समुदाय केन्द्रित कोरोना मैपिंग का प्रश्न? नथिंग ऑफिशियल अबाउट इट!


दक्षिण भारत से निकलने वाले एक बेहद प्रतिष्ठित अख़बार की उस ख़बर ने चौंका दिया था, जिसमें ‘कोरोना वायरस के समुदाय आधारित मैपिंग की दिशा में कदमों’ की बात की थी। 

जैसे ही इस ख़बर को लेकर लोगों की बेचैनी बढ़ती गयी कि आखिर इसे लेकर ‘बन्द दरवाजों के भीतर चल रही उच्चस्तरीय बैठकों’ में जबकि ‘कोई आधिकारिक निर्णय नहीं लिया गया है’, स्वास्थ्य मंत्रालय की तरफ से यह औपचारिक बयान जारी हुआ कि इस सम्बन्ध में उठी ख़बरें ‘बेबुनियाद, गलत और गैर-जिम्मेदार हैं’। जनाब लव अग्रवाल, स्वास्थ्य मंत्रालय के वह वरिष्ठ अधिकारी, जिन्हें यह जिम्मा सौंपा गया है कि वे कोविड-19 के घटनाक्रमों को लेकर मीडिया से बातचीत करें, उन्होंने उपरोक्त प्रकाशित समाचार को ‘एक बेहद गैर-जिम्मेदार समाचार’ बताया। इतना ही नहीं, फेक न्यूज के बारे में सर्वोच्च न्यायालय को उद्धृत करते हुए उस समाचार को ‘‘गैर-तथ्यपूर्ण” ख़बर बताया।

निस्संदेह इस आधिकारिक खुलासे के बाद कई लोगों ने राहत की सांस ली होगी।

यह राहत की सांस समझी जा सकती है क्योंकि पिछले ही माह जब कोरोना महामारी की विकरालता उजागर हो रही थी, लोगों के संक्रमित होने और दम तोड़ने की ख़बरें मुख्यधारा की मीडिया में सुर्खियां बनने लगी थीं, तब साथ ही साथ देश की सबसे बड़ी धार्मिक अल्पसंख्यकों की आबादी पर कोरोना के ‘महाप्रसारक’ /सुपर स्प्रेडर’ के तौर पर बातें फैलायी जाने लगी थीं, तब इस अवसर पर सरकार काफी ढुलमुल दिखाई दी थी।

दरअसल, उन दिनों एक तरह से हालात से चिन्तित होकर विश्व स्वास्थ्य संगठन को 6 अप्रैल की अपनी एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में एक सीधी बात बतानी पड़ी थी कि ‘अलग अलग मुल्कों को चाहिए कि वह कोरोना वायरस बीमारी (कोविड 19) के मामलों को धर्म या अन्य किसी पैमानों पर प्रस्तुत न करें।’ विश्व स्वास्थ्य संगठन के आपातकालीन प्रोग्राम के निदेशक माइक रायन को भारत के सन्दर्भ में उठे प्रश्न के सन्दर्भ में इस बात को भी रेखांकित करना पड़ा था कि हर केस को एक पीड़ित के तौर पर देखना चाहिए और यह बहुत महत्वपूर्ण है कि लोगों को ‘नस्ल, धर्म या एथनिक आधारों पर अलग न किया जाए।’ (वही)।
आखिर इस आसान सी लगने वाली सलाह की क्या पृष्ठभूमि थी?

हम लोग याद कर सकते हैं वह दौर जब फेक न्यूज़ का एक सिलसिला चल पड़ा था जिसमें मुसलमानों को निशाना बना कर यह बात फैलायी जा रही थी कि उन्होंने ही जानबूझ कर कोरोना फैलाया या फैला रहे हैं। दिल्ली में आयोजित तबलीगी जमात के धार्मिक सम्मेलन- जो 15 मार्च को ही खत्म हुआ था, मगर सम्मेलन में शामिल लोग अभी भी रुके हुए थे और इनमें से कुछ प्रतिनिधि कोविड 19 से प्रभावित मिले थे। उसके बाद दक्षिणपंथी जमातों से जुड़े आइटी सेल, गोदी मीडिया के पत्रकार आदि ने मिल कर एक ऐसा माहौल रचा गोया तबलीगी जमात का उपरोक्त कन्वेन्शन नहीं होता तो कोरोना नहीं फैलता। निश्चित ही इस पूरे एकतरफा प्रचार में हुक्मरानों की भी मिलीभगत थी, यह इस बात से भी साबित हो रहा था कि जब कोविड मरीजों का विवरण केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की तरफ से रोज दिया जाने लगा तो उनमें जमाती और गैरजमाती के तौर पर स्पष्ट बंटवारा किया जाने लगा था।

ऐसी घटनाएं भी सामने आ रही थीं कि आम मुसलमानों पर – जो सब्जी बेचते थे या छोटा मोटा अन्य सामान बेचते थे – उन पर संगठित हमले का सिलसिला या उनका सामाजिक बहिष्कार करने की उठती मांग। कोरोना जिहाद के नाम पर अल्पसंख्यकों को इस तरह निशाना बनाया जाने लगा तो लोगों की प्रताड़ना से तंग आकर हिमाचल प्रदेश के उना जिले के एक मुस्लिम युवक ने खुदकुशी की (5 अप्रैल)।

अब जबकि उस नफरती प्रचार का सिलसिला फिलवक्त़ थम सा गया है, हम उन अध्ययनों को पलट सकते हैं जो बताते हैं कि किस तरह ऐसी फेक न्यूज को चलाया गया और किस तरह मुख्यधारा का मीडिया ही ‘कुप्रचार का वाहक’ बन गया था।  

यह बात अधिकाधिक स्पष्ट हो रही थी कि ‘किस तरह भारत ने सार्वजनिक स्वास्थ्य को तबाह करने वाली एक वैश्विक महामारी को भी अल्पसंख्यकों को बदनाम करने की दिशा में मोड़ दिया था।’ अपना एक बहुसंख्यकवादी हिन्दू वोटबैंक तैयार करने के लिए पुराने समय की धर्मनिरपेक्षता और सहिष्णुता जैसे मूल्यों को ताक पर रखते हुए मुसलमानों के खिलाफ पूर्वाग्रहों को तैयार करने का काम जोरों पर था। दुनिया के अग्रणी मीडिया संस्थानों ने इस बात पर रौशनी डाली थी कि किस तरह कोविड 19 के बहाने भारत में इस्लामोफोबिया को हवा दी जा रही है।

इस पूरे मसले पर हुकूमत के शीर्ष पर बैठे लोगों का मौन बेहद सूचक था।

अगर हम पीछे मुड़ कर देखें तो विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा दी गयी इस सरल सलाह के दो सप्ताह बाद प्रधानमंत्राी मोदी ने पहली दफा इस मसले पर अपनी जुबां खोली:

‘संक्रमण को फैलाने के पहले कोविड 19 नस्ल, धर्म, रंग, जाति, सम्प्रदाय, भाषा या सरहदों पर गौर नहीं करता। … और इसलिए इससे लड़ने के लिए हमें अपनी एकता और बंधुता को अहमियत देनी चाहिए।’

19 अप्रैल को जारी इस वक्तव्य से कई लोगों के सामने यह वाजिब सवाल उठा था कि आखिर इतनी सी बात बोलने के लिए संविधान की कसम खाये एक सेक्युलर मुल्क के प्रधानमंत्री को इतना वक्त़ क्यों लगा?

अगर हम पीछे मुड़ कर देखें तो हमें पता चलता है कि किस तरह अपनी एक बेवकूफाना हरकत के लिए तबलीगी जमात को निशाना बनाया गया, जब उन्होंने जमात के कन्वेन्शन का आयोजन दिल्ली के मरकज़ में किया। मगर इस सच्चाई से किसी को मतलब नहीं था कि तबलीग का यह कन्वेन्शन हो ही नहीं सकता था अगर खुद भाजपा का विदेश विभाग और दिल्ली पुलिस इजाजत नहीं देते। विदेश विभाग इसलिए क्योंकि कई सारे सहभागी विदेशों से आए थे जिनके अपने मुल्कों में कोविड 19 अपना कहर बरपा करना शुरू किया था और दिल्ली पुलिस भी इसलिए क्योंकि ऐसे किसी आयोजन के लिए – जिसमें विदेशी मेहमान भी आने वाले हों – पुलिस की अनुमति लेनी पड़ती है।

इस मसले पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है, अलबत्ता कुछ बातें दोहराना मौजूं होगा।

याद कर सकते हैं कि तबलीगी जमात का आयोजन 15 मार्च को ही खत्म हुआ था – अलबत्ता कई सहभागी अभी वहीं रुके थे – क्योंकि भारत सरकार द्वारा किसी लॉकडाउन का ऐलान नहीं हुआ था, जो 24 मार्च को किया गया। इतना ही नहीं, मीडिया ने कई ऐसे आयोजनों की चर्चा तक नहीं की, जिसमें लोगों की भीड़ 15 मार्च के बाद भी इकट्ठा हो रही थी। न उसने गौर करना चाहा कि ‘‘तिरुपति मंदिर, जहां रोजाना 40 हजार लोग आते हैं वह 19 मार्च को बंद हुआ और न ही उसने यह बात बताने की जहमत उठायी कि 24 मार्च को भारत सरकार द्वारा तालाबंदी की घोषणा के 12 घंटे बाद उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्राी योगी आदित्यनाथ ने अयोध्या की यात्रा की।’ और इसमें न शारीरिक दूरी और न ही मास्क आदि तमाम सुरक्षात्मक कदमों का ध्यान रखा गया।    

हर तटस्थ व्यक्ति यही बात रेखांकित करेगा कि जहां तक कोविड के संक्रमण का सवाल है या तबलीगी जमात का मामला है इस पूरे प्रसंग में सरकार की कार्यप्रणाली में जबरदस्त अस्पष्टता दिखती है।

क्या यह कहा जा सकता है कि यही अस्पष्टता तब उजागर हो रही थी जब हमने पाया कि तबलीगी जमात के सैकड़ों कार्यकर्ता – जिनका कोविड 19 टेस्ट निगेटिव आया था, उन्हें भी क्वारंटीन सेन्टर से वापस नहीं भेजा गया था, जबकि एक एक महीने से वे क्वारंटीन सेन्टर में पड़े थे। अंततः इस मसले पर एक सांसद को गृह मंत्रालय को लिखना पड़ा कि उन्हें अपने घर भेजा जाए। 

तबलीगी जमात को लेकर ताजा घटनाक्रम का यह न समझ में आने वाला पहलू यह भी रहा है कि इस पूरे मसले पर केंद्रीय गृह मंत्रालय से सम्बद्ध थिंक टैंक ने एक रिपोर्ट में बताया गया था कि ‘‘किस तरह फेक न्यूज को चिन्हित किया जा सकता है और उनकी जांच की जा सकती है’’। इसमें इस बात का भी उल्लेख था कि किस तरह ‘कोविड महामारी के नाम पर अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया गया और यह भी उल्लेखित था कि तबलीगी जमात के मुखिया साद के नाम से जो आडियो टेप चल रहा है, वह दरअसल फेक है।’ रिपोर्ट जारी होने के अगले ही दिन उसे वहां से हटा लिया गया।  

‘‘चालीस पेज ही वह रिपोर्ट जिसे ब्यूरो आफ पुलिस रिसर्च एण्ड डेवलपमेण्ट द्वारा अपनी आधिकारिक वेबसाइट पर शनिवार को जारी किया गया था, उसे रविवार को हटा दिया गया। जब इस मसले पर इंडियन एक्स्प्रेस के संवाददाता ने ब्यूरो के प्रवक्ता जितेन्द्र यादव से सम्पर्क किया तो उन्होंने कहा: इस पुस्तिका में कुछ गलतियां छूट गयी हैं, उन्हें ठीक करके हम जल्द ही अपलोड करेंगे।’’

गौरतलब था कि रिपोर्ट में कानून अमलकर्ता एजेंसियों से यह भी कहा गया था कि वे अपने विश्वासों को मामले की जांच में न आने दें।

‘ऐसी सूचनाओं की निगरानी रखें जो आप के पहले से चलेे आ रहे विश्वासों को पुष्ट करती हैं। सूचनाओं को साझा करने के पहले तथ्यों को जांच लें। 

फिलवक्त़ सरकार ने यह ऐलान कर दिया है कि कोरोना को लेकर कोई समुदाय आधारित मैंपिंग नहीं होगी, यह वाकई में एक सकारात्मक कदम है, लेकिन क्या यह बात दावे के साथ कही जा सकती है कि इसी के साथ देश के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय की निशानदेही रुक जाएगी?

जैसा कि विश्लेषकों द्वारा कहा जा रहा है कि अगर एक महामारी जो समूची मानवता को प्रभावित करती है, उसे अगर साम्प्रदायिक रंग दिया जा सकता है तो हमें दक्षिणपंथ की इस क्षमता को कम करके नहीं आंकना चाहिए कि वह किसी भी आपदा को अपने असमावेशी, नफरत पर टिके, मानवद्रोही एजेण्डा को आगे बढ़ाने के लिए अवसर में बदल सकती है।


लेखक वामपंथी कार्यकर्ता और वरिष्ठ पत्रकार हैं


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4 Comments on “समुदाय केन्द्रित कोरोना मैपिंग का प्रश्न? नथिंग ऑफिशियल अबाउट इट!”

  1. Thank you for another great post. Where else may
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    I’ve a presentation subsequent week, and I’m at the look for such information.

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