश की औसत प्रजनन दर 2.3 है जबकि भारत सरकार का लक्ष्य इसे 2.1 पर पहुँचाना है यानी अभी, औसतन एक जोड़ा मनुष्य मिलकर 2.3 बच्चे पैदा कर रहे हैं जबकि भारत सरकार चाहती है कि यह 2.1 हो जाये।
दक्षिण भारत के लगभग सभी राज्यों समेत देश के बहुत से राज्यों ने यह लक्ष्य प्राप्त कर लिया है और कई राज्य तो प्रति जोड़ा औसतन 2 से भी कम बच्चे पैदा कर रहे हैं।
सन 1971 में यही प्रजनन दर 5 से अधिक थी जो कि बिना किसी स्थायी जनसंख्या नियंत्रण क़ानून के अब 2.3 है।
सरकारी अनुमान है कि अगले वर्ष यानी 2021 तक, केवल बिहार ही ऐसा राज्य बचेगा जहां औसत प्रजनन दर 2.5 होगी। बाकी राज्य, सरकार द्वारा निर्धारित लक्ष्य प्राप्त कर चुके होंगे। इसमें उत्तर प्रदेश भी होगा।
सन् 2001 से 2004 के बीच पाँच राज्यों में सरकारी सुविधाओं को लेकर दो बच्चे की नीति लागू हुई थी। इस पर हुए एक अध्ययन की रिपोर्ट पाया गया कि इस दौरान कन्या भ्रूण हत्या, प्रसव पूर्व लिंग परीक्षण, जन्म के बाद फेंक दी गईं कन्याएँ, द्विविवाह आदि समस्याएँ काफी बढ़ गयी थीं।
इस तरह की नीतियों पर एक और अध्ययन बताता है कि इससे सबसे ज्यादा दुष्प्रभावित दलित, अल्पसंख्यक व हाशिये के अन्य समुदाय होते हैं।
इसके अलावा, तीसरे बच्चे के लिए कलंक जैसा कानून बनाना उसके नैसर्गिक अधिकारों के भी ख़िलाफ़ है। यह संविधान के अनुच्छेद 21, 21 A , 45 आदि के प्रावधानों के भी अनुकूल नहीं है।
लोग दिनों दिन बेहतर होना चाहते हैं। पिछली पीढ़ियों में अधिक बच्चे जन्मने के अनेक कारण हैं, जो कि सामाजिक-सांस्कृतिक दायरों से आगे बढ़कर ग़रीबी को प्रमुखता से रेखांकित करते हैं। इसके अलावा, स्वास्थ्य, मनोरंजन व अन्य बुनियादी सुविधाओं का न होना उच्च जन्म दर के सबसे बड़े कारण रहे हैं।
पिछली पीढ़ियों में तमाम बीमारियों व पोषण के अभाव में बहुत कम बच्चे जी पाते थे, इसीलिए दंपतियों द्वारा अनिश्चितता में अधिक बच्चे पैदा किये जाते थे।
पिछली पीढ़ियों में बच्चों को जिलाने को लेकर तमाम कुप्रथाएं भी प्रचलित थीं, जिनमें ताबीज़ बाँधने, गड़बड़ नाम रखने, जन्मते ही बच्चों को सांकेतिक रूप से बेच देने जैसी बातें होती थीं। पिछली पीढ़ियों में अब भी बहुत से लोगों के नाम “बेचू” मिल जाएंगे। ये वही बेचे हुए बच्चे होते थे, जिनकी माताओं की अनगिनत संतानें मर चुकी होती थीं।
जैसे ही लोगों की बुनियादी सुविधाएँ बेहतर हुईं, उनके सपनों में उछाल आयी और वे कम बच्चे व बेहतर भविष्य पर ध्यान देने लगे, स्वतः ही। इसी का परिणाम है कि आज भारत की प्रजनन दर 2.3 है और अगली जनगणना में सरकार द्वारा निर्धारित लक्ष्य भी प्राप्त हो जाएगा।
राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग द्वारा वर्ष 2003 में जनसंख्या नीति पर आयोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी में यह निर्धारित किया गया था कि दो बच्चा नीति कई मायनों में प्रतिगामी है, जिनमें बच्चे का अधिकार व मानवाधिकार का उल्लंघन भी शामिल है।
इसके बावजूद बीजेपी की फॉयल पेपर लिपटी हुई तमाम नीतियों की तरह उत्तर प्रदेश में यह भी लागू हो जाये तो कोई अचरज नहीं होगा। आखिर उनके द्वारा किये गये तमाम प्रोपेगंडों में एक मुसलमानो की तेजी से बढ़ती हुई आबादी भी है, जिसे वे एक सख़्त क़ानून लाकर रोक देना चाहते हैं। इस दुष्प्रचार से उलट सन् 1991 से लेकर 2011 तक जनगणना आँकड़े बताते हैं कि मुसलमानों की जनसंख्या वृद्धि दर में स्वतः ही तेजी से कमी आ रही है और इसका कारण भी वही है जो कि संपन्न हिंदुओं के मामले में है- ग़रीबी में कमी, बुनियादी सुविधाएँ, शिक्षा और बेहतर भविष्य का स्वप्न।
कल्याणकारी सरकारों को चाहिए कि वे इन ज़रूरतों को सुनिश्चित करें न कि जबरदस्ती का बहिष्करण लागू करें।