भारत की शिक्षा व्यवस्था को देश की रीढ़ कहा गया है, क्योंकि शिक्षा ही वह माध्यम है जिससे एक व्यक्ति न केवल ज्ञान प्राप्त करता है, बल्कि समाज, संस्कृति, मूल्य, और उत्तरदायित्व को भी समझता है। शिक्षकों की भूमिका इस संपूर्ण व्यवस्था में अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि वे केवल पाठ्यक्रम नहीं पढ़ाते, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों का निर्माण करते हैं। किंतु आज शिक्षा व्यवस्था अनेक चुनौतियों से जूझ रही है और विशेष रूप से शिक्षक वर्ग अनेक समस्याओं का सामना कर रहा है।
भारत की शिक्षा व्यवस्था में बीते दशकों में कई सुधार हुए हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 जैसे प्रयासों ने नई दिशा देने की कोशिश की है। डिजिटल शिक्षा, कौशल-आधारित पाठ्यक्रम, और मूल्य शिक्षा को बढ़ावा देने के प्रयास हो रहे हैं। फिर भी वास्तविकता यह है कि शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच भारी असमानता है। स्कूलों की अवस्थापना सुविधाएँ, शिक्षकों की संख्या, डिजिटल संसाधनों की उपलब्धता आदि क्षेत्रों में भारी अंतर है।
बहुत से राज्यों में शिक्षकों को समय पर वेतन नहीं मिलता। संविदा शिक्षकों की स्थिति और भी दयनीय है। उन्हें स्थायी नौकरी की गारंटी नहीं होती और वे न्यूनतम वेतन पर कार्य करते हैं। साथ ही, महँगाई के इस दौर में वेतन संरचना अपर्याप्त सिद्ध हो रही है। शिक्षकों से पढ़ाने के अलावा अनेक गैर-शैक्षणिक कार्य करवाए जाते हैं, जैसे जनगणना, चुनाव ड्यूटी, मध्यान्ह भोजन की निगरानी आदि। इससे उनकी शैक्षणिक गुणवत्ता और शिक्षण में समय प्रभावित होता है। नई तकनीक और शैक्षिक पद्धतियों के अनुरूप शिक्षकों का पुनः प्रशिक्षण (retraining) नहीं हो रहा है। बहुत से शिक्षक डिजिटल उपकरणों के प्रयोग में दक्ष नहीं हैं, जिससे ऑनलाइन शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित होती है।
पहले शिक्षक को ‘गुरु’ का दर्जा प्राप्त था, परंतु आज समाज में शिक्षकों का सम्मान धीरे-धीरे घट रहा है। विद्यार्थी, अभिभावक और प्रशासन तीनों से अपेक्षित सहयोग और सम्मान का अभाव है। विद्यालयों में कई बार शिक्षकों को ऐसे छात्रों से जूझना पड़ता है जो अनुशासनहीन होते हैं। इसके अलावा परीक्षा परिणाम, बोर्ड के दिशा-निर्देश और सरकारी लक्ष्य प्राप्ति का अतिरिक्त दबाव भी शिक्षक पर पड़ता है। अत्यधिक परीक्षा केंद्रित शिक्षा: सोचने-समझने की स्वतंत्रता की जगह अंक पाने की होड़ ने शिक्षा को रटंत प्रणाली बना दिया है। कई बार सरकार की योजनाएँ अच्छी होती हैं, पर उनका क्रियान्वयन कमजोर होता है।
भारत की शिक्षा व्यवस्था और शिक्षक दोनों समाज के विकास के मूल स्तंभ हैं। यदि शिक्षक को उचित सम्मान, सुविधाएँ, और स्वतंत्रता दी जाए, तो वह अपने कर्तव्यों का निर्वहन अधिक प्रभावी ढंग से कर सकेगा। हमें यह समझना होगा कि एक सशक्त शिक्षक ही सशक्त राष्ट्र का निर्माता होता है। इसलिए शिक्षा व्यवस्था की मजबूती का पहला कदम शिक्षकों की समस्याओं का समाधान ही होना चाहिए।
शिक्षक किसी भी समाज की आत्मा होते हैं। वे न केवल ज्ञान का संचार करते हैं, बल्कि समाज की दिशा और दशा को भी निर्धारित करते हैं। शिक्षा केवल परीक्षा पास करने का माध्यम नहीं है, बल्कि यह मानवता, नैतिकता और सामाजिक उत्तरदायित्व का बोध कराने वाला माध्यम भी है। इस संदर्भ में शिक्षक की भूमिका एक युगनिर्माता की होती है, जिसका प्रभाव पीढ़ियों तक बना रहता है। प्राचीन भारतीय संस्कृति में शिक्षक को “गुरु” कहा गया है, जो अज्ञान रूपी अंधकार से मुक्ति दिलाने वाला होता है। एक शिक्षक समाज की बुनियाद मजबूत करता है। वह विद्यार्थियों को केवल किताबी ज्ञान नहीं देता, बल्कि उन्हें सोचने, समझने और समाज के प्रति सजग रहने की प्रेरणा देता है। शिक्षक एक ऐसा दीपक है जो स्वयं जलकर दूसरों के जीवन को प्रकाशमय बनाता है।
आज का समाज जिस नैतिक संकट से गुजर रहा है, उसमें शिक्षक की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है। वह विद्यार्थियों में सत्य, करुणा, अहिंसा, ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा जैसे मूल्यों का विकास करता है। शिक्षक का कर्तव्य है कि वह अपने आचरण से नैतिकता का उदाहरण प्रस्तुत करे और विद्यार्थियों को भी उस मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करे।
शिक्षक समाज में व्याप्त असमानताओं—जैसे जातिवाद, लिंग भेद, आर्थिक विषमता आदि—के विरुद्ध जागरूकता फैलाने वाला साधन बन सकता है। वह शिक्षा को समावेशी बनाकर विद्यार्थियों में समानता, सामाजिक न्याय और मानवाधिकारों की भावना का विकास करता है। इससे समाज अधिक संतुलित और न्यायपूर्ण बनता है। एक शिक्षक की भूमिका केवल विद्यालय तक सीमित नहीं होती। वह समाज के व्यापक कार्यों—जैसे महिला सशक्तिकरण, पर्यावरण सुरक्षा, स्वच्छता अभियान, स्वास्थ्य जागरूकता आदि—में भी सक्रिय भाग ले सकता है। ऐसा करके शिक्षक समाज में एक आदर्श और प्रेरणास्रोत के रूप में स्थापित होता है। शिक्षक को बाल अधिकारों के प्रति भी जागरूक रहना चाहिए। उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसके विद्यार्थियों को किसी प्रकार का शोषण या भेदभाव न सहना पड़े। बाल श्रम, बाल विवाह और लैंगिक असमानता जैसे मुद्दों पर शिक्षक की सजग दृष्टि और सक्रिय भूमिका समाज में बड़े परिवर्तन ला सकती है।
शिक्षक विद्यार्थियों को उनके सांस्कृतिक मूल्यों और परंपराओं से जोड़ने का कार्य करता है। वह भाषा, लोककला, त्योहारों, और ऐतिहासिक परंपराओं को सम्मान दिलाता है। इससे समाज अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़ा रहता है और वैश्वीकरण की दौड़ में अपनी पहचान नहीं खोता। भारत एक लोकतांत्रिक देश है और इस व्यवस्था की रक्षा के लिए नागरिकों में लोकतांत्रिक मूल्यों की समझ होना आवश्यक है। शिक्षक विद्यार्थियों को समानता, स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता और भाईचारे जैसे संविधानिक सिद्धांतों से परिचित कराता है और उन्हें व्यवहार में उतारने की प्रेरणा देता है। शिक्षक अपने विद्यार्थियों में नेतृत्व क्षमता, निर्णय लेने की शक्ति, संवाद कौशल और समस्या समाधान की क्षमता का विकास करता है। यह गुण उन्हें भविष्य में समाज का नेतृत्व करने और उसमें सकारात्मक परिवर्तन लाने की दिशा में समर्थ बनाते हैं।
शिक्षक का कार्य केवल पढ़ाना नहीं है, बल्कि समाज को जागरूक, संवेदनशील, नैतिक और सशक्त बनाना भी उसका दायित्व है। यदि शिक्षक अपने सामाजिक कर्तव्यों को निष्ठा, संवेदनशीलता और समर्पण के साथ निभाए, तो समाज न केवल शिक्षित होगा, बल्कि संस्कारित और समृद्ध भी बनेगा। ऐसे शिक्षक ही एक सशक्त राष्ट्र और समतामूलक समाज के वास्तविक निर्माता होते हैं। “एक शिक्षक की समाज में भूमिका किसी दीपक की तरह है, जो स्वयं जलता है और दूसरों के जीवन में उजाला करता है।”
शिक्षक केवल ज्ञान का दाता नहीं होता, बल्कि वह समाज के निर्माण का प्रमुख स्तंभ होता है। उसका कर्तव्य न केवल विद्यार्थियों को पढ़ाना है, बल्कि उन्हें एक उत्तरदायी नागरिक बनाना भी है। एक अच्छा शिक्षक समाज में नैतिक मूल्यों, सहिष्णुता और समानता की भावना का बीजारोपण करता है। भारतीय संस्कृति में शिक्षक को “गुरु” कहा गया है, जो माता-पिता के बाद सबसे अधिक सम्मान का पात्र होता है। सामाजिक दृष्टि से शिक्षक वह दीपक है जो अज्ञान रूपी अंधकार को मिटाकर समाज को प्रकाशमान करता है। उसके विचार, व्यवहार और कार्य समाज पर गहरा प्रभाव डालते हैं। आज के यांत्रिक और प्रतियोगितात्मक युग में नैतिक मूल्यों का ह्रास होता जा रहा है। शिक्षक का सामाजिक कर्तव्य है कि वह विद्यार्थियों को सत्य, अहिंसा, करुणा, और अनुशासन जैसे गुणों से परिचित कराए। एक शिक्षक की शिक्षा केवल किताबी ज्ञान तक सीमित नहीं होनी चाहिए। एक शिक्षक को समाज में व्याप्त असमानता, जातिवाद, लिंगभेद आदि के खिलाफ जागरूकता फैलानी चाहिए। उसका दायित्व है कि वह अपने विद्यार्थियों को समावेशी और न्यायप्रिय दृष्टिकोण अपनाने की प्रेरणा दे ताकि वे सबके लिए समान अवसर के पक्षधर बनें।
शिक्षकों को स्कूल की चारदीवारी से बाहर निकलकर ग्रामीण विकास, महिला सशक्तिकरण, स्वच्छता अभियान, पर्यावरण संरक्षण जैसे सामाजिक कार्यों में भी सक्रिय भाग लेना चाहिए। इससे वे समाज में प्रेरक व्यक्तित्व के रूप में उभरते हैं। शिक्षक का सामाजिक कर्तव्य यह भी है कि वह बाल श्रम, बाल विवाह, लैंगिक भेदभाव जैसे मुद्दों पर आवाज़ उठाए और विद्यार्थियों को उनके अधिकारों के प्रति सजग करे। वह बच्चों की आवाज़ बनकर उनके सर्वांगीण विकास के लिए प्रयत्न करे। शिक्षक स्थानीय और राष्ट्रीय संस्कृति, परंपरा तथा भाषा को जीवित रखने में सहायक होता है। वह विद्यार्थियों को उनकी सांस्कृतिक पहचान से जोड़ता है और विविधता में एकता की भावना को बल देता है, जिससे सामाजिक समरसता को बढ़ावा मिलता है।
एक शिक्षक को विद्यार्थियों में लोकतंत्र, समानता, स्वतंत्रता, और धर्मनिरपेक्षता जैसे संविधानिक मूल्यों का विकास करना चाहिए। इससे विद्यार्थी न केवल अच्छे छात्र बनते हैं, बल्कि समाज के जागरूक नागरिक भी बनते हैं। शिक्षक समाज को ऐसे नेतृत्वकर्ताओं की नई पीढ़ी देता है जो राष्ट्रहित में सोचते हैं। वह विद्यार्थियों में नेतृत्व क्षमता, संवाद कौशल, और निर्णय लेने की योग्यता विकसित करता है जिससे वे सामाजिक बदलाव के अग्रदूत बन सकें। इस प्रकार, शिक्षक का कार्य केवल विद्यालय में सीमित नहीं है। उसका व्यापक सामाजिक कर्तव्य है — समाज में नैतिकता, संवेदनशीलता और विवेक को बनाए रखना। यदि शिक्षक अपने सामाजिक दायित्वों को पूर्ण निष्ठा और ईमानदारी से निभाए, तो न केवल शिक्षा व्यवस्था सशक्त होगी, बल्कि समाज भी स्वस्थ, समतामूलक और उन्नतिशील बनेगा।
