पिछले दिनों एनसीईआरटी के पहली कक्षा की पाठ्यपुस्तक में संकलित एक कविता ‘आम की टोकरी’ पर सोशल मिडिया पर खासा विवाद उठ खड़ा हुआ है। मैं इस विवाद और चर्चा का स्वागत करता हूं और ऐसी उम्मीद करता हूं कि लोग इसको गंभीरता से लेंगे और इस पूरे विवाद को अनुकूल गंतव्य तक लेकर जाएंगे।
बच्चों के पाठ्यक्रम और अधिगम की विषयवस्तु अक्सरहां आम लोगों की चिंता और सरोकारों से पृथक ही रह जाती है और उस पर लोगों का विशेष ध्यान नहीं जाता। इस विषय और संदर्भ को पूरी तरह से कुछ ‘विशेष लोगों’ का एकाधिकार क्षेत्र मान लिया जाता है और अक्सरहां जनसाधारण इन पर बात- विचार करने से परहेज करते हैं। प्रथम वर्ग की इस कविता के बहाने एक बड़े समूह में उठी चिंता और चर्चा काफी सुखदायी है और उम्मीद करते हैं कि इस प्रकार की चर्चा निरंतर हमारे बौद्धिक सरोकारों का हिस्सा बना रहे।
बात शुरू करने से पहले उक्त कविता पर एक सरसरी नज़र भी डाल ली जानी चाहिए:
आम की टोकरी
छह साल की छोकरी
भरकर लाई टोकरी
टोकरी में आम है
नहीं बताती दाम है
दिखा दिखा कर टोकरी
हमें बुलाती छोकरी
हमको देती आम है
नहीं बताती नाम है
नाम नहीं अब पूछना
हमें आम है चूसना
यहां इस बात को स्पष्ट कर देना सही होगा की हम यहां इस कविता के साहित्यिक पक्ष, विपक्ष या नुक़्ताचीनी पर विचार नहीं करने वाले अपितु इसके पांच साल के बच्चे के अधिगम का हिस्सा होने के सवाल पर बात करने वाले हैं। यहां यह भी रेखांकित कर देना अनिवार्य है कि इस कविता पर उठे प्रमुख सवाल क्या हैं। सोशल मीडिया पर उठी बहसों में से कुछ मुख्य बहसों का हवाला लें तो इस संदर्भ में मुख्यतः दो तरह की आपत्तियां दर्ज की गयी हैं, जिसमें पहला है ”छोकरी” शब्द का प्रयोग तथा दूसरा है “द्विअर्थी संकेतों या भावनाओं” का प्रयोग। निश्चित तौर से ये दोनों संदर्भ शिक्षाशास्त्रीय विमर्श के आयाम रहे हैं और इस संदर्भ में काफी कुछ कहा-लिखा जा चुका है।
उक्त कविता पाठ्यक्रम का हिस्सा है और एक खास आयु वर्ग से संबंधित है, इसलिए इसकी समीक्षा भी उसी आधार पर होना चाहिए। अब सवाल ये उठता है कि प्रथम वर्ग के बच्चों के पाठ्यक्रम के लिए चयनित/संकलित सामग्री किस प्रकार की होनी चाहिए और उनके संकलन का आधार क्या होना चाहिए? अगर हम शिक्षाविदों या इस संदर्भ में स्थापित शोधों के हवाले से मानें, तो अधिगम के लिए संकलित रचनाओं में उम्र, लिंग, जात, धर्म, सामाजिक सरोकार के आधार पर समन्वय होना चाहिए। इन में किसी भी आधार पर हीनता या लघुता के भाव को प्रश्रय नहीं मिलना चाहिए। साथ ही इसमें सामाजिक, आर्थिक और भौगोलिक विविधताओं के आधार पर भी समन्वय होना चाहिए। पाठ्यक्रम के लिए चयनित सामग्री में बच्चों को ‘आगे ले जाने की क्षमता’ होनी चाहिए तथा उस में ‘बाल मन से संवाद और सरोकार’ स्थापित करने की सहूलियत होनी चाहिए। एक बहुत ही खास और अहम मकसद ये होना चाहिए कि अधिगम के लिए चयनित सामग्री ‘बाल मन को गुदगुदा सके’, ‘उनका मनोरंजन’ कर सके, उनका ‘ध्यान आकर्षित’ कर सके। इसके साथ ही साथ अधिगम की विषयवस्तु को सामयिक होना चाहिए अर्थात अपने समय की सामाजिक, आर्थिक, भौगोलिक सच्चाइयों के रूबरू होना चाहिए।
इस कविता में चर्चा का हमारा पहल पड़ाव है कविता में प्रयुक्त “छोकरी” शब्द। हमें ये समझना, जानना चाहिए कि प्रथम वर्ग (आयु 5-6 साल) के बच्चों के पाठ्यक्रम में सम्मिलित इस कविता से बच्चों को क्या बताने, समझाने की कोशिश की गयी है। अगर हम इसी पुस्तक ‘रिमझिम’ में इस कविता के साथ दी गयी गतिविधियों पर ध्यान दें तो ये स्पष्ट हो जाता है कि इस कविता के माध्यम से क्या बताने, समझाने की कोशिश हो रही है। यहां पर इस कविता के माध्यम से बच्चों को अपने आसपास की गतिविधियों से परिचय कराने की कोशिश की जा रही है, साथ ही उन्हें ये भी बताने की कोशिश हो रही है कि क्या छोटे बच्चों/बच्चियों को काम करना चाहिए या स्कूल जाना चाहिए। अब ये कहा जा सकता है कि प्रथम वर्ग के बच्चों को अपने आसपास से परिचय करना इस आयुवर्ग के अधिगम का एक मुख्य हिस्सा होता है जो ये कविता बखूबी करती हुई दिख रही है। वहीं “छोकरी का आम बेचना” लिंग के आधार पर काम के पहचान और बँटवारे संबंधित पूर्वाग्रह को तोड़ता है, इस रूप में इसका स्वागत होना चाहिए। हां, यहां यह भी सच है कि “छोकरी” शब्द का प्रयोग देश के हर इलाके में एक सा नहीं होता, कहीं-कहीं इसका प्रयोग स्वभाविक रूप से बोलचाल की भाषा में होता है लेकिन वहीं कुछ दूसरे भागों में ये बोलचाल के स्वभाविक आचरण का हिस्सा नहीं है और इससे हीनता का बोध जुड़ा हुआ है।
कविता में ‘छोकरी’ शब्द का प्रयोग दो बार हुआ है लेकिन इस ‘छोकरी’ का कोई नाम नहीं है। अतः इस आम बेचने वाली छोकरी की पहचान यहां गौण है। अब शिक्षाशास्त्र के मूर्त (कान्क्रीट) से अमूर्त (ऐब्स्ट्रैक्ट) की परिकल्पना पर नापें तो ये कविता यहां खड़ी नहीं हो पाती है। अतः यहां पर इस शब्द ‘छोकरी’ का प्रयोग मुझे अनुचित जान पड़ता है।
अब हम इस कविता के संदर्भ में खड़ी की गयी दूसरी आपत्तियों पर आते हैं। यहां पर इस संदर्भ में हमें उपरोक्त पंक्ति “नाम नहीं अब पूछना, हमें आम है चूसना” पर ध्यान देना है क्योंकि इसी पर सबसे तीखी आपत्ति जतायी गयी है। मेरे ख्याल से ‘चूसना’ शब्द के प्रयोग से लोगों को खासी आपत्ति है और वे इसे द्विअर्थी, सांकेतिक मान रहे हैं। मेरे ख्याल से ये सामाजिक और सामयिक वजहों से है। अब के समय में समाज में एक ऐसे तबका का विकास हो गया है जो आम, आइसक्रीम (मलाईबरफ), टॉफी (लेमनचूस) आदि खाते हैं चूसते नहीं हैं, लेकिन ये भी सच है की अब भी समाज का एक बड़ा हिस्सा आम, आइसक्रीम (मलाईबरफ), टॉफी (लेमनचूस) अदि चूस कर खाते हैं। मैं अपने अनुभवों से कहूं कि 2010 से पहले तक मैं भी आम चूस कर खाता था। आम खाने का मेरा पहला तजुर्बा 2010 का है जब एक जगह एक मीटिंग में आम बड़े सलीके से ‘सेव की तरह फाकों’ में काट कर परोसा गया था और हमलोग उसको टूथ पिक से खाये थे, ये मेरे लिए ‘आम खाने’ का पहला तजुर्बा था। अतः ‘आम खाने’ और ‘आम चूसने’ का सवाल सामाजिक और आर्थिक द्वंदों तथा कुंठा की उपज है। इसलिए इसे ज़्यादा तूल नहीं दिया जाना चाहिए।
चूसना, चाभना, चाटना आदि ये सब महज शब्द हैं और आपके अनुभवों और उनके उपयोग के आधार पर इनका मतलब बनता, बिगड़ता रहता है। अगर इन शब्दों के कुछ एक खास मतलब की वजह से इनका प्रयोग बंद कर दिया जाए तो कम से कम हमारी उम्र के काफी लोगों के बचपन की बहुत सी सुनहरी यादें खत्म हो जाएंगी, जैसे- ‘चटनी चाटना,’ ‘गन्ना चाभना’, ‘आम चूसना’, ‘मलाईबरफ चाभना,’ ‘लेमनचूस चूसना’ अदि।
इस कविता की समीक्षा शैक्षिक सिद्धांतों की मौलिकता के आधार पर ही होनी चाहिए, जिनको मैंने ऊपर वर्णित और रेखांकित किया है। इन्हीं आधारों पर इसकी विषयवस्तु में कई एक जगह मुझे विचलन देखने को मिला है, जिसमें सुधार की गुंजाइश बनती है हालाँकि विवाद का दूसरा अंश मुझे ग़ैरज़रूरी जान पड़ता है।