कोरोना संकट में देश तालाबंदी से आपातकाल जैसी हालत में पहुंच चुका है। एक रिपोर्ट के मुताबिक 12.8 करोड़ लोग केवल भारत में नौकरी गँवा चुके हैं, फिर हम ढांढस बांधे हुए हैं कि कुछ दिन में सब ठीक हो जाएगा। लोग अब कोरोना के साथ जीना सीख रहे हैं। खुद को बार-बार सैनेटाइज़ करते हैं, दो गज की दूरी का ध्यान रखे हुए हैं, चीजों को छूने से बचते हैं, पर ये तो सामान्य लोग हैं। जरा सोचिए उन दिव्यांगों के बारे में जो नेत्रहीन हैं, चीजों को छुए बिना एक कदम भी आगे नहीं बढ़ सकते। उनके लिए दूरी बरतना कैसे संभव है? सोचिए उस व्यक्ति के बारे में जो पैरों से लाचार है, भला वो कैसे राशन का जुगाड़ करने के लिए एक दुकान से दूसरी दुकान तक भटकेगा?
ये वह तकलीफ है जिससे इस वक्त भारत के 2.2 करोड़ लोग गुजर रहे हैं। उनमें से भी करीब 70 फ़ीसदी ऐसे लोग गांवों में हैं। लॉकडाउन के बाद जब रोजगार हाथ से गया तो उम्मीद की जा रही है कि गांव में यह संख्या पहले से भी ज्यादा हो गयी होगी।
सरकार ने अरबों के पैकेज की घोषणा की, राशन मुहैया करवाने का वादा किया, रोजगार का भरोसा दिलाया पर जब अच्छे-भले सामान्य लोगों को इन सबका फायदा नहीं मिल रहा तो भला दिव्यांगों के बारे में कौन सोचता है। सरकार बस हमसे उम्मीद किए हुए है कि उसकी गाइडलाइनों का पालन किया जाता रहे लेकिन अपने दायित्वों के बारे में न तो बताया गया और पूछना तो हमारे हक में कभी था ही नहीं।
सरकार ने न जाने कौन कौन से इंडिया की घोषणा कर चुकी है- जैसे स्टार्टअप इंडिया, स्किल इंडिया, आत्मनिर्भर भारत, मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, न्यू इंडिया, लेकिन सामाजिक और आर्थिक तौर पर मुख्यधारा से बाहर किए गए लोगों के बारे में शायद ही आज का मीडिया और सरकार के नीति निर्धारक बात करते हैं। मुद्दे की गंभीरता को देखते हुए ग्रामवाणी द्वारा संचालित मोबाइलवाणी समुदायिक मीडिया चैनल के जरिये रोजी-रोटी अधिकार अभियान के तहत खासतौर पर दिव्यांगों की समस्या को उजागर करने की कोशिश की गयी है। इस मुहिम में विकलांगों की जो स्थिति हमें देखने को मिली वो न्यू इंडिया वाले खांचे से बिल्कुल अलग है।
सरकारी पहल पर एक नजर
वास्तविकता जानने से पहले जरा एक नजर उन व्यवस्थाओं पर डाल लेते हैं, जिन्हें मुख्यधारा में शामिल करने की बात की गयी थी। भारतीय सांख्यिकी मंत्रालय के जुलाई, 2018 में किए सर्वे के मुताबिक़ भारत में लगभग 2.2 करोड़ लोग विकलांग हैं और उनमें से करीब 70 फ़ीसदी आबादी गांवों में रहती है। जाहिर है ये लोग भले सरकार के लिए कोई मायने न रखते हों पर संख्या के लिहाज से बहुत अहम हैं, इसलिए लॉकडाउन और पूरे कोरोनाकाल के दौरान दिव्यांगों की मदद के लिए गाइडलाइन जारी की गयी।
इसमें कहा गया कि क्वारंटीन या आइसोलेशन में रह रहे विकलांग लोगों के लिए ज़रूरी खाना, पानी और दवाइयां उनके घर तक पहुंचायी जानी चाहिए, पर ये कौन और कैसे पहुंचाएगा इसका कोई पता नहीं है। फिर कहा गया कि कोविड-19 से जुड़ी हर जानकारी स्थानीय और एक्सेसिबल भाषा (ऑडियो, सांकेतिक भाषा और ब्रेल) में उपलब्ध होगी पर खुद आरोग्य सेतु ऐप के बारे में दिव्यांग बताते हैं कि यह उनके उपयोग के लिए है ही नहीं. निर्देश दिए गए कि अस्पताल में काम करने वाले और अन्य आपातकालीन सेवाएं देने वाले लोगों को विकलांगजनों के प्रति संवेदनशील बनाया जाए, पर ऐसा हुआ या नहीं इसकी निगरानी कौन करे? अपील की गयी कि हर सरकारी और निजी संस्थान में ज़रूरी सेवाएं देने वाले दिव्यांगजनों को पूरे भुगतान के साथ छुट्टी दी जाए, लेकिन असल में हुआ ये कि लॉकडाउन के दौरान उन्हें अपनी नौकरी गंवानी पड़ी।
कहा गया कि किसी भी तरह की मानसिक परेशानी के लिए ऑनलाइन काउंसलिंग उपलब्ध करायी जाए। इसके लिए एक खास नम्बर (0804611007) भी जारी किया गया। 24 घंटे उपबल्ध हेल्पलाइन (011-23978046, 9013151515) जारी की गयी, जहां एक्सेसिबल तरीके से जानकारी मिल सके। दिव्यांगजन सशक्तीकरण विभाग के सोशल मीडिया हैंडल्स (Disability Affairs, @socialpdws) पर सांकेतिक भाषा, ऑडियो और वीडियो के ज़रिये कोविड-19 से जुड़ी कुछ जानकारियां देने का दावा किया जा रहा है। सच तो ये है कि दिव्यांगजन सशक्तीकरण विभाग की आधिकारिक वेबसाइट पर कोविड-19 से जुड़ा एक भी अपडेट नहीं है। देश में विकलांग लोगों के लिए नौ अलग-अलग संस्थान हैं लेकिन वो पैन्डेमिक के इस दौर में कुछ ख़ास नहीं कर रहे हैं।
न राशन न कार्ड, बस भूख है!
बिहार के सारण जिले के सिवरी गांव के वार्ड 12 में रहने वाले दिव्यांग मुन्ना कुमार सिंह कहते हैं, ‘’मेरे पास राशन कार्ड है फिर भी डीलर राशन देने से इंकार कर रहा है। गरीब परिवार से हूं, उस हिसाब से भी नि:शुल्क राशन दिया जाना था पर नहीं मिला। जीवन चलाना मुश्किल होता जा रहा है। काम भी बंद है, अब मैं अपना और परिवार का पेट कैसे भरूं?’’
इनके पास तो फिर भी राशन कार्ड है, पर जरा उत्तर प्रदेश के गाज़ीपुर ज़िला के बिरनो प्रखंड से कल्पनाथ की सुनिए। दिव्यांग कल्पनाथ बताते हैं कि आज तक पंचायत से उनका विकलांगता प्रमाण पत्र बनकर नहीं आया, जिसके कारण उन्हें नि:शुल्क राशन नहीं मिल पा रहा है। इसी तरह मध्यप्रदेश के इटारसी के रहने वाले मनीष कुमार को यह जानकारी नहीं है कि सरकार उनके लिए अलग से कोई राशन कार्ड बना रही है या नहीं? संतोष कुमार सोनी ने भी मोबाइलवाणी को बताया कि गांव में उनका राशन कार्ड नहीं बन पा रहा है। गांव के प्रधान भी उनकी मदद नहीं करते हैं। दिव्यांग हैं इसलिए मनरेगा में काम भी नहीं मिल पा रहा है।
जिन लोगों ने अपनी समस्याएं यहां बतायी हैं ये उनमें से कुछ लोग हैं। मोबाइलवाणी पर इन दिनों रोजाना दर्जनों ऐसे दिव्यांगों की रिकॉर्डिंग आ रही है जो बताते हैं कि उनका अब तक राशन कार्ड बन गया है लेकिन उन्हें डीलर राशन नहीं दे रहा है। कुछ ऐसे हैं जिनके कार्ड ही नहीं बने। बिहार, मध्यप्रदेश, झारखंड और उत्तर प्रदेश के सैकड़ों लोगों ने अपने—अपने गांव के प्रधानों और राशन डीलरों के खिलाफ शिकायत की है। कई लोग तो ऐसे हैं जो मनरेगा में काम करना चाहते हैं पर उनके यहां रोजगार दिवसों का आयोजन ही नहीं हो रहा।
झारखंड के गिरीडीह के मांझिया गांव से एक दिव्यांग ने बताया कि लॉकडाउन के बाद से उनका काम बंद है। मनरेगा में कुछ दिन मजदूरी की थी पर वहां से भी अब तक वेतन नहीं मिला। सरकार ने नि:शुल्क राशन देने के लिए कहा था पर गांव में तो यह भी मुश्किल है। गाज़ीपुर ज़िला के बद्धोपुर ग्रामसभा निवासी रामविलास ने मोबाइलवाणी को बताया कि गांव के प्रधान से जॉब कार्ड बनाने के लिए कहा था पर उन्होंने अब तक कुछ नहीं किया। परिवार तो पालना था, इसलिए दूसरे के जॉब कार्ड पर मनरेगा में काम कर रहे हैं। पैसे मिलते हैं तो आधे खुद रखते हैं, आधे जॉब कार्ड वाले को देने होते हैं। सरकार 500 रुपए पेंशन दे रही है पर इतने कम में परिवार का गुजारा कैसे करें?
पेंशन का दिखावा अब बंद कर दीजिए
राशन की दिक्कतें तो सुन ली। अब जरा सरकार के उस दावे की सच्चाई जानिए जिसमें हर गरीब और खासतौर पर दिव्यांगों को 1 हजार रुपए मासिक देने का भरोसा दिलाया गया था। झारखण्ड के बोकारो ज़िला के नावाडीह स्थित कंचनपुर से कैलाश महतो बताते हैं कि जुलाई निकल गया लेकिन उन्हें अब तक विकलांग पेंशन की राशि प्राप्त नहीं हुई जबकि इस वक्त उन्हें आर्थिक मदद की सबसे ज्यादा जरूरत है। मध्यप्रदेश के शिवपुरी ज़िले के तहसील बदरवास के ग्राम अमहारा से राम कुमार यादव ने बताया कि सरकार ने 1 हजार रुपये की आर्थिक मदद का एलान किया था पर उन्हें नहीं पता कि उसका क्या हुआ क्योंकि उनका खाता तो पहले की ही तरह खाली है।
गाजीपुर के जखनिया प्रखंड में दुल्लहपुर की एक दिव्यांग महिला ने मोबाइलवाणी संवाददाता के जरिये बताया कि उनके परिवार में अब कोई कमाने वाला नहीं है। लॉकडाउन में रोजगार चला गया। सरकार ने 1 हजार रुपए देने का वादा किया था पर इतने महीने बीत गए उनके खाते में कुछ नहीं आया। गांव के मुखिया भी इस बारे में कुछ नहीं बता पा रहे हैं। उत्तर प्रदेश से ही शिवशंकर विश्वकर्मा ने मोबाइलवाणी पर अपनी समस्या रिकॉर्ड की। वे कहते हैं कि पहले दूसरे शहर में वे काम करते थे पर लॉकडाउन में रोज़ी चली गयी, सोचा गांव में कम से कम खाने को तो मिलेगा पर यहां राशन का जुगाड़ नहीं हो पा रहा है। इस पर से जो पेंशन दिए जाने की घोषणा की गयी थी वह भी आज तक नहीं मिली।
मध्यप्रदेश के बैतूल से दिनेश कुमार सोनी कहते हैं कि ‘’सरकार दिव्यांगों के हित के बारे में अगर सोच रही होती तो हमें दाने—दाने के लिए मोहताज नहीं होना पडता। जब केन्द्रीय कर्मचारियों की पेंशन में बढोतरी हो सकती है तो फिर दिव्यांगों को पेंशन देने में सरकार को क्या दिक्कत हो रही है?’’
उत्तरप्रदेश के बलिया जिले से माया सिंह कहती हैं कि ‘’सरकारें जो भी घोषणाएं कर रहीं हैं वो केवल टीवी वालों के लिए हैं, हमारे गांव में लोगों को नि:शुल्क राशन मिल रहा है? हमें तो कुछ नहीं मिला।‘’ बिहार के गोपालगंज ज़िला से गौरव पांडेय भी इसी समस्या से गुजर रहे हैं। वे कहते हैं कि 1000 रुपए मासिक मदद का एलान तो चुनावी वादा निकला। ‘’ये भी किसी ने नहीं बताया कि यह राशि मांगने के लिए हम कहाँ जाएं, किसका दरवाज़ा खटखटाएं?
अब स्मार्टफोन कहां से लाएं हम?
ये तो बुनियादी दिक्कतें थीं पर अब सरकार ने दिव्यांगों के लिए जो नयी नवेली तकलीफ़ पैदा की है वो है शिक्षा को स्मार्ट बनाने का सपना दिखाना। वो भी उन लोगों को जिनके पास न तो नयी तकनीक के फोन हैं और न ही रिचार्ज का पैसा। जब आम लोग इतना परेशान हैं तो जरा सोचिए कि दिव्यांगों का क्या होगा? वे तो पहले ही समाज के हाशिये पर हैं। अगर स्मार्ट शिक्षा का हिस्सा नहीं बन पाये तो शायद ऐसे गर्त में गिरे जहां से कभी उठ ही न पाएं!
मध्यप्रदेश के सतना से दीपचंद कहते हैं कि लॉकडाउन में स्कूल कॉलेज बंद हैं। ‘’सब कह रहे हैं कि अब ऑनलाइन क्लास लगेंगी पर हमारे पास तो स्मार्टफोन ही नहीं है, ऐसे में क्लास कहां से लें?” दीपचंद और उनके दिव्यांग साथी पहले ही काफी मशक्कतों से अपनी पढ़ाई पूरी करने की जुगत में लगे थे पर स्मार्टफोन का इंतजाम करना उनके लिए अब चुनौती बन गया है।‘’
गाजीपुर से राजेश कुमार पाठक कहते हैं कि प्रधानमंत्री के विधानसभा क्षेत्र बनारस में 1970 दृष्टिबाधित बच्चों का एक स्कूल संचालित हो रहा था। यहां कक्षा 1 से 12 तक बच्चों को पढ़ाई करवायी जाती थी लेकिन अब स्कूल संचालन में सहयोग करने वाली व्यापारी कोरोना काल की आड़ में कक्षा 9वीं से 12वीं तक के स्कूल को बंद करने की तैयारी कर रहे हैं यानि ये कोरोना दिव्यांग बच्चों से उनकी शिक्षा भी छीन लेगा।
आखिर इनका अपना है कौन?
सवाल ये है कि सरकार अगर इनके लिए कुछ नहीं कर सकती है तो फिर उनका अपना है कौन? महाराष्ट्र के अमरावती से दिव्यांग चंद्रकांत बताते हैं कि उनके 11 और दिव्यांग साथी अपने परिवार के साथ ट्रेनों में खिलौने और दूसरी चीजें बेचकर गुजारा करते थे। जब से ट्रेनें बंद हुई हैं उनका रोजगार छिन गया। कोरोना का खौफ लोगों में इस कदर बैठा है कि अब वे फुटपाथ पर जाकर भी कुछ बेचें तो लोग उनसे खरीदते नहीं हैं, ऐसे में आखिर परिवार कैसे पलेगा? वे कहते हैं, ‘’हम भूख से मर रहे हैं और रोजाना इस आस में जिंदगी काट रहे हैं सरकार के वादे के अनुसार खाते में 1 हज़ार रूपये की राशि आएगी तो कुछ जरूरी चीज़ों को खरीदकर लाएंगे।‘’
उत्तर प्रदेश के जौनपुर ज़िला से गंगाराम प्रसाद यादव जो कि नेत्रहीन हैं, बहुत मुश्किल समय से गुजर रहे हैं। यादव कहते हैं कि परिवार को पालने की जिम्मेदारी है पर रोजगार के बिना कैसे पूरी होगी? पहले वे महाराष्ट्र में परिवार समेत रोजगार करते थे, तो पेट पल रहा था। लॉकडाउन के बाद से घर में बैठे हैं। न तो परिवार के किसी सदस्य को मनरेगा में काम मिला, न ही कोई सरकारी मदद।
विकलांग डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों के एक संगठन एजेंट्स ऑफ़ चेंज ने भी दिव्यांगों की दिक्कतों के बारे में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय और सामाजिक न्याय एवं सशक्तीकरण मंत्रालय को चिट्ठी लिखी है। उसने अपनी चिट्ठी में लिखा है, ‘’कोविड-19 के बारे में उपलब्ध ज़्यादातर जानकारियां एक्सेसिबल नहीं हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय की एक भी प्रेस वार्ता साइन लैंग्वेज में नहीं है और न ही ये दृष्टिबाधित लोगों के लिए सुगम (एक्सेसिबल) है।”
दृष्टिबाधित लोगों के लिए सोशल डिस्टेंसिंग बना पाना बेहद मुश्किल है क्योंकि वे ज़्यादातर काम छूकर करते हैं। इसके बावजूद विकलांगों के लिए काम करने वाली प्रमुख राष्ट्रीय संस्थाओं ने इस बारे में कोई ठोस कदम नहीं उठाए हैं. इतना ही नहीं, केंद्र सरकार का महत्वाकांक्षी एक्सेसिबल इंडिया अभियान भी पिछले कुछ वर्षों से ठप पड़ा है।
इस पूरी समस्या का एक सीधी लाइन में जवाब देते हैं मध्यप्रदेश मुरैना के रहने वाले कालीचरण। वे कहते हैं कि हमारे देश में वोट की कीमत है, फिर चाहे वह खाना हो, रोजगार हो या फिर आर्थिक मदद। दिव्यांगों का कोई वोट बैंक नहीं है इसलिए वे सरकार के लिए कोई मायने नहीं रखते। अगर दिव्यांग सरकार के लिए आम जनता से ज्यादा मतदाता बनकर उभरते तो शायद उनके बारे में भी सोचा जाता।