भूखे पेट, खाली खाता, सूनी थाली! मिड डे मील का राशन और पैसा बन गया ‘आपदा में अवसर’


नेशनल डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट के तहत देश भर में लॉकडाउन लगाया गया। जरूरी सामानों की खरीद बिक्री के सिवाय किसी भी तरह की आवाजाही पर पूरी तरह से रोक लगा दी गयी। इस तालाबंदी की वजह से बड़ी आबादी ने जीविका के साधनों को गंवा दिया। लॉकडाउन में बच्चों की सेहत को नज़रअंदाज़ किया गया। स्कूल क्वारंटीन सेंटर में तब्दील हो गये। मध्याह्न भोजन के लिए स्कूल को मिलने वाले राशन और क्वारंटीन में रुके लोगों के लिए भोजन का आदेश आ गया लेकिन यह भोजन कब और कैसे मिलेगा इसकी सुध सरकार और आला अधिकारियों ने बहुत  बाद में ली। इन्हीं बुनियादी समस्याओं को लेकर मोबाइलवाणी जनता के बीच गया और उनके विचार जाने।

सम्‍पादक

लॉकडाउन के दौरान अलग-अलग राज्यों की सरकारों ने मध्याह्न भोजन के लिए अलग-अलग व्यवस्था की थी। कहीं सूखा राशन तो कहीं नकद राशि की व्यवस्था की गयी थी। सरकार का दावा है कि उसने तो बहुत पहले ही पके हुए मध्याह्न भोजन या फिर उसके बदले की राशि बच्चों के खाते में डाल दी है, पर ज़मीनी हकीकत कुछ और ही कहती है।

बिहार के जमुई जिला, गिद्धौर प्रखंड में संवाददाता ने  24 अगस्त को जब एक गांव की महिला से बात की तो उसने बताया कि जब से लॉकडाउन लगा है तब से आज तक स्कूल में बच्चों को भोजन नहीं मिला। उनके तीन बच्चे माध्यमिक स्कूल में पढ़ते हैं। मार्च से अब तक स्कूल बंद हैं इसलिए मध्याह्न भोजन मिलना भी बंद है। अब तीनों बच्चे अपने माता-पिता के साथ किसी तरह एक वक्त आधे पेट भोजन करके गुजारा कर रहे हैं!

गिद्धौर की रतनपुर पंचायत में खरगटिया, बानाडीह, कैराकादो जैसे कई गांव हैं जहां के स्कूलों में मध्याह्न भोजन के नाम पर छात्रों के साथ छलावा हुआ है। कुछ जगहों पर जहां भोजना बांटें जाने की बात कही जा रही है वहां के बच्चों को ये ही नहीं पता कि उन्हें कितना चावल या अनाज दिया गया है। छात्रों को 100 से 150 ग्राम चावल या गेहूं महीने के कुल स्कूल खुलने के दिन को गिन कर दिया जाना था जो तक़रीबन 20-22 दिन होते हैं। अगर कुछ खास छुट्टियाँ नहीं हुई हों तो प्रतिदिन के हिसाब से दिया जाना था पर इस थोड़े से अनाज की तौल में भी घपलेबाजी हुई।

बिहार के 8 जिले तो ऐसे हैं जहां पिछले सप्ताह तक 92 फीसदी बच्चों को राशन नहीं दिया गया था। यह सर्वे एक मीडिया संस्थान ने किया है। राज्य में मिड डे मील से महरूम हुए बच्चों की असल स्थिति समझनी है तो जरा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का एक ट्वीट पढ़ें। आयोग ने बिहार में कोरोना वायरस के कारण बंद हुए स्कूलों के बच्चों को मिड-डे मील का लाभ नहीं देने की खबरों पर गहरी नाराजगी जाहिर की है। आयोग ने कहा कि इस योजना का लाभ नहीं मिलने के कारण पेट भरने के लिए बच्चों को कबाड़ बीनने और भीख मांगने के लिए मजबूर होना पड़ा है। इस मामले में बिहार सरकार को नोटिस भी जारी किया गया है।

भूखे पेट न सोते हैं न रोते हैं!

अनीता देवी

रांची जिले के ओरमांझी प्रखंड से शांति देवी ने बताया कि मिड डे मील नहीं मिलने से बच्चे भूखे हैं। उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जनपद के जखनियां ब्लॉक के स्कूलों में भी भोजन नहीं बांटा गया है। अनीता देवी कहती हैं कि ‘’मेरे परिवार के पांच बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ रहे थे, वहां खाना मिल जाता था तो कम से कम हमें चिंता नहीं थी पर अब तो समझ नहीं आता कि अपना पेट भरें कि बच्चों का?’’

स्कूल वाले बोलते हैं कि आधार कार्ड नहीं होगा तो खाना नहीं मिलेगा, खाने के बदले पैसे भी नहीं मिलेंगे। यह बताते हुए अनीता रो देती हैं। सिसकियां भरते हुए अनीता कहती हैं कि ‘’हम गरीबों के तो कोई अरमान ही नहीं हैं, बस बच्चों को दो वक्त का खाना मिल जाए इतना ही बहुत है।‘’

मध्‍यप्रदेश के शिवपुरी से राम की बहन सरकारी स्कूल में पढ़ती हैं। सरकार ने सूखा अनाज देने के लिए कहा था पर स्कूल वालों ने तो वो तक नहीं दिया। न ही उनके खाते में पैसे आये हैं। गाजीपुर के दंडापुर से कमलेश कुमार भी इस बात की पुष्टि करते हैं। गाजीपुर के ही जखनियां क्षेत्र के रेवरिया गांव से लक्ष्मण कुमार कहते हैं कि स्कूल के शिक्षकों ने कहा था कि प्राइमरी के शिक्षक मध्याह्न भोजन की राशि देने आएंगे पर कोई आया नहीं और राशन भी नहीं मिला।

एक रिपोर्ट बताती है कि मध्याह्न भोजन के नाम पर बंगाल में बच्चों को सिर्फ़ चावल और आलू दिया गया, वो भी तय मात्रा से काफी कम। यहां तक कि पश्चिम बंगाल में अप्रैल में 2.92 लाख और मई में 5.35 लाख बच्चों को मिड-डे मील योजना का कोई लाभ नहीं मिला है। एमएचआरडी के आंकड़ों के मुताबिक राज्य के 12 जिलों में योजना के तहत आवंटित खाद्यान्न की तुलना में काफी कम उपयोग हुआ है। इसके अलावा उत्तराखंड ने अप्रैल और मई में लगभग 1.38 लाख बच्चों को मिड-डे मील मुहैया नहीं कराया है, जबकि त्रिपुरा की भाजपा सरकार ने मिड-डे मील के एवज में छात्रों के खाते में कुछ राशि ट्रांसफर करने का आदेश दिया था, जो कि सिर्फ खाना पकाने के लिए निर्धारित राशि से भी कम है।

भारत सरकार के मानक के अनुसार मिड-डे मील योजना के तहत प्राथमिक स्तर पर 100 ग्राम एवं उच्च प्राथमिक स्तर पर 150 ग्राम खाद्यान्न प्रति छात्र प्रतिदिन के हिसाब से उपलब्ध कराया जाना चाहिए यानी कि महीने के कुल स्कूल खुलने के दिनों को गिनकर प्रतिदिन के हिसाब से प्राथमिक स्तर के छात्रों को तीन किलो और उच्च प्राथमिक स्तर के छात्रों को 4.5 किलो खाद्यान्न दिया जाना चाहिए। इसके अलावा 1 अप्रैल 2020 से लागू किये गये नये नियमों के मुताबिक सिर्फ खाना पकाने के लिए प्राथमिक स्तर पर 4.97 रुपये और उच्च स्तर पर 7.45 रुपये की धनराशि प्रतिछात्र प्रतिदिन उपलब्ध करायी जानी चाहिए, जिसमें दाल, सब्जी, तेल, नमक ईंधन आदि का मूल्य शामिल है।

इसका मतलब ये है कि महीने के हिसाब से ‘खाना पकाने के लिए’ प्राथमिक स्तर के प्रति छात्र को 149.10 रुपये और उच्च प्राथमिक स्तर के छात्र को 223.50 रुपये दिए जाने चाहिए थे। यदि खाना पकाने की राशि नहीं दी जाती है तो प्राथमिक स्तर के प्रतिछात्र को प्रतिदिन 20 ग्राम दाल, 50 ग्राम सब्जियां, पांच ग्राम तेल एवं वसा और जरूरत के मुताबिक नमक और मसाले दिये जाने चाहिए। वहीं उच्च प्राथमिक के छात्र को प्रतिदिन 30 ग्राम दाल, 75 ग्राम सब्जियां, 7.5 ग्राम तेल एवं वसा और जरूरत के अनुसार नमक एवं मसाले देना होता है।

ये सब सिर्फ कागजों में हुआ है।

बाढ़, कोरोना और खाना

एक सर्वे के अनुसार बिहार में लगभग 1.19 करोड़ बच्चों को 4 मई से 31 जुलाई तक 80 दिनों की मिड-डे मील राशि नहीं मिली है। विभिन्न जिलों में लगभग 70 लाख बच्चों को ही इस अवधि का खाद्यान्न मिला है। एमडीएम निदेशक कुमार रामानुज ने भी माना है कि उत्तर बिहार के बाढ़ प्रभावित 16 जिलों में खाद्यान्न वितरण प्रभावित रहा है, वहीं 8 जिलों में तो केवल 8 फीसदी तक बच्चों को ही राशन दिया गया था। जल्दबाजी में इन जिलों के जिम्मेदारों को नोटिस भी दिया गया कि बच्चों को 31 अगस्त तक मिड-डे मील की राशि दे दी जाए पर पूरा अगस्त का महीना बीत गया और बच्चों के खाते और थाली दोनों खाली हैं।

मप्र के शिवपुरी से कक्षा 7 की एक छात्रा बताती है कि स्कूल जाते थे तो कम से कम एक वक्त पेट भर खाना खाते थे, अब तो वो भी नहीं मिलता। मोबाइलवाणी पर कक्षा 7 के हृदयेश लोधी सरकार से खाने की मांग कर रहे हैं। सुनने में ही कितना बुरा लगता है जब एक छोटा सा बच्चा सरकार से कहे कि उसे कुछ खाने को दिया जाए, भूख लगी है! इस स्थिति में विकलांग बच्चों की स्थिति तो और भी खराब है। शिवपुरी की माध्यमिक शाला के छात्र रंजीत वंशकार बोलने में अक्षम हैं, वह सरकार से लिख कर गुजारिश कर रहे हैं कि उन्हें आवाज नहीं दे सकते तो कम से कम भोजन तो दे दो।

सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा था कि ऐसे समय में इस तरह की योजनाओं को बंद नहीं रखा जा सकता है क्योंकि यह बच्चों के पोषण का महत्वपूर्ण स्रोत है, पर इसकी चिंता है किसे?

भारत में डिजास्टर मैनेजमेंट एक्ट और एपिडेमिक एक्ट जैसे कानून हैं जो आपदा से बचाव के लिए बिना किसी भेदभाव के निष्पक्ष तरीके से सभी लोगों पर लागू होते हैं। साथ में कार्यकालिका को बड़े स्तर पर पावर देते हैं कि आपदा से लड़ने के लिए वह कुछ भी करे। लेकिन क्या कानून को लागू करवा देना ही सब कुछ होता है? यह भी कानून का जरूरी हिस्सा होता है कि कानून का प्रभाव अलग-अलग जाति, समुदाय, वर्ग पर क्या पड़ रहा है? आज करोड़ों लोगों का आजीविका ने साथ छोड़ दिया है और यह संविधान के अनुच्‍छेद  21 का खुले तौर पर उल्‍लंघन है।

संविधान के अनुच्छेद 14 की भाषा समझिए। अनुच्छेद 14 कहता है कि ‘भारत के राज्य में किसी भी व्यक्ति को विधि के समक्ष समता से या विधियों के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।’ विधियों के समान संरक्षण का मतलब है कि ऐसा कानून नहीं लागू हो जिससे सब पर अलग-अलग प्रभाव पड़े। समानता के अधिकार वाले अनुच्छेदों में इसके कुछ अपवाद भी हैं लेकिन अपवाद का मकसद यह है कि ऐसा भेदभाव किया जाए जिसका असर समान हो।

लॉकडाउन का असर सब पर बराबर नहीं है। यहां साफ़ तौर पर वर्ग का अंतर दिख जा रहा है। अमीर इससे निपट ले रहे हैं लेकिन गरीबों को परेशानी हो रही हो है यानी लॉकडाउन का असर भेदभाव से भरा हुआ है।  

संविधान का अनुच्छेद 21 गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार देता है। सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार कहा है कि गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार का मतलब नहीं है कि लोगों को जानवरों की  तरह समझा जाए। जैसे कोरोना वायरस की लड़ाई में देखने को मिला, झुंड में इकट्ठा कर प्रवासी मजदूरों पर केमिकल का छिड़काव कर दिया गया। क्वारंटीन के नाम पर स्कूलों में लोगों को जानवरों की तरह ठूंस कर रखा गया।

आपदा में कालाबाज़ारी के अवसर

बिहार के मुजफ्फरपुर के मोतीपुर से मोबाइलवाणी पर ग्रामीणों ने बताया कि मध्याह्न भोजन के लिए एसएफसी गोदाम से मिलने वाले अनाज की कालाबाजारी हो रही है। जब अनाज से भरा ट्रक प्राथमिक विद्यालय लखनसेन पहुंचा तो ग्रामीणों ने उसे घेर लिया। बाद में देखा तो स्कूल के अनाज के चार बोरे यानि करीब डेढ क्विंटल अनाज ट्रक में मिला। यह अनाज बाजार में बिकने के लिए जा रहा था। मधुबनी में मिड डे मील का अनाज नहीं दिये जाने पर डीईओ नसीम अहमद और डीपीओ मो. इम्तियाज को शो कॉज नोटिस जारी किया गया है। उनकी लापरवाही के कारण करीब 5 लाख बच्चे इतने महीने से मिड डे मील से वंचित हैं।

झारखंड के हजारीबाग से बसंती देवी बताती हैं कि मिड डे मील मिल रहा था तो बच्चे की सेहत ठीक थी पर अब जब से खाना मिलना बंद हुआ है वो बहुत कमजोर हो गया है। ‘’हम लोगों के  पास भी इतने पैसे नहीं है कि उसकी पूर्ति कर सकें।‘’

बोकारो के जिरीडीह से मुक्ता देवी ने बताया कि छोटे बच्चों को आंगनबाड़ी से खाना मिलना भी बंद हो गया है। दो तीन महीने में थोड़ा बहुत अनाज मिल जाता है उसी से गुजारा करते हैं। सोनपुर प्रखंड की भरपूरा पंचायत के उत्क्रमित मध्य विद्यालय के शिक्षक मदन कुमार कहते हैं कि वे बच्चों को सूखा चावल बांट रहे हैं। अब भले ही इससे पोषक तत्वों की पूर्ति न हो पर उनके पास कोई और चारा नहीं क्‍योंकि सरकार से तो यही मिल रहा है।

शिवपुरी से एक व्यक्ति ने बताया कि उनकी बेटी कक्षा 7 में पढ़ती है। ‘’हमारी तो कोई खास कमाई है नहीं, जो थी वो लॉकडाउन के बाद से खत्म ही हो गयी। अब बेटी को अच्छा भोजन नहीं करवा पा रहे हैं। वो पहले से ज्यादा कमजोर हो गयी है। बिहार के समस्तीपुर के सिंघिया प्रखंड के सरकारी स्कूल के शिक्षक रणविजय प्रसाद कहते हैं कि सरकार चावल-आलू बांटकर समझ रही है कि उसकी जिम्मेदारी पूरी हो गयी पर इतने से होता क्या है? बच्चे मानसिक और शरीरिक रूप से कमजोर हो रहे हैं, न तो राशन समय पर मिल रहा है न उनके खाते में पर्याप्त पैसे आ रहे हैं।

इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि बिहार के भागलपुर जिले के स्कूली बच्चे भीख मांगने से लेकर कूड़ा बीनने जैसे काम कर के अपने लिए खाना जुटा रहे हैं। ये मामला जिले के बडबिला गांव के मुसहरी टोला का है। केवल बिहार ही क्यों, झारखंड, मध्यप्रदेश, पूर्वोत्तर राज्य और उत्तर प्रदेश के बच्चे भी इसी स्थिति में हैं!


यह प्रस्‍तुति मोबाइलवाणी के सर्वे के आधार पर तैयार किये गये ग्रामवाणी फीचर्स की ओर से है


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