धर्मानुग्रही न्यायप्रणाली के दुष्प्रभाव


मनोवैज्ञानिकों के अनुसार व्यक्ति में नकारात्मक और सकारात्मक दोनों प्रकार की प्रवृत्तियां मौजूद रहती हैं। समाज में शांति और व्यवस्था के लिए आवश्यक है नकारात्मक प्रवृत्तियों का शमन तथा सकारात्मक वृत्तियों की रक्षा एवं प्रोत्साहन। धर्मानुग्रही न्याय-प्रणाली का सहारा लेकर इस देश का अभिजन वर्ग सहस्राब्दियों तक समाज के शीर्ष पर विराजमान रहा है। महाभारत में वह कृष्ण के बहाने धर्म को बीच में ले आता है— ‘यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लार्निभवति भारतः…।’

आम आदमी खुद को धार्मिक मानता है। हर चीज को वह आस्था के नजरिये से देखता है, किंतु धर्म और न्याय की युति को समझ पाना उसके सामान्य बुद्धि-विवेक से बाहर होता है। आस्था की आंच पर रोटियां सेंकने वाली धार्मिक शक्तियां, जनविवेकीकरण के लिए कोई प्रयास भी नहीं करतीं। उनकी स्वार्थ-केंद्रित दृष्टि, सामयिक सामाजिक स्थितियों की मनमानी व्याख्या करती है, हालांकि धर्म आमजन के भावुक, भक्ति-आकुल मन को देखने-सुनने में खूबसूरत लगता है और उस पर वह आंख मूंदकर भरोसा भी कर लेता है। नतीजन यह अभिजनोन्मुख न्याय सीधी-सादी लीक से उतरकर, आम आदमी की पहुंच से बाहर निकल जाता है। इसीलिए घोर सामंती, अब राजनीतिक परिवेश में रंगाचुंगा न्याय, बनावटी एवं ऊपर से थोपा हुआ प्रतीत होता है।

धार्मिक नेतृत्व इसकी कतई परवाह नहीं करता। वह आम आदमी के दुख-संत्रास, घुटन और अभावों को उसकी नियति बताकर अपना उल्लू सीधा करने में लगा रहता है। महाभारत की व्याख्या कि कृष्ण न्याय के पक्ष में है, इसी से निकली है। महाभारत में कृष्ण का पक्ष कहीं न कहीं राजसत्ता का पक्ष भी है, जिसमें विजेता का समर्थन करने के लिए अनुकूल तर्क अपने आप गढ़ लिए जाते हैं। वहां कृष्ण ही दंड-पाशक हैं, वे ही न्यायाधीश। महाभारतकार को भी कृष्ण का पक्ष न्याय का पक्ष लगता है। बाकी कथापात्र तो उसकी कलम की कठपुतलियां हैं।

‘परित्राणाय साधूनाम—विनाशाय च दुष्कृताम्’— महाभारत में अपने आगमन का औचित्य सिद्ध करने के लिए कृष्ण ने यही कहा है। इसको यूं अन्यथा भी नहीं कहा जा सकता। ‘सज्जनों का कल्याण तथा दुर्जनों का विनाश’— यह किसी भी न्याय-व्यवस्था का आदर्श हो सकता है, किंतु धर्मानुप्रेत परंपरागत न्याय प्रणाली यहीं तक सीमित नहीं रहती। इसके पीछे उसकी कुछ दूसरी ही मंशा होती है।

इन सन्दर्भों के परिप्रेक्ष्य में हम आज की न्याय व्यवस्था को देख सकते हैं कि वहां किस तरह न्याय की निरपेक्षता का ध्यान रखा जाता है। कुछ सीधे आपराधिक मामलों को छोड़ दें तो न्याय और अन्याय की पहचान का मामला बड़ा जटिल है। कई बार तो उलझन खड़ी हो जाती है। जो बात किसी खास संदर्भ में न्याय लगती है, संदर्भ बदलते ही वह अन्याय प्रतीत होने लगती है। ऊहापोह के दौरान शीर्षस्थ शक्तियां चतुराईपूर्वक अपने स्वार्थ को बीच में ले आती हैं। अब प्रभावशाली और धनाढ्य व्यक्तियों को यह भरोसा हो जाता है कि निर्णय उनके पक्ष में ही जाएगा क्योंकि वे वकीलों को अच्छे पैसे दे सकते हैं और आपराधिक न्याय प्रणाली को प्रभावित कर सकते हैं। पुलिस की तफ्तीश को अपने पक्ष में मोड़ लेना एवं गवाहों को बदल लेना उनके लिए संभव होता है। अगर वे धर्म और राजनीति से जुड़े होते हैं तो कोई उनका बाल भी बांका नहीं कर सकता। आज बहुसंख्य राजनेता और धर्मगुरु इसके सटीक उदहारण हैं। धर्म और राजनीति का सदैव यही संग-साथ रहा है, चाहे वह महाभारत का युग हो या इक्कीसवीं सदी का भूमंडलीकृत युग। सामान्य नागरिक सदैव दोमुंही न्यायव्यवस्था का शिकार रहा है।

अब अगर आसाराम बापू को सभी किस्म के राजनेता सरंक्षण देते हैं तो हमारी सामाजिक परंपरानुसार यह स्वाभाविक भी है और स्वीकार्य भी क्योंकि हम सदैव शक्तिशाली व समर्थ को ही अनुकरणीय मानते हैं। फिर चाहे हम एक अत्याधुनिक विकसित समाज के ही अंग क्यों न हों।

अगर सहज रूप में स्वाभाविक तरीके से स-विवेक सोचा जाय तो न्याय की आधारशिला इस विश्वास पर टिकी होती है कि मनुष्यों में अच्छे भी हैं और बुरे भी। सभी समाज में साथ-साथ रहते हैं। यह बात भी हम अच्छी तरह जानते हैं कि अच्छाई और बुराई सापेक्षिक स्थितियां हैं। एक के लिए जो अच्छा है, वह दूसरे के संदर्भ में बुरा हो सकता है। कह सकते हैं कि न्याय संभाव्यता के सिद्धांत के आधार पर काम करता है। यानी जो साधारणतः अच्छा और तर्कसम्मत है, वही न्यायसम्मत भी है— ऐसा मान लिया जाता है। यद्यपि इसमें चूक होने की पर्याप्त संभावना होती है।

न्यायिक एवं तर्कसम्मत के आकलन का पैमाना न्याय संस्था का अपना पैमाना होता है। इसे प्रायः वे लोग बनाते हैं, जो न्याय का मनमाना उपयोग करने में पारंगत होते हैं। समर्थन के लिए स्याह को सफेद और सफेद को स्याह सिद्ध करना बाखूबी जानते हैं। इसके लिए विशेषज्ञों की पूरी टीम उनके साथ होती है। उनकी भाषा और कार्यशैली आम आदमी की समझ से सर्वथा परे होती है। जरूरत पड़ने पर त्राण की उम्मीद में, उसे अंततः उन्हीं लोगों की शरण में जाना पड़ता है जो न्याय के बारे में उसके अल्पज्ञान का लाभ उठाने के लिए अपनी गिद्ध-दृष्टि उसपर जमाए होते हैं। वे न केवल उसकी अज्ञानता का लाभ उठाते हैं, बल्कि येन-केन-प्रकारेण यह विश्वास भी उसके दिलो-दिमाग में बसा देते हैं कि संसार में केवल वही उसके सबसे बड़े शुभेच्छु एवं हितचिंतक हैं। उनके प्रोफेशनल बौद्धिक वर्चस्व को स्वीकार कर चुका व्यक्ति उनपर आसानी से विश्वास कर लेता है। यह प्रवृत्ति उसे देर-सवेर समझौतावादी एवं प्रगति-विरोधी बना डालती है।

आजादी के बाद से ही भारतीय लोकतंत्र में लोक की यह अपेक्षा रही है कि यहां के लोगों/नागरिकों को सही सुरक्षा और न्याय मिले। आम भारतीय पर्याप्त लंबे समय से न्यायपालिका और पुलिस जिन्हें औपनिवेशिक व्यवस्था में शासन का अंग माना गया था, दोनों ही संस्थानों से त्रस्त, आतंकित और हताश है। आज समाज की संवेदनहीनता के कारण अक्सर दुर्घटना और हिंसक अपराधों से पीड़ित जन दम तोडते रहते हैं। उनकी सहायता करने से तथाकथित सभ्य लोग कतराते हैं। वह इस कारण नहीं कि हम अमानवीय हैं परन्तु इस उत्पीड़नकारी आपराधिक न्याय संस्थान व पुलिस के भय के कारण। भारत के आम नागरिक न्यायपालिका और पुलिस की उस कार्य संस्कृति से पूरी तरह से भयभीत हैं जो उसे औपनिवेशिक युग से विरासत में प्राप्त हुई है। इसलिए वे औरों के दुःख-तकलीफ में असंवेदनशील हैं। आज भी देश के करोड़ों भारतीय नागरिकों को शासन का उपेक्षापूर्ण रवैया और अकूत शक्ति अति भयभीत कर रही हैं।

न्यायपालिका लोकतान्त्रिक मूल्यों को नए ढंग से परिभाषित करने के बजाय तत्कालीन प्रोटोकोल और परम्पराओं को औपनिवेशिक संस्था की तरह आगे बढ़ा रही है और आम आदमी का संस्थागत न्यायिक विलम्ब के निर्बाध कुचक्र के माध्यम से आर्थिक शोषण कर कर रही है। काले कोट वाले अधिवक्ता और पैरवीकार आज तक भ्रष्टाचार के प्रतिनिधि के रूप में कार्य कर रहे हैं, जनता का शोषण कर रहे हैं। यह सब पुलिस, प्रशासन और न्याय तंत्र के औपनिवेशिक नजरिये के कारण ही हो रहा है। इन औपनिवेशिक काले कानूनों के माध्यम से किया जाने वाला तथाकथित न्याय हमारे सामाजिक ताने बाने से नहीं निकला है अपितु वह सत्रहवीं और अठारवीं सदी के यूरोप की उपज है जो कि कानून और न्याय के नाम पर बड़ी संख्या में मानवजाति को गुलाम बनाने की पश्चिमी रणनीति रही है। ये समस्त कानून भारतीयों पर थोपे गए एकतरफा अनुबंध मात्र हैं जो प्रभावशाली लोगों को सुरक्षा प्रदान करने के सिद्धांत पर राज्य की स्थापना करते हैं, जिनमें एक गरीब न्यायार्थी की स्थिति मात्र किसी लाचार गुलाम जैसी होकर रह जाती है। पुलिस की ओर से आनेवाली गोलियों को आज भी विशेष संरक्षण प्राप्त है। भारतीय शासकवर्ग इसे बरकरार रखे हुए है, क्यों?

दुर्भाग्य यह भी है कि आम लोगों को ऐसी भाषा में न्याय दिया जा रहा है जिसे वे जानते ही नहीं हैं। औपनिवेशिक काले कानूनों और उनकी भाषा का अब तक जारी रहना करोड़ों भारतीयों के लिए आज भी एक सवाल है। अतः भारतीय समाज और समुदाय का लोकतान्त्रिक मूल्यों के साथ टकराव जारी है। इंग्लॅण्ड में इतालवी या हिंदी भाषा में न्याय देने का दुस्साहस नहीं किया जा सकता किन्तु आजाद भारत में भी 75 वर्षों से यह सब कुछ जारी है क्योंकि 2 फरवरी 1835 को थॉमस बैबंगटन मैकाले ने यह ईजाद किया था कि हमें एक ऐसा वर्ग तैयार करने का भरसक प्रयास करना है जो हमारे और करोड़ों भारतीयों के बीच अनुवादक का कार्य कर सके जिन पर हम शासन करते रहें – एक ऐसा वर्ग जो रक्त और रंग से तो भारतीय हो परन्तु विचारों, नैतिकता और रुचि से अंग्रेज हो। आज की भारतीय न्याय व्यवस्था मैकाले के सपनों को साकार करने में ही अपना योग कर रही है।

आज इस बात की महती जरूरत है कि आम भारतीय को सत्य की पहचान हो। आज राष्ट्रद्रोह-कानून को चंद सत्ताधारियों की मर्जी पर नहीं छोड़ा जा सकता जो अन्याय और भ्रष्टाचार के विरुद्ध उठने वाले स्वरों को दबाने कुचलने लिए जनविरोधी उपनिवेशवादी कानून का उपयोग करते हों। उन सभी उपनिवेशवादी कानूनों के अंतर्गत संज्ञान लिया जाना बंद होना चाहिए जिनका निर्माण शासक वर्ग द्वारा शोषण और अत्याचारों के विरुद्ध उठने वाले विरोधी स्वरों को दबाने के लिए किया जाता है। विशेषतया दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 46, 129, 144, 197 आदि, और वे सब उधार लिए विशेष औपनिवेशक कानून जो मुट्ठी भर जनविरोधी सत्ताधारियों ने आम लोगों की स्वतन्त्रता और समानता छीनने के लिए बनाये हों।

एक लोकतान्त्रिक शासन प्रणाली में राज्य के ऐसे पक्षपाती आपराधिक कानून कभी भी लोक की सुरक्षा की गारंटी नहीं हो सकते बल्कि वे विशेष लोगों के हित में ही उपयोग में किये जाते हैं। अब तक औपनिवेशक कानूनों का जारी रखना हमारी शोषक और जनविरोधी मानसिकता का प्रतीक है। रूढ़िवादी-अभिजनवादी, औपनिवेशिक न्याय पद्धति के बरकरार रहते एक सर्वसुलभ, समतावादी निष्पक्ष न्याय संभव नहीं है। इसे जनसामान्य के हितों के अनुरूप बनाकर यथाशीघ्र बदलने की नितांत आवश्यकता है।



About शैलेन्द्र चौहान

View all posts by शैलेन्द्र चौहान →

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *