अंततः उत्तर प्रदेश सरकार ने इस बात की सार्वजनिक स्वीकारोक्ति कर ही ली कि वह बहुसंख्य हिंदू युवतियों को नासमझ, अपने हित-अनहित का निर्धारण कर सकने में असमर्थ तथा स्वविवेक से कोई भी सही निर्णय लेने हेतु अक्षम मानती है। उत्तर प्रदेश सरकार ने गैर कानूनी धर्मांतरण विधेयक 2020 को मंजूरी दे दी है। कानून वैसे तो धर्मांतरण से संबंधित है किंतु वर्तमान संदर्भ में यह कथित लव जिहाद को रोकने के सरकारी प्रयत्नों के एक भाग के रूप में देखा जा रहा है।
हमारा समाज स्त्री के लिए बहुत सम्मानजनक अभिव्यक्तियों का प्रयोग करता है। हम उन्हें गृहलक्ष्मी कहते हैं। उन्हें देवी की संज्ञा देते हैं और पूजा के योग्य मानते हैं। हम उन्हें हमारी संस्कृति की रक्षक और पोषक कहते हैं किंतु जब कोई स्त्री अपने जीवन का सबसे अहम फैसला- जीवन साथी चुनने का निर्णय- अपनी पसंद और अपने विवेक के अनुसार लेती है तो वह हमें स्वीकार्य नहीं होता। स्त्रियां तभी तक पूजनीय होती हैं जब तक वे पितृसत्ता द्वारा अपने लिए निर्धारित कर्त्तव्यों का पालन करती हैं और पुरुष प्रधान समाज द्वारा निर्धारित कसौटियों पर खरी उतरती हैं। जैसे ही वे अपनी अस्मिता की तलाश करने लगती हैं और अपने मौलिक तथा अद्वितीय होने का प्रमाण देने लगती हैं, उन्हें अनुशासित, दंडित और प्रताड़ित करने का उपक्रम प्रारंभ हो जाता है। यह पितृसत्ता की युगों से चली आ रही जांची-परखी और कारगर रणनीति है। पुरुष अपनी सुविधानुसार नारी को कभी दुर्गा और रणचंडी के रूप में चित्रित करता है तो कभी उसे अबला तथा कोमलांगी बताकर उसकी सुरक्षा के लिए चिंतित होने का अभिनय करने लगता है। घर की माताओं-बहनों और बहू बेटियों की रक्षा का स्वघोषित उत्तरदायित्व पुरुष स्वयं पर ले लेता है, किंतु यह सुरक्षा नारी को तभी तक उपलब्ध होती है जब तक वह पुरुष द्वारा खींची गई लक्ष्मण रेखाओं के भीतर रहती है। इन लक्ष्मण रेखाओं से बाहर निकल कर स्वतंत्रता की तलाश करने की नारी की कोशिश उच्छृंखलता मानी जाती है और इसके लिए उसे दंडित किया जाता है। यह सुरक्षा के बहाने नारी पर वर्चस्व स्थापित करने की चेष्टा है।
पुरुष नारी को अपने अधीन रखने के लिए उसे कुल और परिवार के सम्मान की संज्ञा देता है किंतु जब नारी सामाजिक मान-सम्मान एवं गौरव की पुरुषवादी परिभाषा से संगति नहीं बैठा पाती तथा अपनी पसंद का जीवन साथी चुन लेती है तो उसकी हत्या कर दी जाती है जिसके लिए आजकल ऑनर किलिंग शब्द बहुत ज्यादा प्रयुक्त होता है। पुरुष ने नारी का जमकर दोहन किया है। नारी को आजादी देने के नाम पर उससे नौकरी, मजदूरी और व्यवसाय कराए जाते हैं किंतु उसे पारिवारिक दायित्वों से कभी मुक्त नहीं किया जाता। परिवार की आर्थिक मजबूती के लिए घर से बाहर निकलने वाली नारी पर चारित्रिक लांछन लगाए जाते हैं और काम से थककर लौटने के बाद उसे घरेलू कार्य ठीक से न कर पाने के लिए ताने सुनने पड़ते हैं।
योगी सरकार संभवतः यह संदेश देना चाहती है कि जो नारी देश में वित्त, रक्षा और विदेश मंत्रालयों का दायित्व संभाल सकती है, अनेक बहुराष्ट्रीय कंपनियों और बैंकों में मुख्य कार्यकारी अधिकारी के पद पर आसीन हो सकती है, वायुयान उड़ा सकती है, अंतरिक्ष कार्यक्रम का हिस्सा बन सकती है, सेना का सक्रिय अंग बन सकती है, कोविड काल में अपने प्राणों की परवाह न करते हुए मानव सेवा कर सकती है, देश के दूसरे भागों में रोजगार की तलाश में भटकने वाले प्रवासी श्रमिक पतियों का घर-परिवार और खेत संभाल सकती है, वह नारी अपने जीवन साथी के उचित चयन और अपने धार्मिक जीवन के संबंध में सही निर्णय नहीं ले सकती। योगी सरकार के फैसले पर पितृसत्तात्मक धार्मिक विमर्श का प्रभाव स्पष्ट दिखता है। सरकार किसी रूढ़िवादी पिता या भाई की भांति आचरण करती दिखती है जो बेटी या बहिन की स्वतंत्रता छीनने की अपनी अनुचित प्रवृत्ति को अपने स्नेह की अभिव्यक्ति के रूप में प्रस्तुत करता है।
अंतरराष्ट्रीय कानूनी प्रावधान अंतर धार्मिक विवाह के संबंध में बहुत उदार हैं और महिलाओं के जीवनसाथी के चयन के अधिकार का पूर्ण सम्मान करते हैं। यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स के आर्टिकल 16 के अनुसार विवाह के संदर्भ में महिलाओं के साथ किसी भी प्रकार के भेदभाव को समाप्त करने की दिशा में प्रयास किए जाने चाहिए। वयस्क स्त्री पुरुष नस्ल, राष्ट्रीयता और धर्म की सीमाओं से परे विवाह कर परिवार का निर्माण कर सकते हैं। लगभग ऐसी ही भावना इंटरनेशनल कोवेनेंट ऑन सिविल एंड पॉलिटिकल राइट्स, 1966 के आर्टिकल 23 में व्यक्त की गई है।
गैर कानूनी धर्मांतरण विधेयक अपनी शब्दावली और संरचना में अनुचित धर्मांतरण रोकने हेतु एक कानूनी प्रावधान की भांति दिखाई देता है किंतु यह ऐसी मानसिकता रखने वाले शासकों द्वारा लागू किया जाने वाला है जिनका यह दृढ़ विश्वास है कि मुस्लिम युवक छल-कपट पूर्वक हिन्दू युवतियों को बहला फुसलाकर उनसे विवाह कर लेते हैं, विवाह के लिए इन युवतियों को धर्म परिवर्तन करना पड़ता है, विवाह के बाद इन युवतियों का जीवन नर्क बन जाता है और सबसे बढ़कर ऐसी घटनाएं अपवाद स्वरूप घटित नहीं हो रही हैं बल्कि मुस्लिम समुदाय एक सोची समझी रणनीति के तहत अपनी जनसंख्या बढ़ाकर हिंदुओं को अल्पसंख्यक बनाने हेतु यह सब कर रहा है ताकि भारत को इस्लामिक राज्य बनाया जा सके। सरकार की इन पूर्व धारणाओं के कारण लगभग सभी को पता है कि इस कानून का प्रयोग किस समुदाय पर किस उद्देश्य से किया जाना है। विवाह के संदर्भ में सरकार अघोषित रूप से यह कहती प्रतीत होती है कि वह अंतर धार्मिक प्रेम विवाह के विरुद्ध है, वह इसे संदेह की दृष्टि से देखती है और इसे हतोत्साहित करना चाहती है। बावजूद सरकार की चेतावनी के यदि कोई युवती इस राह पर आगे बढ़ना चाहती है तो वह कानूनी औपचारिकताएं पूर्ण करे जिनका भाव किसी ऐसी अंडरटेकिंग की भांति है जिसमें कहा गया हो कि मैं अपनी जिम्मेदारी पर अंतर धार्मिक प्रेम विवाह कर रही हूँ और इसके परिणामों हेतु मैं स्वयं जिम्मेदार रहूंगी।
जनसंख्या संबंधी प्रत्येक आकलन हमें एक ही निष्कर्ष की ओर ले जाता है- वह यह है कि भारत में मुस्लिम आबादी हिन्दू आबादी से अधिक हो जाएगी ऐसी कोई आशंका दूर दूर तक नहीं है। चाहे वे देश में समय समय पर हुई जनगणना के आंकड़े हों या नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के तथ्य हों, सबके द्वारा यह बड़ी आसानी से यह समझा जा सकता है कि हिन्दू इस देश में बहुसंख्यक ही रहेंगे। यहाँ तक कि प्यू इंटरनेशनल की जिस द फ्यूचर ऑफ वर्ल्ड रिलिजन्स (2015) शीर्षक रिपोर्ट का हवाला हिन्दू कट्टरपंथियों द्वारा दिया जाता है उसके अनुसार भी वर्ष 2050 में देश की कुल आबादी में मुस्लिम जनसंख्या 18.2 प्रतिशत (2010 में 14 प्रतिशत) और हिन्दू जनसंख्या 77 (2010 में 80 प्रतिशत) प्रतिशत रहेगी।
हिंदुओं और मुसलमानों दोनों की टोटल फर्टिलिटी रेट में गिरावट आ रही है। मुसलमानों की टोटल फर्टिलिटी रेट 2001 में 4.1 थी जो 2010 में 3.2 हो गई और 2050 तक इसके 2.1 होने का अनुमान है। हिंदुओं की टोटल फर्टिलिटी रेट 2010 में 2.5 थी जो 2050 में रिप्लेसमेंट लेवल (2.1) से नीचे पहुँचकर 1.9 रह जाएगी। प्यू की रिपोर्ट बताती है कि विश्व की आबादी की तुलना में हिन्दू जनसंख्या युवा है और इसकी जीवन प्रत्याशा अधिक है इसलिए टीएफआर के रिप्लेसमेंट लेवल के नीचे जाने के बावजूद हिंदुओं की जनसंख्या 2050 तक बढ़ती रहेगी। बहुविवाह के संदर्भ में बौद्ध 3.4 जीवन साथियों के साथ सबसे आगे थे, मुसलमान 2.5 और हिन्दू 1.7 जीवन साथियों के साथ क्रमशः दूसरे और तीसरे क्रम पर थे (नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे 3,2006)। एक से अधिक पत्नियां होने का धर्म से कोई संबंध नहीं पाया गया। जिनकी पहली पत्नी से कोई संतान नहीं थी, जिनकी पहली पत्नी अधिक वय की थी या अशिक्षित थी उन्होंने दूसरे विवाह किए, भले ही वे किसी भी धर्म के थे।
देश के पूर्वी भागों में बहुविवाह की दर 2.11 जीवनसाथी, उत्तर पूर्व में 3.20 जीवनसाथी और दक्षिणी भागों में 3.02 जीवनसाथी है। अनुसूचित जाति और जनजाति के सदस्यों में बहुविवाह के प्रकरण अधिक पाए गए (एनएफएचएस-3, प्रिंसटन यूनिवर्सिटी का अध्ययन)। इंडिया स्पेंड का 2016 का एक अध्ययन बताता है कि देश में फर्टिलिटी रेट आर्थिक-सामाजिक विकास, शिक्षा के स्तर और स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता पर निर्भर करती है न कि धर्म पर।
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केरल हाई कोर्ट ने 2009 के अपने फैसले में बताया था कि पिछले 4 वर्षों में केरल में प्रेम संबंधों के बाद धर्मांतरण के 3000 से 4 हजार मामले सामने आए थे। केरल सरकार ने केरल विधानसभा में कहा था कि 2006 से 2012 के मध्य धर्मांतरण के 2667 मामले हुए। अर्थात केरल में प्रतिवर्ष होने वाले लगभग पौने तीन लाख विवाहों में यदि अधिकतम 1000 विवाह भी मुस्लिम लड़के और हिन्दू लड़की के बीच हुए हों तब भी यह कुल विवाहों का 0.36 प्रतिशत ही बैठता है। यही स्थिति कमोबेश उन अन्य प्रांतों की है जो लव जिहाद को लेकर चर्चा में हैं। देश में प्रतिवर्ष लगभग 36000 अंतर धार्मिक विवाह होते हैं जबकि देश में होने वाली शादियों की वार्षिक संख्या एक करोड़ के आसपास है।
लव जिहाद शब्द जरूर नया है किंतु मुस्लिम युवकों द्वारा धोखे से अथवा बलात हिन्दू युवतियों का धर्म परिवर्तन कराने के बाद उनसे विवाह करना और अनेक संतानें पैदा कर जनसंख्यात्मक वर्चस्व स्थापित करने का प्रयास करना एक ऐसा विषय रहा है जिस पर कट्टर हिंदुत्व के हिमायती बीसवीं सदी के प्रारंभिक दशकों से ही चर्चा करते रहे हैं। यू एन मुखर्जी और आर्य समाज से संबंधित स्वामी श्रद्धानंद ने इस विषय पर बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में अनेक लेख लिखे थे। इनसे भी पहले लेखराम ने 1892 में जबरिया धर्मांतरण पर विस्तृत रूप से लिखा था। आज का घर वापसी अभियान तब शुद्धि अभियान के रूप में चला करता था। श्री विनायक दामोदर सावरकर ने अपनी पुस्तक “भारतीय इतिहासतिल सहा सोनेरी पाने” के सद्गुण विकृति नामक अध्याय के “लाखों हिन्दू स्त्रियों का अपहरण एवं भ्रष्टीकरण” उपशीर्षक में लिखा है-
“मुसलमानों के धार्मिक आक्रमणों के भयंकर संकटों का एक और उपांग है। वह है मुसलमानों द्वारा हिन्दू स्त्रियों का अपहरण कर उन्हें मुसलमान बनाकर हिंदुओं के संख्याबल को क्षीण करना, इस कारण मुसलमानों की संख्या में वृद्धि होती गई। उनकी यह राक्षसी श्रद्धा थी कि यह तो इस्लाम की धर्माज्ञा है। उनके इस काम-विकार को तृप्त करने वाली अंध श्रद्धा के कारण उनकी जनसंख्या जिस तीव्र गति से बढ़ने लगी उसी तेजी से हिंदुओं का जनबल कम होता गया। यह एक सुनियोजित और भयंकर कृत्य है। उस धार्मिक पागलपन में भी एक सूत्र था क्योंकि मुसलमानों का यह धार्मिक पागलपन वास्तव में पागलपन नहीं था, अपितु एक अटल सृष्टि क्रम का अनुकरण कर अराष्ट्रीय संख्याबल बढ़ाने की एक पद्धति थी। —- उस काल के परस्त्री मातृवत के धर्मघातक धर्म सूत्र के कारण मुस्लिम स्त्रियों द्वारा लाखों हिन्दू स्त्रियों को त्रस्त किए जाने के बाद भी उन्हें दंड नहीं दिया जा सका। हिंदुओं द्वारा मुस्लिम स्त्रियों के सतीत्व संरक्षण के इस कार्य ने इस संबंध में एक प्रभावी ढाल का कार्य किया।“
श्री विनायक दामोदर सावरकर, भारतीय इतिहासतिल सहा सोनेरी पाने
इन पंक्तियों में सावरकर मुसलमानों को आदतन बलात्कारी और धर्म परिवर्तन के लिए जिम्मेदार बताते हैं। वे मुस्लिम स्त्रियों के साथ जैसे को तैसा की रणनीति अपनाने की वकालत करते नजर आते हैं- अर्थात बलात्कार और फिर धर्म परिवर्तन।
जब देश की जनता का व्यवहार विवाह और संतानोत्पत्ति के विषय में धर्म द्वारा निर्धारित नहीं होता तो फिर हिन्दू कट्टरपंथी किस आधार पर मुसलमानों पर विवाह के लिए जबरन धर्म परिवर्तन को बढ़ावा देने का आरोप लगाते हैं? किस आधार पर वे दावा करते हैं कि मुसलमानों ने अपनी जनसंख्या बढ़ाने के लिए लव जिहाद की रणनीति अपनाई है? क्या इन आरोपों के पीछे मुसलमानों की धार्मिक मान्यताएं जिम्मेदार हैं यद्यपि आम हिंदुओं की भांति आम मुसलमान भी इन धार्मिक मान्यताओं से पूर्णतः संचालित नहीं होता।
यह जानना रोचक होगा कि मुसलमानों का रूढ़िवादी तबका अंतर धार्मिक विवाह के संदर्भ में अपनी धारणाओं का निर्माण किस प्रकार करता है एवं किन नियमों से संचालित होता है? कुरान के अनुसार-
और मुशरिक (बहुदेववादी) स्त्रियों से विवाह न करो जब तक कि वे ईमान न लाएँ। एक ईमानदार बांदी (दासी), मुशरिक स्त्री से कहीं उत्तम है; चाहे वह तुम्हें कितनी ही अच्छी क्यों न लगे। और न (ईमानवाली स्त्रियाँ) मुशरिक पुरुषों से विवाह करो, जब तक कि वे ईमान न लाएँ। एक ईमानवाला गुलाम आज़ाद मुशरिक से कहीं उत्तम है, चाहे वह तुम्हें कितना ही अच्छा क्यों न लगे। ऐसे लोग आग (जहन्नुम) की ओर बुलाते है और अल्लाह अपनी अनुज्ञा से जन्नत और क्षमा की ओर बुलाता है। और वह अपनी आयतें लोगों के सामने खोल-खोलकर बयान करता है, ताकि वे चेतें।
(अल-बक़रा :221)
इस सूरा का अर्थ यह है कि चाहे वे इस्लाम को मानने वाले पुरुष हों या स्त्रियां उन्हें बहुदेववादी अथवा मूर्तिपूजक स्त्री-पुरुषों से तब तक विवाह नहीं करना चाहिए जब तक कि वे इस्लाम को अंगीकार न कर लें। अर्थात अंतर धार्मिक विवाह तभी स्वीकार्य है जब अन्य बहुदेववादी धर्म वाला पार्टनर धर्म परिवर्तन कर इस्लाम ग्रहण कर ले। तब दास प्रथा प्रचलन में थी संभवतः इसीलिए मुशरिक स्त्री-पुरुषों की तुलना में इस्लाम पर विश्वास करने वाले दास-दासियों को बेहतर बताया गया है। डॉ. अस्मा लमराबेट और अन्य अनेक इस्लामिक स्कॉलर्स ने इस सूरा की व्याख्या करते हुए यह रेखांकित किया है कि यह सूरा स्त्रियों और पुरुषों दोनों के लिए एक समान निर्देश देती है- बहुदेववादी साथी के साथ विवाह का निषेध। इस्लाम के अनेक जानकारों के अनुसार यह निर्देश तत्कालीन परिस्थितियों से संगति रखते हैं जब बहुदेववादियों तथा इस्लाम के अनुयायियों के बीच खूनी संघर्ष चल रहा था।
इस्लामिक स्कॉलर्स का एक समूह यह बताने का प्रयास करता है कि बहुदेववादी गलत ढंग से कमाई गई दौलत और अनैतिक जीवन शैली का प्रतिनिधित्व करते थे जबकि इस्लाम के अनुयायी न्याय और समानता के प्रतिनिधि थे। कुछ विद्वान इस्लाम पर विश्वास करने वाले दास-दासियों को सुंदर, संपन्न और आकर्षक बहुदेववादी स्त्री पुरुषों से बेहतर बताने में प्रगतिशीलता के दर्शन करते हैं। अनेक विद्वान बहुदेववादियों को मूर्तिपूजकों के रूप में परिभाषित करते हैं। इस बात को लेकर भी मतभेद हैं कि विश्वास करने वाले स्त्री पुरुषों से क्या आशय है? क्या इसका आशय यह है कि इस्लाम के अनुयायी स्त्री-पुरुष केवल अपने धर्म के अंदर ही विवाह कर सकते हैं?
व्याख्याकारों का एक बड़ा समुदाय इस बात पर एकमत है कि मुस्लिम पुरुष ईसाई और यहूदी स्त्रियों के साथ विवाह कर सकते हैं क्योंकि वे अहल ए किताब (पीपुल ऑफ द बुक) के अंतर्गत आती हैं। यह व्याख्याकार कुरान की निम्नांकित सूरा को उद्धृत करते हैं –
आज तुम्हारे लिए अच्छी स्वच्छ चीज़ें हलाल कर दी गई और जिन्हें किताब दी गई उनका भोजन भी तुम्हारे लिए हलाल है और तुम्हारा भोजन उनके लिए हलाल है और शरीफ़ और स्वतंत्र ईमानवाली स्त्रियाँ भी जो तुमसे पहले के किताबवालों में से हो, जबकि तुम उनका हक़ (मेहर) देकर उन्हें निकाह में लाओ। न तो यह काम स्वछन्द कामतृप्ति के लिए हो और न चोरी-छिपे याराना करने को।
(अल-माइदा :5)
व्याख्याकार इस बात पर भी एकमत हैं कि मुस्लिम स्त्रियां ईसाई या यहूदी पुरुषों से विवाह नहीं कर सकतीं यद्यपि इस विषय में कुरान में कोई स्पष्ट निर्देश नहीं है। अल-बक़रा की 221वीं सूरा, जहाँ स्त्री और पुरुषों के लिए समान नियमों का उल्लेख करती है वहीं आने वाली सदियों में की गई व्याख्याएं पुरुषों को अन्य एकेश्वरवादी धर्मों की स्त्रियों के साथ विवाह की स्वतंत्रता देती हैं किंतु स्त्रियों के लिए इस प्रकार का विवाह प्रतिबंधित है। इस्लाम के जानकार पुरुषों को मिलने वाले इस विशेषाधिकार के लिए कुरान में आधार तलाशते हैं-
“पति पत्नियों के संरक्षक और निगराँ है क्योंकि अल्लाह ने उनमें से कुछ को कुछ के मुक़ाबले में आगे रखा है, और इसलिए भी कि पतियों ने अपने माल ख़र्च किए है, तो नेक पत्नियाँ तो आज्ञापालन करने वाली होती हैं और गुप्त बातों की रक्षा करती हैं, क्योंकि अल्लाह ने उनकी रक्षा की है। और जो पत्नियां ऐसी हों जिनकी सरकशी का तुम्हें भय हो, उन्हें समझाओ और बिस्तरों में उन्हें अकेली छोड़ दो और (अति आवश्यक हो तो) उन्हें मारो भी। फिर यदि वे तुम्हारी बात मानने लगे, तो उनके विरुद्ध कोई रास्ता न ढूँढो। अल्लाह सबसे उच्च, सबसे बड़ा है।“
(अन-निसा :34)
विद्वानों के अनुसार पति परिवार का मुखिया होने के नाते अपना हुक्म चलाता है लेकिन कोई गैर मुसलमान पति मुस्लिम स्त्री पर हुकूमत करे यह असंभव और अस्वीकार्य है। दूसरे कमजोर और आसानी से बहकाई जा सकने वाली स्त्रियां परधर्मी पुरुषों के साथ रहकर इस्लाम के पालन में कठिनाई का अनुभव कर सकती हैं और इस्लाम को छोड़ने का विचार भी मन में ला सकती हैं जो अस्वीकार्य और दंडनीय है। शरिया कानून के अनुसार यदि कोई मुसलमान पुरुष किसी यहूदी या ईसाई स्त्री से विवाह करता है तो वह स्त्री अपने धर्म का पालन जारी रख सकती है किंतु उनकी संतानों को इस्लाम ग्रहण करना ही होगा। इस्लामिक कानून के अनुसार यदि मुस्लिम पुरुष बहुदेववादी या मूर्तिपूजक स्त्री से विवाह करना चाहता है तो उस स्त्री को अपना धर्म त्याग कर इस्लाम ग्रहण करना ही होगा।
अनेक आधुनिक विद्वानों के अनुसार कुरान के सभी कथनों और आदेशों को सार्वभौमिक महत्व का मानना उचित नहीं है। ब्रिटिश पाकिस्तानी मूल के जियाउद्दीन सरदार अपनी चर्चित पुस्तक रीडिंग द कुरान (2011) में लिखते हैं कि कुरान की आयतें बहुत पहले अवतरित हुई थीं और इनमें कुछ ऐसी हैं जिनका महत्व उसी काल के लिए था जिसमें इनका अवतरण हुआ था। जियाउद्दीन के अनुसार कुरान कानून की पुस्तक नहीं है बल्कि यह उन सिद्धांतों का संग्रह है जिनके आधार पर कानून बनाए जा सकते हैं। हमें कानूनी आवश्यकताओं और नैतिक नियमों के अंतर को समझना होगा। कुरान के नियम केवल यह बताते हैं कि कोई धार्मिक-नैतिक सिद्धांत पैगंबर मोहम्मद साहब के जीवनकाल में सातवीं शताब्दी के अरब की तत्कालीन परिस्थितियों में किस प्रकार क्रियान्वित किया गया था। आज जब परिस्थितियां और संदर्भ पूरी तरह बदल चुके हैं तब उस समय बनाए गए नियम कानून उस मूल सिद्धांत को अभिव्यक्त नहीं कर सकते जिस पर ये आधारित हैं।
दक्षिणावर्त: अदृश्य भय वाला सेकुलरिज्म बनाम फ़र्ज़ी डराने वाला इस्लामोफोबिया
इस्लाम को आधुनिक जीवनशैली के अनुकूल बनाने के इच्छुक चिंतक और विचारक अपने स्तर पर प्रयास कर रहे हैं किंतु जब प्यू इंटरनेशनल की 2013 की द वर्ल्डस मुस्लिम्स: रिलिजन,पॉलिटिक्स एंड सोसाइटी शीर्षक रिपोर्ट बताती है कि इक्का दुक्का अपवादों को छोड़कर लगभग प्रत्येक देश के अधिकांश मुसलमान यह विश्वास करते हैं कि इस्लाम ही एकमात्र सच्चा धर्म है जो मनुष्य को सद्गति प्रदान कर सकता है और यह उनका धार्मिक कर्त्तव्य है कि वे दूसरों को इस्लाम का अनुयायी बनाएं, तब हिन्दू कट्टरपंथियों के तर्कों को अंतरराष्ट्रीय समर्थन मिलता दिखता है।
हम में से बहुत से लोग यह विश्वास करते हैं कि वैश्विक स्तर पर मुसलमानों को निशाना बनाया जा रहा है, उनके विरुद्ध तर्कहीन भय और घृणा का वातावरण बनाया जा रहा है। इस्लामोफोबिया पर हमारे विश्वास के तार्किक आधार भी हैं किंतु क्या जायज आपत्तियों को भी इस्लामोफोबिया कहकर इस्लाम के आधुनिकीकरण का प्रयास बंद कर देना चाहिए और आम मुसलमानों को और अधिक रूढ़िबद्ध होने के लिए प्रेरित करना चाहिए? यह मुस्लिम विद्वानों के लिए चिंतन और आत्ममंथन का विषय हो सकता है। मुस्लिम धर्मगुरुओं और नेताओं पर यह आरोप लगाया जाता है कि वे उत्तरप्रदेश के गैर कानूनी धर्मांतरण विधेयक 2020 का विरोध केवल इस कारण कर रहे हैं क्योंकि वे इस देश में अल्पसंख्यक हैं, अन्यथा यह कानून धार्मिक शुद्धता और वर्चस्व बनाए रखने की उनकी सोच से एकदम संगत है और यदि वे इस देश में बहुसंख्यक होते तो और अधिक सख़्ती से ऐसे कानूनों को लागू करते। क्या आम मुसलमान अपने आचरण से इन आरोपों को गलत सिद्ध करने का इच्छुक है?
कुल मिलाकर यह आसानी से समझा जा सकता है कि चाहे हिन्दू धर्म हो या इस्लाम, दोनों पर पितृसत्ता की छाप है और इनमें जीवन साथी के चयन के विषय में नारी को कोई विशेष स्वतंत्रता उपलब्ध नहीं है। नारी के लिए संबोधन जो भी हों, धार्मिक विमर्श उन्हें पुरुष के अधीन रखने हेतु ही गढ़ा गया है। स्वर्ग की अप्सराओं और जन्नत की हूरों को गढ़ने वाला धार्मिक विमर्श नारियों के साथ किस प्रकार न्याय कर सकता है? हिन्दू कट्टरपंथी देश की सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था को धर्म के द्वारा संचालित करना चाहते हैं। रूढ़िवादी मुसलमानों में भी अपने धार्मिक कानूनों के प्रति गहरी आस्था है और वे केवल अपने ही धर्म को सम्पूर्ण और सर्वश्रेष्ठ मानते हैं। आज जब हमारा लोकतंत्र तीन चौथाई सदी पुराना होने जा रहा है तब हम अपने समाज को धर्म संचालित बंद तंत्र में बदल रहे हैं। हम यह मान रहे हैं कि वे अल्प बुद्धि, कमजोर नारियां ही हैं जो हमारी धार्मिक शुद्धता को खतरे में डाल सकती हैं। कुछ भयभीत कट्टरपंथी अपने धर्म की शुद्धता बचाए रखने के लिए नारियों पर पाबंदियां लगा रहे हैं।
विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में यह घटनाएं तब हो रही हैं जब विश्व के सबसे पुराने लोकतंत्र में कमला हैरिस उपराष्ट्रपति निर्वाचित हुई हैं और नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडन सत्ता के संचालन सूत्र महिलाओं को सौंपने की बात कर रहे हैं। खतरा जितना नारियों पर है, उससे कहीं अधिक लोकतंत्र पर है। अनंत अमर आख्यानों की रचना का स्रोत वह पवित्र प्रेम भी खतरे में है जो नस्ल, जाति, धर्म, रंग, राष्ट्र और उम्र के बंधनों को मानने से इनकार करता है।
डॉक्टर राजू पांडे छत्तीसगढ़ के रायगढ़ स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं