बीड़ियाँ सुलग रहीं हैं, फेफड़े दम भर रहे हैं, जिंदगी मौत के करीब जा रही है पर कोई रुकने को तैयार नहीं. न पीने वाले न ही पिलाने वाले! बीड़ी पीना अपनी पसंद है पर बीड़ी बनाते रहना मजदूरों की मजबूरी. क्योंकि यह एक ऐसा दलदल है जहां से निकलने का रास्ता दिखाई नहीं देता. सीधे अल्फाजों में कहें तो जितना दम बीड़ी पीने वाले का घुट रहा है उतना ही बीड़ी बनाने वाले मजदूर का भी. पीने वाला आदतन मजबूर है और बनाने वाला अपनी आजीविका और हालात से मजबूर.
टोबैको कंट्रोल में छपे अध्ययन के मुताबिक भारत में बीड़ी बड़े चाव से पी जाती है. 15 साल की उम्र तक पहुंचते हुए अधिकांश बच्चे बीड़ी पीना सीख जाते हैं और फिर आगे चलकर वे ही सिगरेट के आदी हो जाते हैं या बनाया जाता है. अध्ययन बताता है कि धूम्रपान करने वालों में 81 फीसदी लोग बीड़ी पीते हैं.
साल 2018 की रिपोर्ट बताती है कि देश में इन लोगों की संख्या 7.2 करोड़ है. जाहिर सी बात है कि यह संख्या हर साल बढ़ रही है. केरल में सेंटर फॉर पब्लिक पॉलिसी रिसर्च के शोधकर्ता कहते हैं कि-
बीड़ी में पारंपरिक सिगरेट की तुलना में कम तंबाकू होती है लेकिन इसमें निकोटिन की मात्रा कहीं अधिक होती है जो जानलेवा है। बीड़ी के मुंह का सिरा कम जलता है और इस कारण धूम्रपान करने वाला व्यक्ति अपने शरीर में अधिक केमिकल्स सांस के जरिये ले जाता है, कुल मिलाकर यह जानलेवा है.
पर वो कहते हैं ना… शौक बड़ी चीज है! पर शौक से कंपनी और सरकार दोनों को फायदा हो तो ना! शराबबंदी के बाद न तो शराब की सप्लाई बंद होती है और बीड़ी से ख़राब हो रहे फेफड़े के बाद भी बीड़ी का कारोबार परवान चढ़ता गया.
बीड़ी से 2016-17 में 4.17 अरब रुपए का राजस्व प्राप्त हुआ था. साल 2018-19 में यह बढ़कर 6.12 अरब हो गया. यानि देश तरक्की पर है…! खैर मसला ये नहीं कि बीड़ी से किसे कितना नुकसान या फायदा है. असल दिक्कत है बीड़ी बनाने वालों की. जो ना तो इस जाल से बाहर आ पा रहे हैं ना उनके पास तक कोई ऐसी सुविधा पहुंच रही है कि वे राहत महसूस कर सकें.
ग्रामवाणी ने हाल ही में बिहार के जमुई, गिद्धौर, मुंगेर, समस्तीपुर, सीतामढ़ी, वैशाली, पश्चमी चंपारण समेत कई जिलों में “बीड़ी मजदूर और सुलगते सवाल” अभियान चलाया. इस अभियान के तहत दर्जनों मजदूरों ने अपनी व्यथा सामने रखी. यह अभियान उनके लिए अहम था क्योंकि इसके पहले कोई भी उन तक नहीं पहुंचा था.
महिलाओं के कंधे पर है जिम्मेदारी ज्यादा
बीड़ी बनाने का काम आमतौर पर पिछड़े क्षेत्रों के गरीब परिवार करते हैं. यानि जहां स्थाई रोजगार की कोई व्यवस्था नहीं है. ऐसे मामले में लगभग हर राज्य के पिछड़े जिले शामिल हैं. बीड़ी बनाने का काम करने वालों में महिलाओं की सबसे ज्यादा हिस्सेदारी है. सही मायनों में कहें तो इस उद्योग की नींव ही महिला मजदूर हैं.
बीड़ी मजदूरों में महिलाओं की हिस्सेदारी की बता करें तो, आंध्र प्रदेश में (95%), कर्नाटक में (91%), तमिलनाडु में (84%) और पश्चिम बंगाल में (84%), बिहार में (85%), झारखंड में (74%) है.
कम मजदूरी, अनिश्चित काम के घंटे, व्यवस्थागत शोषण, सामाजिक सुरक्षा का अभाव और विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं तक सीमित पहुंच के कारण, महिला बीड़ी मजदूरों की स्थिति ख़राब है. जमुई जिले के गिद्धौर प्रखंड के केवाल गांव की रहने वाली ललिता देवी से जब मोबाइल वाणी के समन्वयक रंजन कुमार के पूछने पर बताती हैं कि-
10 साल से बीड़ी बनाने का काम कर रहे हैं लेकिन कभी कोई हमारी खबर लेने नहीं आया. ठेकेदार तेंदूपत्ता दे देता है और हम बीड़ी बना देते हैं. कितनी सारी अच्छी बीड़ी होती हैं पर वो खराब कहकर अलग कर देता है और मजदूरी काट लेता है. हजार बीड़ी बनाते हैं तब जाकर 70 रूपए मिलते हैं. ललिता अकेली इस शोषण का शिकार नहीं है बल्कि अधिकांश महिला मजदूरों की समस्या यही है.
कमी का हवाला देकर ठेकेदार बीड़ी रिजेक्ट कर देते हैं. रोजगार खोने के डर से महिलाएं शिकायत नहीं करती हैं और बात वहीं खत्म हो जाती है. यह सब सालों से होता चला आ रहा है.
10 साल से बीड़ी बना रहीं रिंकू देवी कहती हैं कि-
कुछ नहीं बदला है, हालात कल भी वही थे अब भी वही हैं. औरतें घर का सारा काम करके, बच्चों को सम्हालते हुए बीड़ी बनाती रहती हैं और बदले में ऐसी मजदूरी भी नहीं कि जरूरतें पूरी हो सकें.
जब बीड़ी मजदूरों से बात करने के लिए संवाददाता उनकी बस्तियों में पहुंचे तो नजारा बदतर था. हालात के मारे ये मजदूर अत्यंत खराब स्थिति में बीड़ी बनाते हैं. मजदूरों के घरों के चारों ओर गंदगी और सड़ते तेंदू पत्तों के ढेर वातावरण को बोझिल बना रहे हैं. सीलन भरी झोपड़ी के अन्दर तेल की ढि़बरी की रोशनी में देर रात तक बीड़ी बनाने का काम किया जाता है, तब जाकर घर के लोगों की भूख मिट पाती है. ‘बीड़ी नहीं बनाओ तो खेओ का’ यानी खायेंगे क्या? ऐसा कहते हुए मौरा पंचायत की मोना देवी कहती हैं कि ये काम करते हुए 20 साल हो गए. मजदूरी के नाम पर 10- 20 रुपए बढ़ाएं हैं बस, बाकी सब जैसा का तैसा है.
बीड़ी निर्माण में श्रम की भागीदारी बहुत ज्यादा है. जहाँ कुल मजदूरों का लगभग 96% घर पर काम करता है, 4% लोग कारखानों में काम करते हैं. घर पर काम करने वालों में 84% महिलाएँ हैं. इनमें से लगभग 80% ग्रामीण क्षेत्रों में रहते हैं.
ए एफ डेवलपमेंट केयर (AFDC), नई दिल्ली के शोध अध्ययन के अनुसार, भारत का असंगठित बीड़ी उद्योग 64 लाख से अधिक मजदूरों को रोजगार देता है. इसमें से 50 लाख महिलाएँ, बहुत कम मजदूरी के बावजूद, इस खतरनाक व्यवसाय में अपनी इक्षा के विरुद्ध काम करती हैं. विश्व मजदूर संगठन अपनी इक्षा के विरुद्ध काम करने वालों को बंधुआ मजदूरी की श्रेणी में पहचान करती है, अब हम अपने देश के मानव सूचकांक का खुद ही अंदाज़ा लगा सकते हैं.
कहां हैं सरकार और उसकी योजनाएं?
अब बात करें उन लुभावनी योजनाओं की जिन्हें सरकार ने गरीबों के लिए लांच किया तो उसकी भनक तक बीड़ी मजदूरों को नहीं है. ग्रामवाणी पर आए इंटरव्यू में 95 फीसदी लोगों ने यही कहा कि उनके पास बीड़ी श्रमिक कार्ड नहीं हैं. इनमें से अधिकांश लोगों को तो ये भी नहीं पता कि बीड़ी श्रमिक कार्ड नाम की भी कोई चीज होती है. बिहार राज्य सरकार ने बीड़ी श्रमिकों के लिए सरकारी कार्ड बनवाने का प्रावधान रखा है जिसके आधार पर उन्हें चिकित्सा का लाभ और वेतन संबंधित लाभ दिए जाते हैं. इन्ही कार्ड के आधार पर मजदूरों के बच्चों के लिए सरकारी स्कूल में स्कॉलरशिप की भी व्यवस्था है पर ये सब केवल कागजों पर. क्योंकि जब कार्ड ही नहीं बने तो सुविधाएं कहां से मिले?
बीड़ी मजदूर गरीब तबके से हैं, गरीबी रेखा के नीचे गुजर बसर कर रहे हैं इसलिए इन्हें भी आयुष्मान भारत, इंदिरा आवास योजना, नि:शुल्क राशन, राशन कार्ड, मनरेगा और शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाएं मिलना चाहिए पर हकीकत क्या है? विशुनपुर से दुलारी बताती हैं कि
25 साल से बीड़ी बना रहे हैं पर अब तक कार्ड नहीं बना. उनके लिए कोई संगठन है इसका भी नहीं पता. राशन कार्ड की शक्ल तक नहीं देखी. सरकार का मुफ्त अनाज ना तो लॉकडाउन के दौरान दुलारी को मिला ना उसके बाद.
यही हाल मौरा पंचायत से सुगनिया देवी और उसकी साथी महिलाओं का भी है. सुगनिया कहती हैं कि-
सरकारी योजना के बारे में बस सुनते हैं लेकिन ये नहीं पता कि हमें कैसे मिलेंगी? कभी किसी ने बताया भी नहीं. गांव के मुखिया और कारखाने के ठेकेदार भी कुछ नहीं बताते. बस बीड़ी बनाकर जो कमाई हो रही है उसी से घर चल रहा है.
नीतू कुमारी बताती हैं कि बीड़ी बनाते हैं, किसी तरह घर चल जाता है. कभी नि:शुल्क राशन नहीं मिला. राशन कार्ड के लिए कितनी बार मुखिया जी से बात किए पर कुछ नहीं होता. बीड़ी कार्ड के बारे में तो आप ही लोग से सुने हैं बाकी तो नहीं पता. बस चल रहा है सब…ऐसे ही.
इन मजदूरों के साथ एक और दिक्कत है, वो है इनके स्वास्थ्य की. बिहार में इकलौता बीड़ी श्रमिक अस्पताल नालंदा में है पर वहां भी दवाओं के नाम पर कुछ नहीं है. मोहम्मद बरकत अली बताते हैं कि एक अस्पताल है इनके जिले में, वहां तक जाने-आने में ही बीड़ी मजदूर का एक दिन का मेहनताना चला जाता है. अस्पताल में डॉक्टर नहीं हैं, दवाएं नहीं हैं. अगर प्राइवेट डॉक्टर के पास जाएं तो फीस ज्यादा है और फिर आखिरी में वो लोग यही कहते हैं कि बीड़ी बनाना बंद कर दो. पर अगर ये काम बंद कर देंगे तो खाएंगे क्या?
जमुई, गिधौर के पुर्वी गुगुलडीह पंचायत के केवाल गाँव से उषा देवी कहती हैं कि-
20 साल से बीड़ी बना रहे हैं, अब तो आंखों से दिखना कम हो गया है. तंबाकू के कारण सांस लेने में तकलीफ होती है. दिनभर खांसते रहते हैं. घर के बच्चों पर भी इसका असर हो रहा है.
बीड़ी निर्माण के लिए सबसे अच्छा पत्ता छोटे पेड़ का माना जाता है क्योंकि यह ज्यादा मुलायम होता है और इससे पतली और सुन्दर बीड़ी बनती है. इस पत्ते का स्वाद तम्बाकू के पत्ते से मेल खाता है. बीड़ी बनाने के दौरान मजदूर एक ही मुद्रा में लगातार दस से बारह घंटे बैठा रहता है, जिसके कारण कमर दर्द, हाथ-पैर के जोड़ों में जकडऩ और गर्दन में दर्द, पाचन तंत्र की समस्या के साथ जर्दे की धौंस आंखों पर कुप्रभाव डालती है और नथुनों से फेंफड़ों में घुसकर श्वसनतंत्र को भी प्रभावित करके जानलेवा तपेदिक का संक्रामक रोग बांटती है. विशेष बजट प्रावधान के अभाव में, GST लागू होने के बाद, कल्याण-सम्बन्धी खर्च पर गंभीर प्रभाव पड़ा.
वर्ष 2017-18 में, सरकार के वार्षिक 21420 अरब रुपये के बजट में 174.62 करोड़ रूपए बीड़ी श्रमिकों के कल्याण के लिए आवंटित किए गए थे. 2017-18 के बाद से अब तक बीड़ी श्रमिकों के लिए कोई विशेष बजटीय आवंटन नहीं किया गया है. अब बजट सत्र चल रहा है क्या इन श्रमिकों के लिए कुछ खास होगा कहना मुश्किल है.
विशेषज्ञों के सुझाव
ऐसा नहीं है कि ये दिक्कतें आज पैदा हुई हैं. बीड़ी बनाने वाले श्रमिक सालों से ये सब झेल रहे हैं. दिक्कत ये भी है कि बीड़ी उद्योग बाकी श्रमिक क्षेत्रों की तरह असंगठित श्रमिक क्षेत्रों में गिना जाता है. यानि बीड़ी श्रमिक हैं, लाखों की तादाद में हैं पर वे संगठित नहीं हैं. संगठन की अपनी ताकत होती है. सरकारी महकमों में अकेले चप्पल घिसना और संगठित होकर एक आवाज बुलंद करने में जमीन आसमान का फर्क होता है. लेकिन अब तो नए श्रमिक कानून में संगठित मजदूरों को भी असंगठित जैसा ही बना दिया है आगे क्या कहें अब बस इनके दम तोड़ने का इंतज़ार करें, लेकिन इनके हत्यारे का पता न तो सरकार लगा पाएगी और न ही हमारा न्यायालय.
बीड़ी श्रमिकों के लिए काम करने वाला कोई प्रमुख संगठन अब तक सामने नहीं आया है. ये बिखरे हुए हैं. सभी तरह के असंगठित क्षेत्र के ज्यादातर लोगों को बहुत कम पैसा दिया जाता है. संगठित क्षेत्र में, 1% महिलाओं को और 20 फीसदी पुरुषों को मासिक भुगतान किया जाता है, बाकी को मद (माल की संख्या) के आधार पर. भारत के ज्यादातर हिस्सों में, उन्हें प्रति 1,000 बीड़ी, 72.94 रुपये की निर्धारित दर की बजाए औसतन 66.81 रुपये का भुगतान किया जाता है. इन मजदूरों की हालत खराब हो रही है चूंकि उनके पास कोई लिखित अनुबंध नहीं है.
एक अध्ययन में राष्ट्रीय स्तर पर पंजीकृत बीड़ी फर्मों में महिलाओं (126 रुपये) और पुरुषों (266 रुपये) के बीच वेतन में 140 रुपये का दैनिक अंतर पाया गया. संगठित क्षेत्र के 47% की तुलना में, असंगठित क्षेत्र में 94% महिलाएँ किसी भी सामाजिक सुरक्षा लाभ के लिए पात्र नहीं हैं. लेकिन बीड़ी निर्माता भारी मुनाफा कमाते हैं।
वर्ष 2017-18 में, बीड़ी की घरेलू खपत 260 अरब बीड़ी या 10.4 अरब पैकेट थी, जिसकी कीमत 156 अरब रुपये थी, जिससे सरकार को 25 अरब रुपये का राजस्व प्राप्त हुआ. फिर भी, भारत में यह सबसे आम प्रयोग होने वाला तम्बाकू-धूम्रपान उत्पाद काफी हद तक कर-मुक्त रहता है.
अध्ययन के प्रमुख शोधकर्ता, साची सत्पथी कहते हैं –
क्योंकि मालिक बहुत बड़ा लाभ कमाते हैं, इसलिए सरकार को चाहिए कि अल्पकालिक उपायों के रूप में तत्काल घर-आधारित बीड़ी बनाने के मजदूर, उसके बच्चों और परिवार पर प्रभाव का आंकलन करे और उसके आधार पर मजदूरी, सुरक्षा-व्यवस्था को लेकर एक स्पष्ट दिशानिर्देश तैयार करे.
विशेषज्ञ सलाह देते हैं कि मजदूरों के हितों को बढ़ावा देने के लिए, ठेकेदारों की भूमिका फिर से परिभाषित की जानी चाहिए.
AFDC के अध्ययन में यह भी पाया गया कि 1993-94 में बीड़ी मजदूरों की संख्या 44.7 लाख से घटकर 1997 में 42.7 लाख रह गई, लेकिन 2018 में यह बढ़कर 48 लाख हो गई और 2020 तक इनकी संख्या 60 लाख पार कर गई. जाहिर सी बात है कि इन मजदूरों के पास रोजगार के दूसरे विकल्प पहुंच ही नहीं रहे हैं. बीड़ी मजदूर एक दिन में जितना कमाते हैं उससे ज्यादा तो दूसरे मजदूर मनरेगा में या खेतों में काम करके कमा लेते हैं.
आवास एवं शहरी गरीब अपश्मन मंत्रालय के 18 सदस्यीय वर्किंग ग्रुप की रिपोर्ट कहती है कि पोर्टेबिलिटी, विशेष पहचान पत्र, स्वास्थ्य सेवाओं की व्यापकता जैसे विषयों पर काम हो तो मजदूरों को कहीं जाने की जरूरत नहीं होगी. वर्किंग ग्रुप ने अपनी सिफारिश में कहा है कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना अभी बीपीएल परिवारों को ही कवर करता है ऐसे में इसका दायरा बढ़ाकर सड़क के वेंडर, बीड़ी वर्कर्स, घरेलू श्रमिक, भवन और अन्य निर्माण श्रमिक, एमजीएनआरईजीए श्रमिक (जो बीते वित्तीय वर्ष में 15 दिन से अधिक काम कर चुका हो), रिक्शावान, कचरा बीनने वाले, खनन श्रमिक, सफाई कर्मचारी, ऑटो रिक्शा और टैक्सी ड्राइवर्स को मिलनी चाहिए. यह सार्वभौमिक सामाजिक सुरक्षा का ढ़ांचा है जिस पर प्रगति होनी चाहिए.
सुझावों में यह भी कहा गया है कि राज्य असंगठित मजदूरों के लिए एक सामाजिक सुरक्षा बोर्ड का गठन करें साथ ही उनके पंजीकरण की एक सहज व्यवस्था बनाए. मोबाइल-एसएमएस का सहारा लिया जाए. इसके अलावा श्रम एवं रोजगार मंत्रालय की तरफ से प्रवासी और असंगठित मजदूरों को पोर्टेबल आईडी कार्ड भी दिया जाना चाहिए ताकि वे सभी तरह के सरकारी सामाजिक सुरक्षा योजना का लाभ ले पाएं. यानि नया कुछ भी नहीं है बस लागू किया जाना है.
ग्रामवाणी ने भी अपनी तरफ से एक प्रयास किया. बीड़ी मजदूर और सुलगते सवाल कार्यक्रम के तहत श्रमिकों की बात श्रम अधीक्षक तक पहुंचाई. जमुई की श्रम अधीक्षक पूनम कुमारी को ग्रामवाणी की तरफ से ज्ञापन सौंपा गया था और उन्होंने आश्वस्थ किया था कि जल्दी ही बीड़ी श्रमिकों के लिए बेहतर व्यवस्थाएं की जाएंगी. ऐसा होना भी शुरू हो गया है. उन्होंने जमुई की मजदूर यूनियन और बीड़ी श्रमिकों की छोटी यूनियनों के साथ एक बैठक की है. जिसमें बीड़ी श्रमिकों के कार्ड बनाने पर सहमति बनी है. बाकी बदलाव दिखने में थोड़ा वक्त लगेगा.
इसी क्रम में स्थानीय रिपोर्टर्स और वालंटियर्स की मदद से 250 परिवारों का बीडी श्रमिक कार्ड के लिए आवेदन जमा करने में स्थानीय बीडी श्रमिक की मदद भी की है.
अब देखना बाकि है कि कब तक इन्हें बीड़ी श्रमिक कार्ड प्राप्त होता है क्योंकि झाझा बीड़ी श्रमिक अस्पताल के इंचार्ज का कहना है कि श्रमिकों के आवेदन का मूल्यांकन करने के लिए पटना से श्रमिक विभाग के पदाधिकारी की अनुमति के बाद ही श्रमिक कार्ड बनता है, जबकि श्रमिक विभाग के अनुसार उन सभी व्यक्ति का श्रमिक कार्ड बनना चाहिए जो स्वास्थ्य विभाग के कर्मचारी के सामने बीड़ी बनाकर दिखा दे. यानि अब यह श्रमिक भिभाग के रहमोकरम पर निर्भर हैं, जब देखना बाकि है अब इस तंत्र का दिल इन मजबूर श्रमिकों के लिए कब पसीजता है.
युवाओं के लिए एक प्रेरणा स्रोत
विकास के वटवृक्ष तले जहां तेंदूपत्ते सूख रहे हैं वहां पूजा जैसी बेटियां भी हैं. पूजा सरकारी स्कूल में पढती हैं, पढ़ाई के बाद बीड़ी भी बनाती हैं. बीड़ी बनाकर जो पैसे मिलते हैं वो उसे अपनी आगे की पढ़ाई पर खर्च करना चाहती है. पूजा उन बीड़ी श्रमिक परिवारों के लिए मिसाल हैं जो मुश्किलों में भी रास्ते खोज लेते हैं.