छत्तीसगढ़ अपेक्षाकृत एक नया राज्य है। जाहिर तौर पर वहां कई नये जिलों का भी निर्माण हुआ। अब वहां का एक जिला है जीपीएम- उसमें तीन कस्बे या गांव हैं। गौरैला, पेंड्र और मरवाही। इनको जिले बनाने की मांग काफी लंबे समय से चल रही थी। सरकार ने इसको बना भी दिया, लेकिन इस डर से कि तीन में से एक के नाम पर अगर जिले का नाम रख दिया गया, तो बाकी दो बुरा मान जाएंगे और आंदोलन पर उतारू हो जाएंगे, इसलिए सरकार ने वह काम किया जो लंबे समय से सरकारें करती आ रही हैं। जो भी समस्या है, उसके वास्तविक निराकरण की जगह सबका घोर-मट्ठा कर दो, खिचड़ी बना दो और दीर्घकालिक की जगह तात्कालिक समाधान कर दो। इस तरह एक भले जिले का नाम पड़ गया- जीपीएम। ऐसा ही कुछ हिंदी के साथ भी हुआ है।
मुल्क की आजादी के बाद हमारे हुक्मरानों के पास बड़ा मौका और गंभीर चुनौती थी कि वे एक कुशल जर्राह की तरह इस पीड़ित देश के घाव का ऑपरेशन कर इसे स्वस्थ बनाते, लेकिन उन्होंने तत्काल कुछ एंटीबायोटिक देकर घाव को सुखा दिया, जो बाद में अपने वीभत्सतम रूप में फिर से निकला और उसके मवाद को हम आज तक पोंछ रहे हैं। पंडित नेहरू को दूरद्रष्टा कहा जाता है, हो भी सकते हैं, लेकिन भारत में भाषा के मामले में उनसे बड़ी चूक हुई, यह आज की परिस्थिति को देखकर बिल्कुल साफ है। इसके तीन बिंदु कुछ इस तरह हैं-
क) दुनिया के अधिकांश देशों पर ब्रिटिश झंडा उस समय था और हमारे साथ कई और मुल्क भी आजाद हुए। किसी ने अपनी भाषा को छोड़कर अंग्रेजी को इस तरह से नहीं अपनाया कि उसकी रीढ़ ही टूट जाए; वह केवल-कुलियों से साइबर कुलियों तक की आपूर्ति करने वाला देश रह जाए।
ख) हिब्रू तो लगभग विलुप्त थी। इजरायल जब बना तो भयंकर श्रम और संसाधन फूंककर उसने हिब्रू को जिंदा किया और आज इजरायल की ठसक देख लीजिए।
ग) यह ठीक है कि भारत जैसी मिश्रित और कई संस्कृतियों, भाषाओं की भूमि पर आप लाठी लेकर एकीकरण का काम नहीं कर सकते, लेकिन त्रिभाषा फॉर्मूले की जगह द्विभाषा फॉर्मूले को रखने में ही क्या दिक्कत थी? अंग्रेजी के सर्वमान्य आधिपत्य से हमारा फायदा होने की जगह नुकसान अधिक हुआ है, यह तो इतिहास ने ही साबित कर दिया है। आप संपर्क भाषा हिंदी को बनाते और बाकी भारतीय भाषाओं को जरूरत के मुताबिक ‘न्यूमिरो ऊनो’ बनाते।
इस संदर्भ में ‘जनपथ’ पर 31 जुलाई को प्रकाशित एक लेख में औपनिवेशिक सत्ता के जिस सांस्कृतिक वर्चस्व की बात की गयी है और ग्राम्शी आदि का हवाला दिया गया है, उसे इज़रायल के परिप्रेक्ष्य में समझना जरूरी होगा। आखिर को यहूदी भी एक प्रताडि़त कौम थे जिनके पास अपना देश तक नहीं था, संघर्ष और प्रतिरोध उन्होंने भी किया, लेकिन क्या वजह थी कि वहां शासकों का सांस्कृतिक वर्चस्व काम नहीं कर सका और एक मृतप्राय भाषा को उन्होंने न सिर्फ ख़ड़ा कर दिया बल्कि आज भू-राजनीति की धुरी बना बैठा है।
इतिहास हमें बताता है कि कभी दक्षिण भारत से हिंदी के पक्ष में आंदोलन हुए थे, वहां हिंदी सीखने-सिखाने का उत्साह था। खुद मोहनदास करमचंद गांधी एक गुजराती थे, लेकिन उन्होंने हिंदी के पक्ष में हमेशा कहा, लिखा और काम किया। तत्कालीन शीर्ष नेताओं में कम ही थे या होंगे, जिनकी मातृभाषा हिंदी थी, फिर भी उन्होंने हिंदी को संपर्क भाषा के तौर पर, राष्ट्रभाषा के तौर पर विकसित और लोकप्रिय बनाने की वकालत की। त्रिभाषा फॉर्मूले और ‘लोग जब तैयार हो जाएं’ के झुनझुने ने हिंदी का कम अ-कल्याण नहीं किया है। दूसरी, जो दिक्कत हुई वह हिंदी के नाम पर, उसके विकास के नाम पर जिस तरह ‘सरकारी हिंदी’ बनायी गयी, उसने हिंदी से प्यार करने वालों को भी दूर कर दिया। इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण यूपीएससी का प्रश्नपत्र है, जिसका हिंदी तर्जुमा अगर आप पढ़ लें तो हंसते-हंसते लोटपोट हो जाएंगे। अंग्रेजी के भाव को पकड़ने की जगह उसका शाब्दिक अनुवाद करने वाले सरकारी बाबू ही हैं, जो इजरायल की मिसाइल डिफेंस तकनीक ‘आयरन डोम’ का अनुवाद ‘लौह गुंबद’ कर देते हैं। कंप्यूटर को संगणक और ट्रेन को लौहपथगामिनी बनाने का चुटकुला सृजित करने का श्रेय भी इनको ही दिया जाना चाहिए।
शुरुआती लड़खड़ाहट का ही परिणाम है कि आज हमारे पास व्यावहारिक हिंदी के तीन प्रारूप हैं- सरकारी, अखबारी और नयी हिंदी (जो भूमंडलीकरण के बाद की पीढ़ी की भाषा है, जिसे हिंग्लिश, हिंग्रेजी या ह्वाट्सएप भाषा भी कह सकते हैं)। सरकारी हिंदी महज 1 या 2 फीसदी लोग पढ़ते हैं, अखबारी हिंदी बहुत तेजी से नयी हिंदी की ओर ढलती जा रही है और नयी हिंदी इतनी पतित हो चुकी है कि वह हिंदी के अस्तित्व को ही लीलने को तैयार है। यह कितने मजे की बात है कि स्वतंत्रता के महज सात दशक बीतने के बाद हम उस भाषा को लेकर, उसके अस्तित्व को लेकर बात कर रहे हैं जो इस देश में अब भी सबसे अधिक बोली, समझी और लिखी जाती है। यह हिंदी को ‘सहज-सरल’ बनाने की दुर्योगप्रेरित सदिच्छा ही है, जो हिंदी का सर्वनाश कर रही है।
हिंदी के प्रश्न पर प्रेमचंद का जिक्र मौजूं होगा। क्या उनकी भाषा से सहज, सरल और संप्रेषणीय हिंदी कोई भी आज का पत्रकार, अध्यापक या हिंदी का अध्येता लिख सकता है? उन्होंने भी अपनी हिंदी में फारसी की खूब छौंक लगायी है, यहां तक कि अंग्रेजी के भी शब्दों का प्रयोग किया है, लेकिन हिंदी के व्याकरण और नियमों की हत्या करने को शायद ही वह जायज ठहराते। निराला ने ‘मुक्त छंद’ को बढ़ावा देकर हिंदी कविता को प्रयोग सिखाया, उसे बंधन-मुक्त किया, लेकिन उनके बाद प्रयोग के नाम पर कविता के साथ जो कुछ हुआ क्या वह उसे ठीक ठहराते?
प्रेमचंद से ही हमें अपने मूल सवाल का जवाब भी मिलता है जो इस आलेख की शुरुआत में ही पूछा गया है, ‘क्या अंग्रेजी के बिना हमारा काम चल सकता था’? बिल्कुल चल सकता था, सौ फीसदी चल सकता था। एक बात याद रखने की है कि प्रेमचंद और उनके समकालीन फारसी में लिखते-बोलते थे क्योंकि वह शासन की भाषा थी (अब भी कचहरियों में क्या लिखा जाता है, आप पढ़ और समझ लें तो आपको धन्यवाद है)। अंग्रेजी के प्रतिष्ठित होने के बाद फारसी हटी और देश का काम चल ही गया। उसी तरह अगर आप रातोंरात अंग्रेजी को हटा देते तो भी काम चल ही जाता। कुछ परिवर्तन ऐसे होते हैं, जो धीरे-धीरे, समय के साथ नहीं आते। उनको झटके में लाना होता है, मेहनत तो लगती ही है। भाषा तो अधिपतियों की होती है और अर्थशास्त्र इसके मूल में है, लेकिन यह अलग आलेख और अलग समय का विषय है।
आज के भारत को देखें तो भाषा और आरक्षण का सवाल कुछ ऐसा ही है, जिसे समय के साथ ठीक हो जाने का ख्वाब देखा गया था, लेकिन आज हम देखते हैं कि मर्ज बढ़ता गया, ज्यों-ज्यों दवा की। हिंदी के समर्थन का मतलब अंग्रेजी या किसी भाषा का विरोध नहीं है, न ही हिंदी को कोई ऐसी चीज बना देना जो भाषा के तौर पर अपनी पहचान ही खो बैठे। दुर्भाग्य से आजाद भारत में यही दोनों काम हुए हैं।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)