उत्तर प्रदेश सरकार का एक विज्ञापन है, ’शिक्षित नारी है संकल्प हमारा, भविष्य का है यह विकल्प हमारा।’ किंतु 120 दिनों से ऊपर हो गए एक शिक्षित नारी शिखा पाल शिक्षा निदेशालय, निशातगंज, लखनऊ की पानी की टंकी पर सौ फीट की ऊंचाई पर चढ़ी हुई है जो उत्तर प्रदेश सरकार के शिक्षा विभाग द्वारा संचालित प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ाने की इच्छुक है। उसके पास शिक्षा में स्नातक की डिग्री है और उत्तर प्रदेश सरकार के पास 26,000 ऐसे पद खाली हैं जो शिखा पाल जैसे अभ्यर्थियों द्वारा भरे जा सकते हैं। इस पानी की टंकी, जो शिखा के लिए अब एक अस्थायी घर बन गया है, के नीचे उसके कई सहयोगी 160 दिनों से ऊपर हो गए धरने पर बैठे हैं जो शिखा का मनोबल बढ़ा रहे हैं एवं उसकी जरूरतों का ख्याल रख रहे हैं। शिखा ने गर्मी झेली है, बरसात झेली है और अब ठंड से निपटने की तैयारी कर रही हैं। कुछ वैसे ही जैसे किसान आंदालन ने सारे मौसमों की मार झेली।
इरोम शर्मिला, जिसने सशस्त्र बल विशेषाधिकार अधिनियम को हटाने के लिए इम्फाल, मणिपुर में 16 वषों का लम्बा उपवास किया, के बाद शायद एक महिला द्वारा अपनी मांग को लेकर शिखा पाल का अपनी तरह का अकेला जुझारू प्रदर्शन है।
उत्तर प्रदेश सरकार का एक दूसरा विज्ञापन है जो दावा करता है कि सरकार ने साढ़े चार लाख लोगों को रोजगार दिया है जिसमें डेढ़ लाख महिलाएं हैं। किंतु 30,000 अनुदेशक व 69,000 कम्प्यूटर प्रशिक्षक जो सरकारी विद्यालयों में रुपए 7,000 के मासिक मानदेय पर काम करते हैं नियमितीकरण की मांग कर रहे हैं। 32,022 शारीरिक शिक्षा के व 4,000 उर्दू शिक्षकों, जिनको पिछली सरकार ने रखा था, की भर्तियों पर वर्तमान सरकार ने रोक लगा रखी है। 12,800 विशेष बी.टी.सी. व 12,400 बी.टी.सी. अपनी नियुक्तियों का इंतजार कर रहे हैं यह कहते हुए कि यदि सरकार को उन्हें रखना नहीं था तो उन्हें प्रशिक्षण क्यों दिया। 2018 से 2,00,000 प्रेरकों, जिनकी काम विद्यालयों में बच्चों का पंजीकरण बढ़ाना था, का रुपए 2,000 का मासिक मानदेय रोक कर रखा गया है। 1,50,000 एन.आई.ओ.एस. बेसक शिक्षा की नियमावली के तहत मान्यता चाहते हैं, 3,000 महाविद्यालयों के शिक्षक अपने परास्नातक छात्रों को मिलने वाली छात्रवृत्ति से कम वेतन पर पढ़ा रहे हैं। 3,750 फार्मासिस्ट नियुक्ति कर इंतजार कर रहे हैं। 74,000 गाम प्रहरी जो पुलिस के लिए मुखबिरी का काम करते हैं अपने रुपए 2,500 मासिक मानदेय की बढ़ोतरी चाहते हैं। 58,000 स्वच्छाग्राही जिन्होंने लोगों को शौचालय निर्माण के लिए प्रेरित किया व गांवों को खुले में शौच से मुक्त कराया अपने प्रति शौचालय रुपए 150 की प्रोत्साहन राशि व प्रति घोषित खुले में शौच से मुक्त गांव की रुपए 10,000 प्रोत्साहन राशि मिलने का इंतजार कर रहे हैं जबकि नरेन्द मोदी 2 अक्टूबर, 2019 को ही पूरे भारत को खुले में शौच से मुक्त हो जाने की घोषणा कर चुके हैं।
इस प्रकार नौकरियों के इंतजार में अथवा अपनी सेवा शर्तों से असंतुष्ट लोगों की संख्या साढ़े चार लाख से कहीं ज्यादा है। साफ है कि तस्वीर उतनी गुलाबी नहीं जितनी उत्तर प्रदेश सरकार के विज्ञापनों में नजर आती है बल्कि स्थिति काफी विस्फोटक है क्योंकि शिखा पाल पानी की टंकी पर चढ़ी हुई हैं और दूसरे असंतुष्ट भी अपना धैर्य खो रहे हैं।
बेरोजगारी की समस्या का मूल कारण है जबसे हमारी सरकार ने निजीकरण व उदारीकरण की आर्थिक नीति अपनायी है नियमित नौकरियों के पद कम किए जा रहे हैं, जो बहुत जरूरी नहीं हैं वे पद खत्म किए जा रहे हैं, नियमित पदों को संविदाकर्मियों से भरा जा रहा है अथवा नौकरियां ठेके पर दी जा रही हैं। इससे रोजगार की संख्या व गुणवत्ता दोनों पर असर पड़ा है जबकि युवा जनसंख्या बढ़ी है, शिक्षा का स्तर बढ़ा है। कुछ क्षेत्रों, जैसे पुलिस भर्ती में, जिनमें पहले महिला अभ्यर्थी नहीं होती थीं, अब महिलाओं ने भी दावेदारी की है।
रोजगार का अधिकार मौलिक अधिकार नहीं है किंतु जीने का अधिकार है और बिना रोजगार के सम्मानपूर्वक जी पाना मुश्किल है। भारत का मेहनतकश, खासकर असंगठित क्षेत्र में, न्यूनतम मजदूरी से भी कम पर काम करता है और साफ तौर पर गरीबी, कुपोषण व रोग से पीड़ित है। शिक्षित बेरोजगार की स्थिति भी कोई बेहतर नहीं है। कुछ अपवादस्वरूप छोड़ जिन्हें अच्छी तनख्वाह वाली नौकरियां मिल जाती हैं ज्यादातर बहुत कम वेतन पर अपने आत्मसम्मान के साथ समझौता कर जीते हैं और किसी तरह अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि सेवा क्षेत्र अकार्यकुशलता व भ्रष्टाचार का शिकार है। यहां तक कि शिक्षा की प्रक्रिया को ही भ्रष्ट बना दिया गया है।
भारत की बेरोजगारी अथवा अर्द्धबेरोजगारी की समस्या का हल यह है कि रोजगार के अधिकार को मौलिक अधिकार बनाया जाए। अमीर-गरीब के अंतर को कम करना पड़ेगा। ऐसा नहीं होना चाहिए कि हमारा एक पूंजीपति मुकेश अंबानी तो दुनिया के दस सबसे अमीर लोगों में शामिल हो जाए और आधी आबादी इतनी गरीबी में जीने को मजबूर हो कि अपने बच्चों का कुपोषण भी दूर न कर सके। डॉ. राम मनोहर लोहिया का सिद्धांत कि अमीर-गरीब की आय का फर्क दस गुणा से ज्यादा नहीं हो को लागू किया जाना चाहिए। सरकार को लोगों की रोटी, कपड़ा व मकान की मूलभूत जरूरतों को पूरा करने की जिम्मेदारी लेनी चाहिए। लेकिन सरकारी नीतियों की विडम्बना यह है कि इसके पहले कि लोग अपने बच्चों को ठीक से खिला पिला पाएं उनके हाथ में मोबाइल फोन आ जाता है तो हमारी दूसरे दर्जे की दूर-संचार की जरूरत को पूरा करता है। शिक्षा और स्वास्थ्य भी सरकार की जिम्मेदारी होनी चाहिएं और सभी सेवाओं की उपलब्धता में बराबरी होनी चाहिए।
आखिर ऐसी स्थिति क्यों आती है कि एक तरफ बेरोजगारी है तो दूसरी तरफ विद्यालय व अस्पताल में कर्मियों की कमी है? किसी भी सरकारी विद्यालय का दौरा कर लिया जाए तो पता चल जाएगा कि शिक्षकों की कमी है। किसी सरकारी अस्पताल चले जाएं तो वहां अस्पताल की इलाज करने की क्षमता से ज्यादा मरीज नजर आएंगे। तो सरकार को और कर्मियों को काम पर रखने से कौन रोक रहा है जिससे उसके संस्थान तो ठीक तरीके से संचालित हों? बिना इसके प्रगति सम्भव नहीं है, विश्व गुरू बनना तो दूर की बात है। यह साफ है कि सरकार ने अपनी दोषपूर्ण नीतियों, जैसे निजीकरण-अदारीकरण की, से खुद के लिए समस्या खड़ी कर ली है और राजनीतिक दलों में नई नीतियों को अपनाने की इच्छा शक्ति नहीं जिससे पूरी व्यवस्था में मौलिक परिवर्तन लाए जा सकें।
उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल के 2015 व 2018 के दो फैसले हैं कि सरकारी वेतन पाने वाले अपने बच्चों को सरकारी विद्यालय में पढ़ाएं व अपना व अपने परिवार का इलाज सरकारी अस्पताल में कराएं लेकिन उत्तर प्रदेश की कोई भी सरकार इन्हें लागू करने को तैयार नहीं।