हर साल की तरह इस बार फिर मई दिवस का दिन गुज़र गया, जिसे मज़दूर दिवस के नाम से भी जाना जाता है। इस बार ये दिन कुछ ख़ास था क्योंकि दुनिया भर में कोरोना वायरस संक्रमण से बचने की खातिर चल रही महाबंदी (लॉकडाउन) में अधिकतर कामकाज या तो बंद हैं या निम्न स्तर पर चलाये जा रहे हैं। जहाँ की सरकारें और समाज हम से बेहतर हैं उन्होंने अपने मज़दूरों के लिए भी बेहतर इन्तेज़ामात किये हैं – जैसे स्वीडन, ताइवान, न्यूज़ीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, जर्मनी, फ्रांस, नेदरलैंड्स, खाड़ी देश, वगैरह वगैरह। जहाँ का समाज या तो पतित है या सरकारें चोर या कामचोर हैं वहां इस महामारी को एक राजनीतिक मौक़े के हिसाब से लिया गया है। इसमें भारत का स्थान सर्वश्रेष्ठ प्रतीत होता है।
महामारी का संक्रमण अभी रुका नहीं है बल्कि महाबंदी के पहले दिन से कई गुना बढ़ चुका है। प्रोटेक्टिव किट्स का अभाव अस्पतालों में अब भी है। पुलिस लॉकडाउन को क़ायम रखने के लिए जनता के साथ सख़्ती से पेश आ रही है। गोदी मीडिया सरकार से सवाल पूछने के बजाय संक्रमण का कारण तब्लीग़ी जमात को बता चुकी है और दूरदर्शन रामायण और महाभारत दिखा रहा है। सरकार जनता से ताली और थाली पिटवा कर दिवाली मनवा चुकी है और जनता लाचार या तो अपने घरों में बंद महाबंदी का पालन कर रही है या किसी जगह फँसी हुई है। जिनके पास ये दोनों विकल्प भी नहीं, वो बेतहाशा हताश होकर सैकड़ों मील सड़क पर चलते और दम तोड़ते नज़र आये- जिन्हें प्रवासी मज़दूर के नाम से जाना गया। आज भी उनकी घर वापसी के सारे प्रयास दुःखद है।
कोरोना वायरस संक्रमण और ग्लोबल महाबंदी के विषय पर विश्लेषण जारी है और आने वाले समय में कई किताबें भी लिखी जाएंगी। दुनिया भर में भारत से ज़्यादा बदतर स्थिति मरीज़ों की कई देशों से आयीं। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि उन देशों में टेस्टिंग मुस्तैदी से लागू हुई। साथ ही साथ वहां की मीडिया और सरकारें आंकड़ों को छुपाने में असमर्थ रहीं, परंतु किसी और देश की मुक़ाबले भारत की तस्वीरें भयावह दिखीं। अन्य देशों की तरह ये तस्वीरें कोरोना मरीज़ों की नहीं थीं बल्कि हमारे निर्लज्ज समाज और हमारी व्यवस्था की थीं। ये तस्वीरें हमारे ठगपतियों और मध्यवर्गीय असंवेदनशील मानसिकता की थी। ये तस्वीरें उस अधमरे तंत्र की थीं जिसको ज़िंदा रखने के लिए हमने विकृत मानसिकता के नेतृत्व का चुनाव किया। ये तस्वीरें उन असहाय नागरिकों की थी जिन्हें हम मज़दूर के नाम से जानते हैं।
यूँ तो हर किस्म की नौकरी करने वाले मज़दूर कहलाने के हक़दार हैं पर कुछ ने अपना हक़ अपनी सेवा के अनुपात में बहुत ज़्यादा जमा रखा है, इसलिए खुद को बाबू या साहेब समझते हैं। हद तो ये है कि किसी विभाग के हेड क्लर्क को बड़ा-बाबू कहा जाता है। खैर बात इनकी भी नहीं हो रही क्यूंकि ये सारे लोग स्वार्थ और मध्यवर्गीय मानसिकता से ग्रस्त हैं- जो कामचोरी अथवा सुविधाभोगी जीवन के बीच अपने विवेक के साथ साथ बौद्धिक, नैतिक और मानवीय मूल्यों को बेच चुके हैं। इस वर्ग की खासियत ये है कि ये जोखिम भरे कामों से कोसों दूर भागता है लेकिन पके पकाये मालपुआ में सबसे पहले दावेदारी यही ठोंकते नज़र आता है। किसी भी देश में भ्रष्टाचार की जड़ों को मज़बूत करने में इस वर्ग की भूमिका ख़ास होती है।
दूसरी तरफ पूंजीपति जुआ खेलने के शौक़ीन होते हैं लेकिन इनकी अथाह लालच और असीम असुरक्षा का भाव पूरे तंत्र को ले डूबता है क्योंकि जुए में खेल के साथ खिलवाड़ होना शुरू हो जाता है। पत्ते को पीसने, बांटने, दाबने और दिखाने के बीच की कलाकारी में मध्यवर्गीय बाबू अथवा साहेब की अहम् भूमिका होती है और गड़बड़ खेल से जीती हई रक़म का हिस्सा बड़ा बाबू से लेकर चपरासी तक पहुँचता है। ये सब गड़बड़ घोटाले के मुखिया होते हैं नेतागण जिन्हे पूंजीपति सबसे पहले खोपचे में ले चुके होते हैं क्योंकि उन्हें चुनाव जीतना होता है, वो भी काम का जोखिम लिए बिना, मंत्रिपद पर बने रहने की लालसा उनसे अवाम का सौदा करा डालती है। कारण? स्वार्थ और सुविधाभोगी राजनीति, जिसके द्वारा जन्म लेती है फूट डालो और शाषण करो की कुप्रथा और अवाम निरंतर कई भागों में बंटती चली जाती है।
इस बंटाधार का इतिहास प्राचीन है, जो नस्लों, कबीलों, वंशों, क्षेत्रों या साम्राज्यों इत्यादि के लिबास में परस्पर मौजूद बना रहा है परंतु आधुनिक भारत में इसका आधार मूल रूप से लोकतान्त्रिक चुनावी समीकरण ही रहा है, जिसकी वजह से हमें 1947 का दुःखद बंटवारा भी देखना पड़ा। उसके बाद आज़ाद हिंदुस्तान में पंडित जवाहरलाल नेहरू ने विविधताओं को देखते हुए ‘अनेकता में एकता’ की कल्पना भी की, जो आज मात्र एक नारा सा प्रतीत होता है। ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ की जगह लोग अपना अपना राग अलापने लगे और सुर आज कोलाहल में बदलता दिखाई दे रहा है। देश की राजनीतिक पार्टियां अपनी अपनी विचारधारा अनुरूप अवाम का बंटाधार करने में लग गयीं, जिनके आधार धर्म, जाति, क्षेत्र, मूलनिवासी और मज़दूर बने। यहाँ तक कि राजनीतिक पार्टियों के भी बंटवारे होने लगे और अवाम एक से अनेक होती चली गयी।
दूसरी तरफ जिसका कभी नामोनिशां नहीं था, जो मुखबिरी और माफीनामे में संलिप्त थे, जिनका आज़ादी में कोई योगदान नहीं था, जिनके ऊपर संगीन अपराधों के कई मुक़दमे दायर हुए और मुजरिम भी पाये गये, जिन्हें आज़ाद हिन्दुस्तान में तीन मर्तबा प्रतिबंधित किया गया, जो हाल फिलहाल के जन्मे, जिनका राजनीतिक क़द एक चूहे से ज़्यादा कुछ भी नहीं था, वो आज फूल-फाल कर हाथी बने बैठे है। जिनका प्रतीक हाथी था उनकी हालत आज एक चूहे से भी गयी गुज़री हो गयी। ठीक उसी तरह हाथ कभी मुट्ठी नहीं बन सका क्योंकि पंजा निरंतर कमज़ोर होता चला गया। जो मज़दूरों की अगुवाई करते थे वो हंसिया, बाली, हथौड़ा और चंद सितारों के बीच बंट कर रह गये। जो बच गये उनमें किसी को सायकिल हाथ लगी, किसी को लालटेन, तीर, घड़ी, कार, पंखा, झाड़ू तो किसी के हाथ केला आया।
अब मज़दूर भी सिर्फ मज़दूर नहीं रहे। उन्हें प्रवासी मज़दूर, बाल मज़दूर, बंधुआ मज़दूर, निर्माण मज़दूर, फैक्ट्री वर्कर, डोमेस्टिक वर्कर, रेलवे वर्कर्स, ऑटो वर्कर्स, इत्यादि नामों के बीच बांटा गया। उसी हिसाब से ट्रेड यूनियन्स का भी निर्माण होता चला गया जिनका प्रतिनिधित्त्व यूनियन्स के चंद नेता करते रहे, जिन्हें मौके के हिसाब से खोपचे में लिया जाने लगा- वो कभी ठेकेदार के हाथों बिके, कभी सरकार के हाथों, कभी व्यापार, कारोबार तो कभी सट्टेदार के हाथों। यही वजह है कि आज अधिकतर मज़दूर संघ, संघ नहीं रह गये। मिसाल के तौर पर दिल्ली में ऑटो चालकों का कोई एक संघ नहीं हैं, अनेक संघ मौजूद हैं। यही हाल तकरीबन हर जगह बाकी ट्रेड यूनियन्स का भी है – वो या तो क्षेत्रों, कामों, या नेतृत्व के बीच बंटे हुए हैं।
मज़दूर की एकमात्र पूंजी उसका श्रम है – फिर फर्क नहीं रहता कि वो कुदाल चलाये या हथौड़ा, ऑटो चलाये या ई-रिक्शा, सड़क बनाये या बिल्डिंग, जंगल काटे या पहाड़ तोड़े, बस चलाये या बुलडोज़र – उसके हाथ को काम चाहिए और काम का पूरा दाम चाहिए। लेकिन बंटाधार से उन्हें कौन बचाये? उनके संघ निरंतर बंटते चले जा रहे हैं। दूसरी ओर जिसे पूरा देश संघ समझ बैठा है उनका श्रम से कोई लेना देना नहीं है। वो दरअसल रूढ़िवादी पोंगा-पंडितों की जमात है, जो धर्म नामक अफीम की तस्करी करते हैं और सेवा के नाम पर स्वयंसेवा की डकार लगाते हैं। पहले इनकी हालत ठीक नहीं थी तो हाफपैंट पहन कर घूमते थे, आज थोड़े संपन्न हुए तो फुलपैंट पहनने लगे।
अब जब पार्टियां ही इतने खेमों में बंट चुकी हैं तो मतदाताओं का बंटाधार निश्चित है। फिर उस सनकी हाथी का मुक़ाबला कौन करे जो धर्म नामक अफीम की तस्करी कर झूम रहा है और नयी युवा पीढ़ी को सस्ता गांजा फुंकवा रहा है? विपक्ष की आवाज़ें दबी नहीं बल्कि कमज़ोर हुई हैं क्यूंकि एक का मसला दूसरे का नहीं। ऐसे में ट्रोजन हॉर्स की परिकल्पना कोई करे भी तो कैसे करे? उसके लिए भी सबको एक ही घोड़े के अंदर घुसकर लड़ने के लिए तैयार होना होगा। फिर ट्रोजन हॉर्स बनाये कौन? बन भी जाये तो हर खेमे में पलटू राम जैसे कई नेता हैं। फिर ये सारा खर्च उठाये कौन? वो भी तब, जब सारे धन का आभूषण पहने हाथी बैठा इठला रहा है। विकल्प बूढ़ी हड्डियों के हाथ में नहीं, विकल्प हमेशा युवा पीढ़ी प्रदान करती है।
आज देश भर में मज़दूरों का पलायन 1947 में हुए बंटवारे के पलायन की याद ताज़ा कर देता है। तब देश बंट रहा था, आज देश के भीतर समाज बंटा हुआ दिखाई दे रहा है।
लेखक समाजशास्त्री और राजनीति विशेषज्ञ हैं
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