संसद के मानसून सत्र के छठे दिन राहुल गांधी द्वारा लोकसभा में दिए भाषण ने संसदीय राजनीति को एक ऐसे मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया जहां सवालों की धार सत्ता की सतह को चीरती तो दिखी, लेकिन विपक्ष का प्रतिरोध संवाद से ज्यादा आरोप की भाषा में बदलता गया।
मंगलवार की शाम लगभग पांच बजे राहुल गांधी जब लोकसभा में बोलने के लिए खड़े हुए तब उनका चेहरा शांत था, लेकिन स्वर में एक लंबी चुप्पी के टूटने से पहले उपजी व्यग्रता थी। उन्होंने पहलगाम में हुए हमले से अपनी बात शुरू की। राहुल गांधी के अनुसार यह हमला केवल एक आतंकी घटना नहीं, बल्कि एक अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र की उपज था जिसकी जड़ें इस्लामाबाद से वॉशिंगटन तक फैली हैं। उन्होंने सीधे तौर पर पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल आसिम मुनीर पर आरोप लगाया कि हमला उनके इशारे पर हुआ।
यह आरोप नया नहीं है। भारत में होने वाली आतंकी घटनाओं के पीछे पाकिस्तान की भूमिका की बात तो वर्षों से होती रही है, लेकिन नया यह था कि उन्होंने इस संदर्भ को अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के साथ जोड़ दिया। उन्होंने कहा, ‘मुनीर, ट्रम्प के साथ लंच पर बैठा था, जहां हमारे प्रधानमंत्री तक नहीं जा सकते।‘ राहुल गांधी ने आगे कहा, ‘अमेरिका ने अपने सारे प्रोटोकॉल तोड़ दिए और भारत के प्रधानमंत्री चुप हैं।‘
यह बयान न केवल राजनयिक लकीरों को तोड़ता है, बल्कि अंतरराष्ट्रीय सत्ता समीकरणों में एक गंभीर आरोप को भी स्थापित करता है। अमेरिका में जनरल मुनीर की उपस्थिति यदि कोई संकेत देती है, तो वह अमेरिका की दक्षिण एशियाई नीति में हो रहा बदलाव है जो भारत के नियंत्रण से बाहर है। इस स्थिति में भारत को अपनी विदेश नीति में केवल भावनात्मक जवाबों से काम नहीं लेना चाहिए, बल्कि रणनीतिक धैर्य और व्यावहारिक कूटनीति के साथ आगे बढ़ना होगा।
राहुल गांधी का पूरा भाषण यहां सुनें
राहुल गांधी का भाषण आंकड़ों से नहीं, सवालों से भरा हुआ था। वे बार-बार पूछ रहे थे, ‘अगला आतंकी हमला होगा, तब आप क्या करेंगे?’ यह प्रश्न मात्र भविष्य के प्रति आशंका नहीं, बल्कि संस्थागत विफलता का संकेत भी था। क्या भारत की सुरक्षा नीति, खुफिया तंत्र, और विदेश नीति जटिल भू-राजनीतिक घटनाक्रम से निपटने के लिए तैयार हैं?
इन सवालों के बीच शायद सबसे प्रभावशाली बात उनका यह कहना था कि‘हमारी लड़ाई सत्ता से नहीं, अन्याय से है।‘ ऐसा कह के उन्होंने राजनीतिक विमर्श को उस ज़मीन पर खड़ा कर दिया जहां सत्ता की आलोचना केवल दलगत नहीं होती, बल्कि एक नैतिक जरूरत बन जाती है। इसी कड़ी में राहुल ने कहा, ‘हम उस भारत के साथ खड़े हैं जिसे आपने भुला दिया है। वो भारत जो खेत में काम करता है, फैक्ट्री में मज़दूरी करता है, और जिसकी थाली आज खाली है।‘ यह सरकार की नीतिगत आलोचना नहीं थी, बल्कि उस संवेदनात्मक राजनीति की पुकार थी जो लंबे समय से भारतीय संसद में अनुपस्थित है।
राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लक्षित करते हुए कहा, ‘आप हर महीने ‘’मन की बात’’ करते हैं, लेकिन कभी जनता की बात नहीं सुनते।‘ यह वाक्य अपनी सादगी में घातक था। ‘मन की बात’ एकतरफा संवाद का रूपक है, जिसमें सत्ता जनता से बोलती है, लेकिन सुनती नहीं। इशारा स्पष्ट था। प्रधानमंत्री संवाद करते हैं, लेकिन संवाद का लोकतांत्रिक मिजाज नहीं रखते। यह आरोप कोई पहली बार नहीं लगा, लेकिन राहुल गांधी इसे आमजन की भाषा में रखकर लोकतंत्र में असहमति की गुंजाइश की पुनर्स्थापना कर रहे थे।
राहुल गांधी के भाषण में सबसे विवादास्पद मोड़ तब आया जब उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी की तुलना पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से की, ‘क्या मोदी जी में वह हिम्मत है जो इंदिरा गांधी में थी, जब उन्होंने अमेरिका के सातवें बेड़े की धमकी को ठुकरा दिया और बांग्लादेश बना दिया?’ इस सवाल में कई अदृश्य सतहें हैं- पारिवारिक उत्तराधिकार का गौरव, एक ऐतिहासिक स्मृति, और शीर्ष नेतृत्व की कूटनीतिक आलोचना। यह पूछना कि मोदी क्या ट्रम्प से कह सकते हैं कि ‘तुम झूठे हो’, उन्हें सीधी चुनौती है लेकिन इसमें एक संकेत भी है, कि कूटनीति की भाषा में भारत को अब और अधिक मुखर व स्वाभिमानी होना चाहिए।
राहुल गांधी के सवाल उन वर्गों की ओर इशारा करते हैं जिन्हें नीतिगत विमर्श से बाहर कर दिया गया है। ये इस देश के किसान, युवा, महिला, मज़दूर हैं, जिनके भीतर असंतोष है। उस असंतोष को अगर संसद में स्वर नहीं मिलेगा, तो वह कहीं और फूटेगा। इसीलिए राहुल गांधी का भाषण एक गंभीर और सटीक चेतावनी है- ऐसी चेतावनी जो लोकतंत्र की आत्मा को झकझोरती है। यह भाषण उस मूलभूत सच की याद दिलाता है कि भारत एक ऐसा लोकतंत्र है जहां सवाल पूछना केवल विपक्ष का अधिकार नहीं, पूरे समाज की चेतना का अंग है।
यदि भारत सच में एक जीवंत लोकतंत्र है, तो उसे राहुल गांधी के उठाए सवालों को सुनना और समझना चाहिए। सत्ता जब सवालों से डरने लगे, तो वह संवादहीनता और आत्ममुग्धता की दिशा में बढ़ती है। लोकतंत्र का क्षरण वहीं से प्रारंभ होता है।
(लेखक बेंगलुरु स्थित मैनेजमेंट प्रोफेशनल, साहित्य समीक्षक और क्यूरेटर हैं। संपर्क: ashutoshthakur@gmail.com)