जो लोग यह बोलते या सचमुच विश्वास रखते हैं कि हिंदी भाषा तो अमृत है और उसका कुछ नहीं बिगड़ सकता, वह तो अक्षर है, उसका नाश नहीं हो सकता और एकाध विसंगतियां, एकाध गलत प्रयोग उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते, वे या तो स्थिति की भयावहता से सचमुच अंजान हैं या बहुत बड़े आशावादी हैं या फिर महाधूर्त हैं।
एक बड़े मीडिया समूह में कार्यरत व्यक्ति की सुनिए: ‘तकनीक और उस पर निर्भरता ने सचमुच पत्रकारिता और भाषा की लय बिगाड़ दी है। पत्रकारिता की इसलिए कि जब मशीन आपको बताने लगे कि कौन सी खबर कितनी देर रखनी है, या उसके ‘यूनीक व्यूज़’ ही उसकी गुणवत्ता निर्धारित करने लगें, तो मानवीय इंटेलिजेंस और सरोकार (इसमें भावनात्मक और मूल्यगत बोध शामिल हैं) का तिया-पांचा वैसे ही हो चुका है। भाषा के मामले में खबर ये है कि तकनीक अब सही लिखे को लाल रंग में घेरकर बताने लगी है कि आप दरअसल गलत लिख रहे हैं।’
इसे एक उदाहरण से और साफ करना चाहिए। आज गूगल को गूगल बाबा, गुरु और हरेक मर्ज की दवा कहा जाता है। गूगल वस्तुत: है क्या? वह हमारे-आपके जैसे करोड़ों-अरबों नेटिजन्स के डिजिटल फुटप्रिंट का ही तो संग्रह है। मान लीजिए कि किसी विषय पर अधकचरी या पूरी तरह जाली बात ही SEO (सर्च इंजन ऑप्टिमाइजेशन) की कृपा से प्रभावी हो जाए, तो किसी भी नये खोजने वाले को वही जानकारी तो दिखेगी। फेक न्यूज़ के प्रसार और ह्वाट्सएप यूनिवर्सिटी के अबाध ज्ञान-प्रवाह के पीछे भी यही तर्क काम करता है।
विकिपीडिया को कोई भी एडिट कर सकता है। इसीलिए, विकीपीडिया की जानकारी को गंभीर लोग या तो विश्वास के योग्य नहीं मानते या कई बार उसकी जांच दूसरे स्रोतों से करने के बाद ही मानते हैं। गूगल पर भी शोध करने के लिए शोधकर्ता का उस विषय का जानकार होना जरूरी है, वरना वह इंफॉर्मेशन, मिसइंफॉर्मेशन, डिसइंफॉर्मेशन और प्रॉपैगैंडा के महासागर में डूब कर रह जाएगा, ज्ञान के मोती चुनना तो खैर दूर की बात है।
अनामंत्रित: हिंदी के पतन की वजह न्यूजरूम में बैठे आलसी, अक्षम और जड़बुद्धि लोग हैं
एक संपादक के अनुसार चूंकि गलत हिंदी इतनी अधिक मात्रा में लिखी जा रही है कि ‘आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस’ उसे ही सही हिंदी मानकर अपनी स्मृति में संचित कर रहा है और जब उसका सामना ‘शुद्ध हिंदी’ से हो रहा है, तो वह उसे लाल रंग में घेरकर वापस कर दे रहा है। यानी, कॉलेज-यूनिवर्सिटी में शुद्ध हिंदी बोलने पर पंडितजी, गंवार, वर्नाकुलर, देसी बॉय या गर्ल, भदेस इत्यादि कह कर मजाक उड़ाने के फिजिकल समय से आज शुद्ध को गलत और अशुद्ध को वर्चुअली सही कहने तक की यात्रा पूरी हो चुकी है। यहां भी एकाध उदाहरण से बात और साफ होगी।
‘अस्मिता’ व्याकरणिक तौर पर गलत शब्द है, लेकिन अज्ञेय ने इसे चलाया तो यह चल गया, यूं अज्ञेय ने कई नये शब्द दिए। कुछ चले, कुछ नहीं चले। इस शब्द पर नामवर सिंह और शुकदेव सिंह के बीच काफी लंबी डिबेट चली। गोस्वामी तुलसीदास के प्रयोग देखें तो उन्होंने रामचरितमानस में ‘बाज:’ तक का प्रयोग कर दिया है। अब बताइए, बाज तो फारसी शब्द है, जबकि उसमें विसर्ग लगाकर तुलसीदास ने प्रयोग कर दिया है। कवि-स्वातंत्र्य और आप्त होने की वजह से वह प्रयोग चल गया, लेकिन वह आदर्श तो नहीं हो सकता न।
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अब चूंकि ‘वर्त्तमान’ या ‘कार्यकर्त्ता’ जैसे शब्द कालबाह्य होकर ‘वर्तमान’ और ‘कार्यकर्ता’ ही सर्वमान्य हो चुके हैं, तो इनको तो लगभग 100 फीसदी डिजिटल स्वीकार्यता मिल चुकी है। यहां तक कि अगर किसी ने कॉपी में गलती से ‘कार्यकर्त्ता’ लिख दिया तो उसे क्रॉस कर सही ढंग से लिखना (!) सिखा दिया जाता है। डिजिटल में वाच्य यानी डायरेक्ट-इनडायरेक्ट स्पीच की धज्जियां उड़ चुकी हैं, तो आप जब प्रधानमंत्री द्वारा किसी समारोह के उद्घाटन की खबर देखेंगे तो कॉपी देखकर आपको यह नहीं पता चलेगा कि कौन सी बात प्रधानमंत्री ने कही है, कौन सी बात समारोह के बारे में है और कौन सी बात रिपोर्टर या मीडिया-संस्थान कर रहा है। जैसे-
पीएम ने हॉकी खिलाड़ियों से बात करते हुए उन्हें देश का मान बढ़ानेवाला बताया। कहा कि मैं आपके प्रदर्शन से बहुत खुश हूं और आपको रोना नहीं चाहिए। हौसला बढ़ाया। कहा- वह देश के लिए खेले और उनके मेडल न मिलने से कोई फर्क नहीं पड़ता।
अगर इस वाक्य को सुधारकर आप कुछ ऐसा लिखें:
प्रधानमंत्री ने हॉकी खिलाड़ियों से बात की और उन्हें देश का मान बढ़ानेवाला बताया। उन्होंने कहा कि वह खिलाड़ियों के प्रदर्शन से बहुत खुश हैं और उन्हें रोना नहीं चाहिए। हौसला बढ़ाते हुए मोदी ने कहा कि खिलाड़ी देश के लिए खेले और मेडल न मिलने से कोई फर्क नहीं पड़ता।
ऊपर तस्वीर देखिए: आपके पास जो लाल घेरा लगा शब्द वापस आएगा, उसमें दूसरे वाक्य में पीएम के लिए प्रयुक्त ‘उन्होंने’ होगा। ऐसा इसलिए होगा क्योंकि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस तक इतना कूड़ा इकट्ठा हो चुका है कि वह समझ रहा है कि इनडायरेक्ट स्पीच में सीधा ‘कहा’ से ही वाक्य शुरू होना ठीक है, ‘उन्होंने’ की इसमें कोई जरूरत नहीं। ऐसे दर्जनों उदाहरण आजकल डिजिटल वर्ल्ड में मिल रहे हैं।
समस्या के विभिन्न आयामों पर अब तक बात हुई है, लेकिन समाधान पर कब बात होगी? कोई समाधान है भी या अंदाज से हवा में लाठी चलायी जाएगी, या केवल समस्याओं को इंगित कर छोड़ दिया जाएगा?
उपर्युक्त समस्या का एक समाधान तो तत्काल यही दिखता है कि काउंटर-रिवोल्यूशन हो, यानी जितनी मात्रा में गलत या अशुद्ध हिंदी का उत्पादन हो रहा है उसके मुकाबले जो भी लोग सही हिंदी लिखना-पढ़ना जानते हैं, भले ही वे कम हों, लिखना जारी रखें। उनके डिजिटल फुटप्रिंट ही इस लड़ाई में तय करेंगे कि आखिरकार कैसी भाषा जिंदा बच जानी है। जब व्याकरण को आपने-हमने अपने पाठ्यक्रम से ही निकाल ही दिया तो फिर मशीन से कैसे और क्यों उम्मीद करते हैं कि वह शुद्ध लिखेगी या बोलेगी।
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