इन रोटियों की तलाश में ही वे आये थे गाँव से उजड़कर शहर में रोटियों की ही ख़ातिर उन्होंने फ़ैक्टरी में लोहा गलाया और गलाया अपना हाड़मांस अचानक रोटी की तलाश में वे फिर से गाँव की ओर रुख़सत हुए लेकिन इससे पहले कि वे रोटी खा पाते उनके गलाये गये लोहे की पटरियों और पहियों के बीच कुचल दिया गया उनका हाड़मांस (रोटियों की ख़ातिर, आनन्द सिंह)
आज यानी 8 मई को महाराष्ट्र के औरंगाबाद में रेलवे ट्रैक पर सो रहे 16 मजदूर ट्रेन की चपेट में आकर मारे गये। कुछ तस्वीरें जो दिखायी जा रही हैं उनमें दिख रही रोटियां उन्हीं में से किसी मजदूर की हैं। यूं तो ये मौतें एक दुर्घटना के तौर पर दर्ज होंगी, पर असल में ये हत्याएं संस्थागत हैं।
पूरे देश में मजदूरों मेहनतकशों के आज हाल बेहाल हैं। सरकार ने लॉकडाउन तो कर दिया पर मजदूरों के लिए कहीं पर कोई सुविधा नहीं है। ज्यादातर जगहों पर स्वयंसेवी संगठन या कुछ उदार हृदय लोग मजदूरों के लिए खाने की व्यवस्था कर रहे हैं पर ज़ाहिर है कि वह पूरे देश के मजदूरों के लिए कभी भी पर्याप्त नहीं हो सकता। नाकारा सरकार और अमानवीय प्रशासनिक अमले के लिए मजदूर अब भी सिर्फ एक संख्या ही रहेंगे। इसके बाद भी वह उनके लिए कुछ करने वाले नहीं हैं।
लॉकडाउन शुरू होते ही दिल्ली के आनन्द विहार से मज़दूरों के पैदल पलायन का सिलसिला जो शुरू हुआ तो फिर सूरत, राजस्थान, कर्नाटक, पंजाब से होते हुए महाराष्ट्र तक पहुँच गया। कई मज़दूरों ने अपनी जान तक गँवा दी और कई भूखे प्यासे भरी गर्मी में पैदल अपने घरों को पहुँचे भी। कोरोना महामारी के इस काल में मज़दूरों के साथ इस अमानवीय सरकारी दुर्व्यवहार के काले अध्याय के रूप में याद रखा जाएगा।
महाराष्ट्र की रेल दुर्घटना का ज़िम्मेदार कौन?
आज की ही खबर है कि महाराष्ट्र के औरंगाबाद की जालना रेलवे लाइन के पास के पास हुई रेल दुर्घटना में 16 मजदूरों की मौत हो गयी है जबकि कई अन्य मजदूर घायल बताये जा रहे हैं। ये हादसा औरंगाबाद-जालना रेलवे लाइन पर शुक्रवार सुबह 6.30 बजे के करीब हुआ है। रेल मंत्री ने इस घटना के जांच के आदेश दिये हैं।
ये दुर्घटना आख़िर हुई कैसे? लॉकडाउन के दिनों में जब समूचा भारत अपने घर में बैठा है तो ये मज़दूर वहाँ पहुँचे कैसे? इन्हें किसने जाने दिया? ये पैदल आख़िर कहाँ जा रहे थे?
ये सभी प्रवासी मजदूर अपने घर पैदल जा रहे थे जिस दौरान ये हादसा हुआ। ये सभी मजदूर मध्य प्रदेश के रहने वाले थे। वहां के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने मृतक मजदूरों के परिवार वालों को 5-5 लाख रुपये का मुआवजा देने का ऐलान भी किया है लेकिन क्या ये सहायता अगर उनके जीवित रहते उन्हें सकुशल घर पहुँचा कर की जाती तो ज़्यादा महंगी हो जाती? आख़िर क्यों सरकारें मज़दूरों के पलायन पर इतना गंभीर चुप्पी साधे बैठी रहीं और जब इस तरह की कोई अमानवीय घटना घटती है तो उसकी ज़िम्मेदारी कौन लेगा?
भारतीय रेलवे की ओर से इस हादसे को लेकर जो बयान जारी किया गया है, उसमें कहा गया है कि औरंगाबाद से कई मजदूर पैदल सफ़र कर आ रहे थे। कुछ किलोमीटर चलने के बाद ये लोग ट्रैक पर आराम करने के लिए रुके, उस वक्त मालगाड़ी आयी और उसकी चपेट में कुछ मजदूर आ गये। मज़दूरों का क़सूर सिर्फ़ इतना था कि वे चलते चलते सुस्ताने के लिए कुछ देर रुक गये थे। अब आख़िर इस घटना का ज़िम्मेदार कौन होगा?
भारत का खाया पीया अघाया मध्यवर्ग इस घटना का ज़िम्मेदार भी मज़दूरों को ही मान रहा है। सोशल मीडिया पर लगातार लिखा जा रहा है कि आख़िर क्या ज़रूरत थी मज़दूरों को ट्रैक पर चलने की, वे सड़क से होकर क्यूं नहीं चलते। इस तरह की लापरवाही करेंगे तो और क्या होगा। वे न तो सरकार की बदइंतज़ामी पर कोई सवाल उठा रहे हैं और न ही उन्हें इस घटना का कोई मलाल है।
देशभर में पलायित मज़दूरों का हाल बेहाल!
लॉकडाउन के दूसरे दिन सरकार ने समाज के कमजोर वर्गों के लिए 1.7 लाख करोड़ रुपए के राहत पैकेज की घोषणा की। पांचवें दिन गृह मंत्रालय ने प्रवासियों की आवाजाही को प्रतिबंधित करने के लिए राज्य और केंद्र शासित प्रदेशों को आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत आदेश जारी किया। मंत्रालय ने राज्यों को उन सभी प्रवासी कामगारों को मानक स्वास्थ्य प्रोटोकॉल के अनुसार 14 दिनों की न्यूनतम अवधि के लिए आश्रय में रोकने के लिए कहा जो घर जा रहे थे। उन्हें सार्वजनिक जगहों से दूर करने के लिए हरियाणा और चंडीगढ़ के प्रशासन ने इनडोर स्टेडियमों को अस्थायी जेलों में बदल डाला। इस बीच उत्तर प्रदेश में स्वास्थ्य अधिकारियों ने प्रवासी श्रमिकों पर औद्योगिक कीटाणुनाशक का छिड़काव किया। 29 मार्च को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने रेडियो में इस विपदा को संवेदना भरे शब्दों में रखा। उन्होंने “सामाजिक रूप से पिछड़े भाइयों और बहनों” से माफी मांगी और कहा कि कोविड-19 का सामना करने के लिए देश में लॉकडाउन के अलावा “कोई दूसरा रास्ता नहीं” था।
पूरे देश भर से मज़दूरों के पलायन,सैकड़ों किलोमीटर उनके पैदल चलने की कहानियाँ, पैदल चलते चलते जान तक गँवा देने की दुर्घटनाएं सामने आ रही हैं। ऐसे में सरकारें एक तो खुद मज़दूरों के वापस आने का पुख़्ता इंतज़ाम नहीं कर रहीं और अगर मज़दूर खुद से सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर अपने राज्य पहुँच रहे हैं तो उन्हें राज्य के अंदर प्रवेश नहीं करने दिया जा रहा है। महाराष्ट्र से अपने प्रदेश लौट रहे मजदूरों को भी सेंधवा के पास मध्य प्रदेश की सीमा में अब तक रोका जा रहा था। ज्यादातर को वापस महाराष्ट्र की ओर लौटाया जा रहा था। गुरुवार सुबह तक एक हजार से अधिक मजदूर सीमा पर जमा हो गये थे। इनमें अधिकांश उत्तर प्रदेश और कुछ बिहार व राजस्थान के थे। नाराज मजदूरों ने दो घंटे तक हाइवे जाम किया। उनकी एक ही मांग थी कि आगे जाने दिया जाए। प्रशासन व पुलिस ने समझाइश देकर रोड से हटवाया।
क़ायदा तो यह था कि सरकार को सभी मज़दूरों की उचित जाँच पड़ताल करके उन्हें स्वास्थ्य गाइडलाइन के अनुसार क्वारंटीन करके सकुशल मज़दूरों को उनके घर भेजना चाहिए था लेकिन सरकार अपनी ज़िम्मेदारियों से भाग रही है और मज़दूरों को उनके हाल पर छोड़कर उन्हें भूखा प्यासा दर बदर भटकने को छोड़ रही है।
इस समय जब पूरा देश कोरोना वायरस की वजह से त्रस्त है, करोड़ों मेहनतकश परिवार भुखमरी के कगार पर पहुँच गये हैं। देशभर में भूख से कई मौतें हो चुकी हैं। सरकार और कारख़ाना मालिकों के पल्ला झाड़ लेने के बाद तमाम औद्योगिक शहरों से सैकड़ों किलोमीटर चलकर भूख और पुलिस का ज़ुल्म सहते हुए, अपने बच्चों की मौत तक देखते हुए जो मज़दूर अपने घर पहुँच गये, उनके साथ भुखमरी भी पहुँच गयी है। जो मज़दूर कहीं बीच में या राज्यों के बार्डर पर रोक लिये गये हैं, उन्हें जिन कैम्पों में रखा गया है वहाँ की हालत बहुत ख़राब है।
बदइंतज़ामी और नाकारापन का आलम ये है कि स्कूलों के शौचालय तक में मज़दूरों को क्वारंटीन कर दिया जा रहा है।
श्रम क़ानूनों में दी जा रही है मनमानी ढील!
प्रवासी कामगारों को राज्य की खैरात पर पलने वाले या कानून और व्यवस्था की ऐसी समस्या से अधिक कुछ नहीं समझा गया जिससे दृढ़ता से निपटने की आवश्यकता है। प्रवासी श्रमिकों को जो अधिकार प्राप्त हैं वे कानून के अनुसार शायद ही कभी सार्वजनिक प्रयोग में आते हैं। प्रवासी श्रमिकों को काम पर रखने के लिए कानूनी ढांचे की उपेक्षा कई बार भ्रम पैदा करती है कि सरकार उनके लिए कुछ कर रही है।
इसी बीच एक और खबर उत्तर प्रदेश से आयी है कि वहां के यशस्वी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हाल ही में उद्योगपतियों को और ज़्यादा अधिकार और छूट देते हुए श्रम क़ानूनों में तीन साल के लिए छूट देने का फ़ैसला लिया है। उत्तर प्रदेश के श्रम मंत्री ने बताया कि प्रदेश में 38 श्रम कानून लागू हैं और अब किसी भी उद्योग के खिलाफ लेबर डिपार्टमेंट एनफोर्समेंट नियम के तहत कार्रवाई नहीं की जाएगी। इस दौरान श्रम विभाग का प्रवर्तन दल श्रम कानून के अनुपालन के लिए उनके यहां नहीं जाएगा। उन्होंने कहा कि जो उद्योग कोरोना महासंकट के चलते बंद हैं या कमजोर हैं, उन्हें श्रम कानून में नरमी से फिर से चालू किया जा सकेगा। व्यापारिक प्रतिष्ठानों को फिर से चालू किया जा सके और श्रमिकों को इसमें सेवायोजित किया जा सके, इस मंशा से इस प्रस्ताव को मंजूरी दी गयी है।
ऐसे में कई मज़दूर संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने सरकार के इस फ़ैसले का कड़ा विरोध किया है। उनका कहना है कि सरकार मज़दूरों के शोषण और उनके साथ अन्याय को खुली छूट दे रही है। एक तरफ़ वैसे भी मज़दूरों को कई महीनों से तनख़्वाह नहीं मिली है और वे लॉकडाउन में अपने घर परिवार से दूर अप्रवासी जीवन गुज़ार रहे हैं। ऐसे में अगर उद्योग धंधे शुरू हुए तो नुक़सान की भरपाई के लिए उनका खूननिचोड़ शोषण होगा और वे आवाज़ तक नहीं उठा पाएंगे।
इलाहाबाद में मज़दूरों के संगठन ऐक्टू के नेता और राष्ट्रीय सचिव डॉक्टर कमल उसरी ने बताया कि ये सब राज्य और पूँजी के गठजोड़ का ही कमाल है कि शोषण इतना खुला और निर्मम है। लॉकडाउन के कारण जो अर्थव्यवस्था और उद्योग धंधों में मंदी आयी है उसकी भरपाई के लिए सरकारें कुछ भी कर सकती हैं। भारत में वैसे भी मज़दूरों को कोई ज़्यादा क़ानूनी अधिकार नहीं हैं। ऐसे में अगर सरकार थोड़ी बहुत क़ानूनी सुरक्षा भी मज़दूरों से छीन लेगी तो वे तो कहीं के नहीं रहेंगे।
चार राज्यों ने लॉकडाउन में अर्थतंत्र को सुचारू करने के लिए फैक्ट्रियों में 12 घंटे की शिफ्ट की अधिसूचना जारी की है। आठ घंटे कार्य दिवस का अधिकार मजदूरों के एक सदी के रक्तरंजित संघर्ष का परिणाम है।. इसे मई दिवस के रूप में मनाया भी जाता है। 1919 में अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन ने इसे अनुमोदित किया था। फैक्ट्री कानून, 1948 के अनुसार, कोई भी वयस्क कामगार एक सप्ताह में 48 घंटे से अधिक काम नहीं कर सकता और इस फ्रेमवर्क में कोई भी मजदूर 9 घंटे प्रति दिन से अधिक काम नहीं कर सकता। कानून के मुताबिक ओवरटाइम के घंटों के लिए मजदूरों को सामान्य दर से डबल की मजदूरी चुकानी होगी। गुजरात सरकार के नोटिफिकेशन के मुताबिक बढ़े हुए काम के घंटों के लिए दी जाने वाली मजदूरी वर्तमान मजदूरी के अनुपात में होगी। नोटिफिकेशन कहता है कि यदि आठ घंटे की मजदूरी 80 रुपए है तो इस अनुपात में 12 घंटे की मजदूरी 120 रुपए होगी।
कर्नाटक सरकार में बिल्डरों की दादागिरी!
मज़दूरों के बिना कोई भी राज्य या कारख़ाना सिर्फ़ ईंट पत्थरों का भवन ही होता है। इसकी बानगी हाल ही में कर्नाटक में देखने को मिली जहां पहले तो सरकार ने अप्रवासी मज़दूरों को उनके गृह राज्य में भेजने के लिए ट्रेनों का इंतज़ाम किया लेकिन बाद में उद्योगपतियों और बिल्डरों के दबाव में आकर उसे रद्द भी कर दिया।
कर्नाटक में 6 मई से 10 मई तक रोज दो ट्रेनें प्रवासी मजदूरों के लिए चलायी जानी थीं, लेकिन 5 मई को कर्नाटक में प्रमुख सचिव एन मंजूनाथ प्रसाद ने दक्षिणी पश्चिमी रेलवे (हुबली) के जनरल मैनेजर को खत लिखकर कहा कि उन्हें ट्रेनों की अब आवश्यकता नहीं है इसलिए ये ट्रेनें रद्द कर दी जाएं। पूर्व सूचना के अनुसार बंगलुरु से 6 मई को तीन ट्रेनों को बिहार के लिए रवाना होना था। मंगलवार को एक ट्रेन करीब 1200 प्रवासी मजदूरों को लेकर राजस्थान के जयपुर रवाना हुई थी, लेकिन अब बिहार, झारखंड, यूपी और दूसरे राज्यों के प्रवासी कामगारों और मजदूरों के घर वापसी मुश्किल हो गयी है। बंगलुरु मिरर के मुताबिक श्रमिक स्पेशल ट्रेन से घर वापसी के लिए कर्नाटक में बंगलुरु समेत दूसरे क्षेत्रों में फँसे 2.4 लाख प्रवासी मजदूरों ने घर जाने के लिए आवेदन किया था।
इस फ़ैसले के कुछ देर बाद मुख्यमंत्री कार्यालय के ट्विटर हैंडल से बताया गया कि मुख्यमंत्री के साथ बिल्डरों की बैठक में प्रवासी मजदूरों को लेकर चर्चा हुई है। रेड जोन को छोड़कर बाकी जगहों पर निर्माण और औद्योगिक कार्य शुरू हो गये हैं। ऐसे में मजदूरों के लिए गैरजरूरी यात्रा नियंत्रित की जाएगी। बिल्डरों ने भरोसा दिलाया कि वे मजदूरों और कामगारों को सभी आवाश्यक सुविधाएं देंगे। मंत्रियों को निर्देश दिए गए कि वे प्रवासी मजदूरों को उनके राज्यों में न जाने के लिए मनाएं।
मुनाफ़े पर टिकी इस उत्पादन व्यवस्था में मज़दूरों की अहमियत कितनी है, इसका अंदाजा इसी फ़ैसले से लगाया जा सकता है लेकिन इन उद्योगपतियों और सरकारों को मज़दूरों की जान और उनके स्वास्थ्य की कितनी ज़्यादा चिंता है इसका भी यह प्रत्यक्ष उदाहरण है।
आज जब पूरी दुनिया इस महामारी से जूझ रही है ऐसे में देश और दुनिया को चलाने वाले नित नये निर्माण करने वाले सभ्यता को बनाने वाले इन मज़दूरों के साथ अमानवीय व्यवहार चिंतनीय है। सरकार एक तरफ़ तो मज़दूरों के घर वापसी का जैसे तैसे इंतज़ाम कर भी दे रही है तो उसमें भी मज़दूरों से दोगुना तिगुना टिकट का पैसा वसूल किया जा रहा है। इसी देश में हज़ारों हज़ार विदेशी नागरिक भी हवाई यात्रा से वापस देश में लाये गये पर उनसे तो इस तरह दोगुनी तिगुनी वसूली नहीं हुई। यहीं राजस्थान के कोटा शहर से हज़ारों छात्रों को कई प्रदेश सरकारों ने बसों से अपने अपने घर भेजा लेकिन क्या उनसे भी इस तरह टिकट पकड़ाकर रक़म वसूली गई थी? जवाब है “नहीं”
अब भी वक्त है अगर सरकार उचित कार्ययोजना तैयार करके अप्रवासी मज़दूरों को उनके घर भेजने की दिशा में काम शुरू कर दे तो ये कोई मुश्किल काम नहीं है। बस ज़रूरत है इच्छाशक्ति की।
लेखक आइआइएमसी में पत्रकारिता के छात्र हैं