आज से बीस वर्ष पहले 31 दिसंबर, 2000 व 1 जनवरी 2001 को देश के किसान एवं मजदूर नेताओं, सोशलिस्ट नेताओं तथा स्वतंत्रा संग्राम सेनानियों का दो दिवसीय जमावड़ा देवरिया जिले के ग्रामीण इलाके बरियारपुर चौराहे पर हुआ था जो इलाका लोहिया और राज नारायण की कर्मभूमि भी मानी जाती है। इन लोगों का नाम जन जन की जुबान पर तथा जनपद के कोने कोने में था। इनके बारे में सभी तरफ किंवदंतियां बिखरी पड़ी थीं और आज भी हैं।
जो क्षेत्र सामंतशाही की जकड़न में था उससे गरीबों को मुक्त कराने का श्रेय लोकबंधु राजनारायण (जो समाज के कमजोर व पिछड़े वर्ग की आवाज माने जाते थे) के सहयोग से स्थानीय जन नेता कृष्णा राय, राम आज्ञा चौहान एवं सोशलिस्ट खेमे से जुड़े कार्यकर्ताओं को जाता है। उस जमावड़े में देश के जाने माने सोशलिस्ट नेता जिन्हें लोग प्यार से कमांडर साहब कहते थे, अर्जुन सिंह भदौरिया, मुख्य अतिथि के रूप में शामिल हुए थे। देश के जाने माने मजदूर नेता रमाकांत पांडे, उत्तर प्रदेश में जेपी मूवमेंट में छात्रों का नेतृत्व करने वाले सीबी सिंह (सीबी भाई), स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एवं पूर्व सांसद रामनरेश कुशवाहा, उत्तर प्रदेश के पूर्व वित्तमंत्री एवं पूर्व राज्यपाल मधुकर दीघे, वरिष्ठ सोशलिस्ट नेता एडवोकेट रमजान अली, हाटा सुरक्षित क्षेत्र से विधायक राम नक्षत्र, पूर्व विधायक रूद्र प्रताप सिंह, पूर्व सांसद हरिकेवल कुशवाहा, मजदूर नेता व्यासमुनी मिश्र, सोशलिस्ट नेता धर्मनाथ लारी मुख्यवक्ता के रूप मे मौजूद थे।
इस कार्यक्रम की अध्यक्षता स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एवं पूर्व विधायक और सोशलिस्ट नेता एवं लोहिया जी के अतिसन्निकट जाने जाने वाले रामेश्वर लाल श्रीवास्तव कर रहे थे। इनके साथ ही कार्यक्रम में पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई जिलों से शिक्षक, नेता, पत्रकार, साहित्यकार, बुद्धिजीवियों ने शिरकत की थी। कार्यक्रम “किसान मजदूर महापंचायत” के नाम से आयोजित किया गया था। इस जमावड़े में बहस का विषय मुख्य रूप से पूरब के बदहाल आर्थिक हालात और बदलते राजनीतिक समीकरणों में जातीय धार्मिक उभार था। आजादी से पहले और बाद में प्रदेश में चीनी मिलें, हथकरघा उद्योग, साड़ी उद्योग और अन्यान्य किस्म के कारखाने स्थापित किए गए थे जो नई आर्थिक नीतियों व देश प्रदेश में जातीय एवं धार्मिक उभार की राजनीति के केंद्र में होने के कारण उजड़ने लगे थे। नए कल कारखाने एवं रोजगार के संसाधन स्थापित नहीं हो रहे थे और जरूरी बात यह थी कि ये सारे उद्योग धंधे किसी न किसी रूप में कृषि से जुड़े थे या कृषि आधारित उद्योग के रूप में स्थापित थे।
यह जमावड़ा ऐसे समय में हुआ था जब उससे कुछ पहले से ही पूरब से पश्चिम के तरफ देश के ट्रेड सेंटरों पर तेजी से नवजवानों का पलायन हो रहा था। उस बहस में ये भारी चिंतन का विषय था। उन लोगों ने यह महसूस कर लिया था कि जो अब देश के हालात बन रहे हैं उसमे असम से लेकर कर के बंगाल, झारखंड, बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश एक लेबर बेल्ट बनने जा रहा है। ज्यों ज्यों ग्रामीड़ व्यवस्था उजड़ती जा रही त्यों त्यों समृद्ध गाँव के किसानों के बेटों तथा खेतिहर मजदूरों के लिए गांवों में जगह खत्म होती जा रही थी। बड़े उद्योगों और बड़े शहरों की ओर केंद्रित आर्थिक नीति के बीच कानपुर जैसा मैन्चेस्टर भरभरा कर के ढह गया। हमने देखा कि उत्तर प्रदेश की तत्कालीन सरकार (भाजपा) ने देवरिया की गौरी बाजार की शुगर मिल सहित अन्य तीन मिलों को कौड़ियों के दाम बेच बिया, मजदूर बेरोजगार हो गए और पलायित कर गए। उसी दौरान इन इलाकों से नौजवानों का ट्रेनों में ठूंस ठूंस कर पश्चिम के तरफ जाने का सिलसिला शुरू हो गया।
जैसा कि इस कार्यक्रम के नाम ही पता चलता है कि कल कारखानों के उजड़ने से केवल मजदूर वर्ग ही तबाह नहीं हुआ बल्कि कृषि आधारित उद्योग होने के कारण गन्ना किसानों से लेकर गुड़ एवं चीनी आदि के कारोबार एवं तमाम अन्य कारोबार और उससे जुड़े उन इलाकों के समृद्ध बाजार भी उजड़ने लगे। धीमे धीमे मिलों के उजड़ने, बिकने या बंद होने तथा नए उद्योग के ना लगने से ग्रामीण अर्थव्यवस्था ध्वस्त होती गयी जिससे इतना बड़ा भू-भाग जो लेबर क्षेत्र बन गया था, वहाँ से अब किसी भी हाल में मजदूर नौजवान और उजड़ते किसानों को घर छोड़ कर जाना ही था। घर छोड़कर हजारों किलोमीटर हरियाणा, मुम्बई पंजाब, पूना, सूरत दिल्ली आदि-आदि जगहों पर जाना इनकी नियति बन गयी थी। इसमें से बाम्बे, सूरत, अहमदाबाद, बंगलोर, मद्रास सेंट्रल ये कुछ ट्रेड सेंटर थे जो आजादी के काफी पहले से स्थापित थे, लेकिन कुछ नए ट्रेड सेंटर भी विकसित हुए थे। अजीब विडंबना है कि जब इस देश में एक तरफ नए उद्योग धंधे लग रहे थे तो एक तरफ बड़े भू भाग पर स्थापित छोटे-बड़े पुराने उद्योग धंधे उजाड़े जा रहे थे। एक तरफ कुछ छोटे शहर विशाल आकार ले रहे थे तो एक तरफ छोटे-छोटे शहर ग्रामीण इलाके, कस्बे और बाजार उजड़ रहे थे।
एक ओर सामाजिक न्याय से उभरा नेतृत्व, उत्तर प्रदेश और बिहार में जिनकी सरकारें बनीं, उन लोगों ने दलित पिछड़े एवं सामान्य वर्ग के सभी लोगों को आर्थिक विकास की आम धारा से अलग करते हुए जातिगत जाल में फंसा कर जातिगत अस्मिता की लड़ाई से जोड़ दिया तो दूसरी ओर सांप्रदायिकता के उभार से उत्पन्न हुए नेतृत्व ने धार्मिक अस्मिता से लोगों को जोड़ दिया, जिसके कारण मूर्तियों की स्थापना का दौर जारी हुआ। अब जब ये बात बहस में आ गयी है तो इसका सही विश्लेषण हो जाना चाहिए।
आखिर जो उस जमावड़े मे शामिल थे आज उन बुद्धिजीवियों, चिंतकों और राजनेताओं की चिंताऐं बिल्कुल सही साबित हो रही हैं। जो आज हालात देखने को मिल रहे हैं उनके पास इसका पूर्वानुमान निश्चित ही रहा होगा क्योंकि वे सारे लोग आजादी की लड़ाई लड़े और उसके बाद जो सपना देखा था सुंदर समाजवादी समाज बनाने का, उनके सामने उजड़ रहा था। कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया ने देवरिया में प्रेस कांफ्रेंस में बहुत साफ कहा था “तथाकथित समाजवादी चूहों ने समाजवाद के विशाल वटवृक्ष की जड़ को कुतर दिया है।” ये बात सही सिद्ध हुई। समाजवाद के झंडाबरदारों ने जातिवाद का झण्डा उठा लिया। उनका समाजवाद जातिवादी हित में निहित हो गया। वे नहीं समझ पा रहे थे कि जाति एवं सांप्रदायिकता का उभार उन जातियों और संप्रदायों का हित नहीं कर सकेगा क्योंकि जाने अनजाने में वे पूंजीवाद को मजबूत करने में अपना कंधा लगाए हुए थे और पूंजीवाद उनके सहयोग से अपनी ताकत को डायनासोर की तरह बढ़ा रहा था जिसके कारण पूंजी का केन्द्रीयकरण अपने उत्कर्ष की ओर बाढ़ रहा था और तभी तो देश के कोने-कोने से नौजवान रोटी की तलाश मे कुछ ट्रेड सेंटरों पर, जहां उनकी उम्मीदें थी, इकट्ठा हो रहे थे। अब और तेजी से सरकारी कंपनियों की बिक्री होती जा रही थी जिसका विरोध बहुत कम लोग कर पा रहे थे और हालात बद से बदतर होते जा रहे थे। खास करके शुगर मीलों की बिक्री जो कल्याण सिंह सरकार से शुरू होती है और मुलायम सिंह के अन्य चीनी मिलों को बेचने के प्रस्ताव को लाने के साथ ही मायावती की सरकार में 2012 आते-आते उसकी बिक्री का समापन भी हो जाता है।
ये सारी बाते इसलिए हो रही हैं कि अब जब कोरोना में लॉकडाउन के दौरान करोड़ों की संख्या में जत्थे-जत्थे में ट्रेड सेंटरों से मजदूर घर वापसी के लिए निकल पड़े हैं इसने एक नई बहस को जन्म दे दिया और ये बहस ये है कि हजारों किलोमीटर दूर पैदल चल कर विषम परिस्थितियों का मुकाबला करते हुए मजदूर यदि घर पहुँच गया है या पहुँच जाएगा तो फिर से वापस ट्रेड सेंटरों पर आएगा या नहीं। इस पर सबसे बड़ी चिंता कॉर्पोरेट जगत की और उनके भोंपू मीडिया की है क्योंकि जो श्रम की लूट उनके मुनाफे के केंद्र में है उन्हे मजदूरों के वापस न आने से महंगे दर से श्रम की खरीदारी करनी होगी जिससे मुनाफ़े में कटौती होगी। इसका कारण है कि जो स्थानीय मजदूर हैं उन्हे अपने शर्तों पर काम करने का मौका मिलेगा।
सीएमआइई की पिछली रिपोर्ट के अनुसार कोरोना में लॉकडाउन के कारण चौदह करोड़ लोग बेरोजगार हुए जिनकी संख्या लगातार बढ़ रही है। बेरोजगार हुए मजदूर जो अपने घरों को चले जा रहे हैं और उसमे काफी मजदूरों ने मीडिया के विभिन्न माध्यमों से बातचीत के दौरान यह बाते कहीं हैं कि अब हम वापस नहीं लौटेंगे। उनका यह निर्णय भावावेश में है या देश की अर्थव्यवस्था को न समझ पाने की वजह से है लेकिन उनके इसी निर्णय ने एक नई बहस को जन्म दिया है। जब इस व्यवस्था ने मजदूरों को पच्चीस तीस वर्षों से लगातार देस के कोने कोने से पलायन करके ट्रेड सेंटरों पर पहुचने को मजबूर किया और सारी ग्रामीण अर्थव्यवस्था से लेकर के सभी स्थापित कल कारखानों को उजाड़ा और नष्ट किया था तब अपने क्षेत्र से उजड़ कर जाने वालें लोगों को या नेताओं को ये समझदारी क्यों नहीं आई कि ये व्यवस्था यदि उजड़ जाती है तो हमारे ये लोग दूसरी जगह पहुँच करके नई व्यवस्था में कैसे समायोजित हो पाएंगे। आखिर वे इसके खिलाफ लड़े क्यों नहीं? और आज फिर जब उजड़ा हुआ समाज यह निर्णय लेता है कि हम वापस नहीं आएंगे तो उसका आधार क्या है? यह सवाल भी यक्ष प्रश्न की तरह हमारे सामने खड़ा है।
तीस साल पहले जो आर्थिक नीतियाँ अपनाई गयी थीं और आज तो उससे सृजित व्यवस्था का उत्कर्ष है, तो क्या ये बदलने जा रही हैं? क्या आज की इकोनॉमी में ये संभव हो सकेगा कि देश में लोगों को स्थानीय स्तर पर रोजगार मुहैया कराया जा सके। यह असंभव है क्योंकि पूंजीवाद अपने चरित्र को नहीं बदल सकता और उसका चरित्र है समाज में भ्रष्टाचार पैदा करना, जाति, धर्म और संप्रदाय का उन्माद खड़ा करना, पूर्व में स्थापित सभी व्यवस्थाओं को खत्म करके आदमी की आत्मनिर्भरता को समाप्त कर देना और दुनिया के स्तर पर कुछ पूँजीपतियों का राज कायम करना और पूंजी का संभव हो सके तो एक आदमी के मुट्ठी मे बंद हो जाना जो सीधे-सीधे मनुष्य को आर्थिक रूप से गुलाम बना देता है जिसे पूंजी की तानाशाही भी कहा जा सकता है। आज निश्चित रूप से पूंजीवाद ने अपने उस मुकाम को हासिल कर लिया है। यदि शहरों को छोड़कर गए मजदूरों का वापस न लौटने का इरादा पक्का है तो इस पर एक बड़ी बहस की जरूरत है जिसमें देश की सभी पूंजीवाद विरोधी ताकतों को इस बहस को केंद्र में रखते हुए तथा इन मजदूरों के निर्णय के साथ उन्हें ताकत देने की जरूरत पड़ेगी। जब मजदूर यह बात कहता है कि हमें वापस नहीं लौटना है तो जाने-अनजाने में ही वह पूंजीवाद को चुनौती दे रहा होता है। उसे अर्थशास्त्र तो नहीं मालूम है लेकिन पूंजीवादी अर्थशास्त्र ने इस लॉकडाउन के दौरान निश्चित ही अनुभव किया है कि जो हजारों मिल जान खतरे में डालकर पैदल चल सकता है तो वास्तविक नेतृत्व के साथ पूंजीवाद के खिलाफ अपने हक की लड़ाई सकता है। अब जिम्मेदारियां उसके निर्णय के साथ-साथ वामपंथी ताकतों की बन जाती है क्योंकि उन मजदूरों का हक सिर्फ और सिर्फ समाजवादी व्यवस्था के इतर और कहीं भी मिल नहीं सकता है।
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