कृषि कानूनों के सही या गलत होने से शुरू हुई बहस पटरी छोड़ कर इतनी दूर कैसे निकल आयी?


21वीं सदी के इस दौर में किसी वाजिब वजह के साथ शुरू हुआ कोई आंदोलन या चर्चा कब किसी प्रोपेगेंडा का हिस्सा बन जाए या कब पूरे के पूरे आंदोलन के समानांतर एक विरोधी आंदोलन खड़ा हो जाए, पता नहीं चलता। ऐसी स्थिति में ये तय कर पाना मुश्किल हो जाता है कि कौन सा आंदोलन सही दिशा में है और कौन सा विपरीत दिशा में है या कोई आंदोलन सही मक़सद से है भी या नहीं।

कोई भी आंदोलन जन्म लेता है किसी लोकतांत्रिक वाजिब माँग को लेकर, लेकिन इसे अंजाम तक ले जाना किसी भी आंदोलन का सबसे महत्वपूर्ण पहलू होता है जो आजकल के आंदोलनों की सबसे बड़ी कमी बनकर उभरा है। इसकी वजहें तमाम हैं लेकिन ऐसे आंदोलनों का हासिल सिर्फ़ बिखराव और दिशाहीनता होती है।

करीब ढाई महीने पहले सरकार द्वारा पारित कृषि क़ानूनों के विरोध में किसान राजधानी क्षेत्र में सड़कों पर हैं और इस आंदोलन के शुरू होने से अब तक इसमें कितने उतार चढ़ाव दिखे और आज आंदोलन किसी और मोड़ पर आ खड़ा हुआ है और जो बहस पहले ये थी कि आख़िर कृषि क़ानून किसानों के हित में है या नहीं वो बहस अब यहाँ तक पहुँच गई है कि सड़कों पर उतरकर आंदोलन करने वाले लोग किसान हैं या आतंकवादी- इस बात से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि हमारे यहाँ आंदोलनों की क्या नियति है और उसकी कैसी समझ है।

आम जनता आंदोलनों को अधिकारों की माँग नहीं, देश और ‘सरकार’ का विरोध भर समझती है और जिन मुद्दों पर कुछ लोग सबके हिस्से की लड़ाई लड़ने सड़कों पर उतरे होते हैं उन्हीं मुद्दों पर आम लोग सुबह शाम बहस करके सरकार प्रशासन को गाली देते भी नहीं थकते।

अब अगर आंदोलनकर्ताओं को आतंकी कहा जा रहा है तो फिर आतंकी और आतंकवाद की परिभाषा भी बदलनी होगी और फिर तो सरकार को इसके ख़िलाफ़ मुहिम छेड़नी पड़ेगी। कहाँ एक आतंकी को मारने में हमारी सेना कितनी मशक़्क़त करती है और कहाँ खुलेआम इतने आतंकी सड़कों पर घूम रहे हैं! वर्तमान में किसी बात, चाहे वो सोलह आने झूठ ही हो, उस पर मुहर लगाने में सोशल मीडिया नाम की चिड़िया माहिर है। यहाँ किसी भी बात को बहुत आसानी से दूसरी दिशा में मोड़ा जा सकता है और वहाँ के लोग अपने दिमाग़ का 1% भी ख़र्च नहीं करते और भिड़ जाते हैं सच को झूठ साबित करने में।

किसान आंदोलन जो मुख्यतः MSP और मंडियों को लेकर शुरू हुआ और कृषि क़ानून को रद्द करने की माँग हो रही है उससे आगे चलकर सरकार से कई दौर की वार्ताएँ हुईं लेकिन हासिल शून्य और आख़िरकार सुप्रीम कोर्ट ने इसके लागू होने पर फ़िलहाल के लिए रोक लगा दी।

26 जनवरी को वो हुआ जिसने इस आंदोलन को शक की नज़र से देखने की एक वजह दे दी और मासूम (ये शब्द यहाँ एक ख़ास अर्थ में इस्तेमाल किया गया है)। जनता जो कल तक किसानों के गुण गाते नहीं थक रही थी, उसकी खाना खाते, नहाते, पुलिसवालों को खाना खिलाते और उसे बेचारा दिखाते हुए तस्वीरें वीडियो और शायरियाँ शेयर करते नहीं थक रही थी, वही अचानक से ‘दिल्ली पुलिस लट्ठ बजाओ’ के सोशल मीडिया वाले आंदोलन में शामिल हो गई और किसान उसे दंगाई नज़र आने लगे।

घटना जो हुई वो दुखद थी और किसी भी आंदोलन का ये तरीक़ा नहीं होना चाहिए। इससे आंदोलन को बहुत नुक़सान भी हुआ क्योंकि ये लड़ाई किसान बनाम पुलिस या पुलिस बनाम किसान नहीं थी, लेकिन टकराव उनका ही हुआ जो बहुत ही दुखद था। हमें पता ही नहीं कि विरोध किसका करना है और आख़िर में आपस में ही लड़ पड़े। 

इससे कुछ किसान संगठनों ने इस तरीक़े को ग़लत बताते हुए ख़ुद को इस आंदोलन से अलग कर लिया और आंदोलन थोड़ा कमज़ोर पड़ा, कुछ जगहें खाली हुईं लेकिन आंदोलन अभी ख़त्म नहीं हुआ था और फिर इस आंदोलन का परिचय विश्व के मानचित्र से हुआ और मशहूर पॉप गायिका रिहाना ने इसको लेकर ट्वीट कर दिया। उसके बाद पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग ने भी आंदोलन का समर्थन किया जिन्हें इस साल के शांति के नोबेल के लिए नामित किया गया है।

ये फ़ेहरिस्त लम्बी होती गई और कुछ लोगों को ये बात बहुत नागवार गुज़री और बहस छिड़ गई कि कोई बाहरी हमारे आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। पहली बात तो ये है कि रिहाना हों या कोई और हस्ती, उसके ट्वीट करने से शायद बहुत फ़र्क़ नहीं पड़ेगा इस आंदोलन को और अगर उन्होंने ऐसा किया भी तो इसमें कोई बेइज़्ज़ती वाली बात नहीं हो गई। हम सब अन्य देशों के किसी न किसी मुद्दे पर अपनी बात रखते हैं। म्यांमार में हुए तख़्तापलट पर क्या कोई अन्य देश का राष्ट्राध्यक्ष नहीं बोल सकता? पड़ोसी देश होने के नाते भी या एक नैतिकता के नाते भी बात रखी जा सकती है।

ठीक है, हम नहीं चाहते कि कोई हस्तक्षेप करे हमारे मामलों में, तो हम मामला सुलझाने पर ध्यान दें ना कि उनको गाली देने और डीफेम करने में जो कि सबसे आसान काम है। अगर रिहाना या किसी और ने अपना ट्वीट डिलीट कर लिया तो भी ये मुद्दा सुलझ नहीं जाएगा। वो सुलझेगा आपस की बातचीत से।

इन सब के बाद विदेश मंत्रालय ने बयान जारी किया और उसके बाद #indiatogether के साथ फ़िल्म जगत के लोग और खिलाड़ियों ने ट्वीट करना शुरू किया। ये लोग तब साथ नहीं थे जब किसान सड़क पर उतरा। हम आपस में टकरा जाएँ कोई दिक़्क़त नहीं लेकिन कोई तीसरा ना कहे कि ये ग़लत हो रहा है या क्यों हो रहा है- उसकी बात को महत्व नहीं देना है तो मत दीजिए लेकिन उसको नीचे दिखने और गाली देने से बेहतर है साथ होकर दिखाएँ और अपनी समस्या सुलझाएँ।

यहाँ सबसे ज़रूरी और सोचने वाली बात ये है अब ये मुद्दा कृषि क़ानून के किसानों के हित-अहित में होने से बहुत दूर कुछ ग़ैर-ज़रूरी बहसों में उलझकर रह गया है जो इस तरह के आंदोलनों और किसी भी ज़रूरी और जनहित के मुद्दे पर होने वाली बहसों और चर्चाओं का बहुत बड़ा नुक़सान है क्योंकि भविष्य में जब भी कोई किसी सही बात के लिए खड़ा होगा तो उससे तमाम तरीक़ों से छल से ग़लत साबित करके उसकी बात और उसके मुद्दे को ग़लत ठहरा दिया जाएगा।

ये भी सम्भावना है कि इस व्यापक आंदोलन में कुछ लोग सिर्फ़ इसको बिगाड़ने के लिए शामिल हुए हों और इस आंदोलन की छवि बिगाड़ने के लिए आए हों, लेकिन इससे पूरा आंदोलन या इसमें शामिल सभी लोग ग़लत नहीं हो जाते या अगर प्रदर्शनों के दौरान लाठीचार्ज हुआ तो पुलिसवालों पर हमला किया जाए, लेकिन हमारी सबसे सरल और मुफ़ीद आदत है किसी भी बात का सामान्यीकरण करने की। कोई भी बात या मुद्दा या तो ग़लत होगा या सही, लेकिन ऐसा नहीं होता ना ही इतना आसान है किसी भी आंदोलन को सिर्फ़ सही और ग़लत में बाँट देना। जितना हम घर बैठकर अख़बारों, टीवी और सोशल मीडिया या हम जिसे पसंद करते हैं ऐसे सेलेब्रिटी की बातें सुनकर देखकर किसी भी बात को सही या ग़लत मान लेते हैं ये वैसा ही नहीं होता। जो हमें दिखता है या बताया जाता है, हो सकता है ज़मीनी हक़ीक़त इसके बिलकुल उलट हो लेकिन राय बनाना सबसे आसान काम है। आप अपनी पसंद की राय बनाने के लिए स्वतंत्र हैं। जो चाहे बनाइए लेकिन उसे सही या ग़लत साबित मत करिए, सिर्फ़ अपने तक रखिए। आपकी राय आपकी समझ पर है ना की किसी बात की सच्चाई या झूठ होने का प्रमाण।

कुल मिलाकर इन बातों को इस तरह से देखा जा सकता है कि या आप ज़मीन पर उतरकर चीज़ों को देखें, समझें, फिर कुछ राय बनाएँ या राय दें या फिर दूर से देखकर अपने विवेक और मानव दृष्टि का इस्तेमाल कर विचार करें, लेकिन अपनी एकतरफ़ा राय का भोंडा प्रचार ना करें। क्यों आपकी एक राय या किसी मुद्दे पर 3-5 करने से कोई और व्यक्ति उस बात को तथ्य मान लेता है? किसी व्यक्ति या आंदोलन को उस रूप में देखने लगता है?

इसका एक व्यावहारिक उदाहरण मैं बताऊँ। मेरे गाँव और क़स्बे में किसान आंदोलन शुरू होने कुछ दिन बाद किसान नेताओं द्वारा भारत बंद के ऐलान के विरोध में सबने दुकानें खोली और उसका तर्क ये दिया गया कि ये आंदोलन किसानों का नहीं कांग्रेस द्वारा उकसाया गया है। बाक़ी विश्लेषण आप पर।



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