शपथ ग्रहण तो हो गया, अब नीतीश की ‘ग्रेसफुल विदाई’ तय करेगी सरकार की उम्र


बिहार में नीतीश कुमार के सातवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के साथ कई बातें आगे के वर्षों के लिए तय हो गयी हैं। एक लेखक के तौर पर भले मुझे यह बात कितनी भी अश्लील लगे, लेकिन भारत और उसमें भी बिहार के संदर्भ में चूंकि बात हो रही है, तो जातिगत संदर्भ से भला कुछ भी अछूता कैसे रह सकता है?

आज के शपथ-ग्रहण का पहला सबक यह है कि बिहार में अब पिछड़ों, अति-पिछड़ों और दलितों की ही राजनीति एक और दशक तक चलेगी। उत्तर प्रदेश में भले एक संन्यासी के नेतृत्व में सरकार बनी, लेकिन जिस तरह से वह कथित तौर पर ठाकुरों की सरकार हो गयी, ठाकुर-ब्राह्मणों में रार की ख़बरें उछलीं और कुल मिलाकर तथाकथित सवर्णों ने सत्‍ता में अपनी वापसी तय पायी, बिहार में वैसा कुछ भी होने नहीं जा रहा है। कम से कम फिलहाल और भाजपा के साथ तो शायद निकट भविष्य में भी नहीं।

आप ज़रा सरकार और संगठन का भाजपा के नज़रिये से अवलोकन करें। जद-यू की बात इसलिए यह लेखक नहीं कर रहा क्योंकि नीतीश के बाद जद-यू वैसे भी जिंदा नहीं रहने वाला है। एक व्यक्ति में सन्निहित राजनीतिक दलों की यही परंपरा रही है, चाहे तो ‘सपा’ से लेकर ‘राजद’ या ‘जाप’ और ‘हम’ तक दशा देख लें। राहुल और कांग्रेस के भी दिन गर्दिश में ही चल रहे हैं। बहरहाल…

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार खुद पिछड़े वर्ग से हैं। उनके साथ जो दो डिप्टी सीएम को शपथ दिलवायी गयी है, उनके जरिये भी अतिपिछड़ा वर्ग को ही साधा जा रहा है। नीतीश कुमार की सीटें चूंकि कम हैं, इसलिए वह खुलकर (या पीछे भी) भाजपा के खिलाफ अड़ नहीं रहे हैं। उनके लिए इतना ही काफी है कि भाजपा ने एक बार फिर से बेटन उनके हाथ में थमा दिया है। उनके खिलाफ भाजपा को जो करना था, वह चुनाव में कर चुकी है। अभी बहुमत चूंकि कच्चे धागे से लटकती तलवार है, जिसमें मुकेश सहनी और मांझी जैसी ‘अविश्वसनीय’ लटकनें भी हैं, इसलिए भी भाजपा फूंक-फूंक कर कदम रखना चाहेगी।

बिहार भाजपा के प्रदेशाध्यक्ष के लिए यह जीवनदान है, वरना नतीजे तनिक भी गलत होते तो बलि उनकी ही चढ़ने वाली थी। अब उनको ‘ब्रीदिंग स्पेस’ मिली है, तो वह अपनी जड़ें मजबूत करेंगे और आगे की राह तलाशेंगे। भाजपा ने सुशील मोदी का अध्याय बंद कर यह संकेत तो दिया है कि वह ओवरहॉल करने जा रही है (आज अमित शाह की उपस्थिति भी इसका ही संकेत है), लेकिन इसमें समय कितना लगेगा, यह तयशुदा तौर पर नहीं कहा जा सकता।

सुशील मोदी की यह खासियत तो आपको माननी ही होगी कि नीतीश कुमार जैसे अहंकारी, दुराग्रही, स्वेच्छाचारी और तानाशाह किस्म के आदमी को उन्होंने एक स्थिर गठबंधन में लगभग 15 वर्षों तक फंसाये रखा और बिहार की यह गठबंधन सरकार बिना किसी हीलाहवाली के चलती रही। इसके पीछे हालांकि भाजपा का गठबंधन धर्म निभाने का तरीका भी है, जिसमें भाजपा हमेशा ही अपने पार्टनर को अधिक देती रही है, चाहे वह महाराष्ट्र हो, पंजाब हो या बिहार। भाजपा ने जैसे ही खुद को असर्ट करना चाहा है, वह गठबंधन तिनके-तिनके हो गया है।

सुशील मोदी से भाजपाई नेताओं की समस्या क्या है? यही कि वह स्मार्ट हैं, अर्थशास्त्र जानते हैं, जब भाजपा में कोई नामलेवा नहीं था तो भी वह सिंगल मैन आर्मी की तरह लालू के खिलाफ बिगुल बजाए हुए थे। लालू के पतन में अगर किसी दूसरे व्यक्ति का कभी नाम चलेगा तो वह सुशील मोदी होंगे। उनकी अच्छी राजनैतिक समझ है, गठबंधन का ज्ञान है और फंसी हुई आवाज़ के बावजूद वे कायदे की और सही बात बोलते हैं। भाजपा के पास विकल्प का संकट ही था जो वह अकेले नहीं लड़ रही थी या सुशील मोदी को नहीं हटा रही थी। यह आज के शपथ-ग्रहण और उनके विकल्प के तौर पर आये नेताओं से भी स्पष्ट है।

अब, इसके दो ही निहितार्थ हैं। या तो खट्टर और फडणवीस की तरह बिहार में भी तारकिशोर प्रसाद औऱ रेणु देवी को लाया-बढ़ाया जा रहा है या फिर मोदी-शाह द्वय ने सोच लिया है कि बिहार में नीतीश से सीधा वे ही डील करेंगे और साल-छह महीने बाद नीतीश कुमार की ‘ग्रेसफुल विदाई’ की तैयारी चल कर दी जाएगी। मांझी और मुकेश को मंत्रिमंडल में शामिल कर बहुमत को मेंटेन किया गया है, तो कांग्रेस की तू-तू, मैं-मैं से संकेत साफ हैं कि बहुत जल्द कांग्रेस में टूट भी हो सकती है।

आरजेडी को और तेजस्वी को पचाने से अधिक चबाने के लिए मिल गया है। उनको फिलहाल पहली फुरसत में मनोज झा जैसे पंडितों को बाहर का रास्ता दिखा देना चाहिए। तेजस्वी के पास समय भी है और सामाजिक समीकरण भी। लालू के बिना भी वह यादवों के बीच स्वीकार्य हो ही गये हैं (हालांकि इस लेखक का व्यक्तिगत अनुभव है कि आरजेडी को मिला कुल वोट अब भी मोटामोटी लालू प्रसाद यादव के ही नाम पर आया है, तेजस्वी को बस लोगों ने लालूसुत होने के नाते वोट दिया है)। उनको यह भी देखना चाहिए कि सीमांचल में मुस्लिम वोट अब विकल्प की तलाश में ओवैसी की तरफ मुड़ चुका है।

माले को इतनी अधिक सीटें देने का तेजस्वी का दांव काम आया और डिविडेंड भी लेकर आया है। गौर करने की बात है कि तमाम भोजपुरी भाषी इलाकों (चंपारण को छोड़कर) में मार्क्सवादी पार्टियों ने अच्छा प्रदर्शन किया है। दीपांकर भी तेजस्वी के साथ स्टेज शेयर कर रहे हैं और कॉमरेड चंद्रशेखर की शहादत की कोई भी छाया इन दोनों के संबंधों पर नहीं दिख रही है। तेजस्वी को फिलहाल उसी मेहनत की जरूरत है, जो उन्होंने चुनाव के दौरान दिखायी।

भाजपा के पास रहा क्या? यही, कि वह फिलहाल अपना घर दुरुस्त करेगी। उसके सवर्ण नेताओं को भी पार्टी को साधना होगा क्योंकि अंदर ही अंदर खलबली तो मची हुई है। खासकर जो दुःसाध्य जातियां हैं, उन्हें तो कहीं न कहीं कंपनसेट करना ही होगा ताकि आगे का रास्ता आसान हो सके। यह सरकार स्थायी नहीं है, ऐसा मान लेने में गुरेज़ नहीं करना चाहिए। एकाध साल के अंदर अगर नीतीश कुमार की सम्मानजनक विदाई नहीं हुई और भाजपा सेंट्रल रोल में पूरी तरह नहीं आ सकी, तो हम मध्यावधि चुनाव का भी नज़ारा देख सकते हैं। राजनीति में कुछ भी अंतिम कहां होता है!


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