जनता के गुस्से के खिलाफ राजसत्ता का सेफ्टी वॉल्व है हिजाब प्रकरण!


कर्नाटक में मुस्लिम छात्राओं के हिजाब पहनने को लेकर हो रहा विवाद अब अदालत में हैं। अदालत ने कहा कि मुद्दा सुलझने तक शिक्षण सस्थानों में ऐसे कोई धार्मिक कपड़े पहनने की जिद न करें जो लोगों को भड़काएं। यह बात कर्नाटक अदालत द्वारा 10 फरवरी को कही गयी। सुनवाई के लिए 12 फरवरी को याचिकाकर्ता इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले गए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि स्थानीय मुद्दे को राष्ट्रीय न बनाएं।

सुप्रीम कोर्ट को भी पता है कि कौन-कौन ऐसे से मुद्दे होते हैं जो क्षेत्रीय मुद्दे से बिना समय गंवाए राष्ट्रीय मुद्दा बन सकते हैं। सवाल उठता है कि ऐसे मुद्दे का निर्णय कब और कैसे होना चाहिए?

यह मामला स्कूलों में छात्रों के यूनिफॉर्म पहनने को लेकर है। शिक्षण संस्थानों में बच्चों को यूनिफॉर्म पहनाने के पीछे का दृष्टिकोण है कि कोई बच्चा आर्थिक रूप से असमान न दिखे। यह आर्थिक असमानता बच्चों में हीन भावना पैदा करती है जो मानसिक विकास में बाधा पैदा करती है। जिस भी देश के शिक्षाविदों और बाल मनोविश्लेषको ने यह निर्णय लिया होगा, सचमुच यह एक उत्कृष्ट निर्णय था लेकिन वे यह नहीं समझ सके कि बच्चों के यूनिफॉर्म के कपड़ों की क्वालिटी और उनके खाने की टिफिन में खाने की विविधता तो उनकी आर्थिक दशा को बयाँ करेगी ही और करती भी है। भारत में दोहरी शिक्षा व्यवस्था ही नहीं, कई स्तर की शिक्षा व्यवस्था है जो अपनी-अपनी आर्थिक स्थिति के अनुसार मिलती है। देश के सबसे महंगे दून स्कूल से लेकर गाँव में फूस के छप्परों में चलने वाले स्कूल हैं। दिल्ली के सरकारी स्कूल से लेकर गाँव में एक अध्यापक के भरोसे चलने वाले स्कूल में हमारे देश के बच्चे साधनहीनता में पढ़ते है। कुछ प्रान्तों में सरकार द्वारा सरकारी स्कूलों में बच्चों को दिये जाने वाले मुफ्त के यूनिफॉर्म को पहन कर बच्चे हीन भावना का शिकार होते हों या नहीं लेकिन अभिभावक जरूर हो जाते हैं। शिक्षा की असमान व्यवस्था, शिक्षकों की कमी, स्कूलों में संसाधनों की कमी, बढती हुई फ़ीस के खिलाफ यह बच्चे क्यों नहीं बोलते हैं, विरोध करते हैं, संगठित होते हैं। ऐसा इसलिए है कि बच्चों में इतनी समझ नहीं। तो ये बच्चे हिजाब और बुर्के को लेकर इतने आक्रामक क्यों हैं? यह समझ उनके पास कहाँ से आयी कि शिक्षा व्यवस्था की कमियों के खिलाफ विरोध करने से ज्यादा जरूरी हिजाब के खिलाफ विरोध करना है?

यह एक धर्म के लोगों के पहनावे को लेकर छात्रों द्वारा जो विरोध किया गया वह उनकी स्वयं की सोच नहीं है। अगर होती तो वह फ़ीस वृद्धि, शिक्षकों की कमी, स्कूलों में संसाधनों की कमी, असमान शिक्षा को लेकर विरोध करते। स्वाभाविक है यह सोच उनको बाहर से दी गयी है। हमें अब भी याद है जब हम आठवीं कक्षा में पढ़ रहे थे। इतिहास में अलाउद्दीन खिलजी को पढ़ाते हुए गुरु जी ने बताया कि अलाउद्दीन खिलजी अपने चाचा जलालुद्दीन की हत्या करके राज्य हथिया लिया और शासक बन बैठा। यह एक ऐतिहासिक सत्य है लेकिन एक बात उन्होंने और कही कि जितने भी मुस्लिम शासक रहे हैं सभी अपने सगे सम्बधियों की हत्या करके शासक बने। हुमायूं, जहांगीर, शाहजहाँ, औरंगजेब, सभी अपने भाई, बेटे और पिता की हत्या करके ही शासक बने। यह मुसलमान बहुत ही क्रूर और निर्दयी होते हैं- बहुत सालों तक हमारे मन में यह बात घर किये रही, जब तक हमने भारत का प्राचीन इतिहास नहीं पढ़ा। तब यह बात समझ में आयी कि सगे-सम्बंधियों की हत्या मुसलमान शासकों ने ही नहीं हिन्दू शासकों ने भी की हैं और सत्ता पर कब्जा किया है। यह केवल इतिहास ही नहीं पुराणों में भी है।

रामायण में विभीषण ने अपने सगे भाई रावण की हत्या करवायी। भ्रातृघाती व्यक्ति को आज भी विभीषण की उपाधि से नवाजा जाता है। महाभारत युद्ध में सगे-सम्बंधियों की हत्या करके ही राज्य पर कब्जा किया गया। प्राचीन इतिहास शुरू ही हर्यक वंश से होता है जिसे पितृहंता वंश के नाम से जाना जाता है। सभी शासक अपने पिता की हत्या करके ही राजगद्दी पर कब्ज़ा किये। सम्राट अशोक अपने भाइयों की हत्या करके ही शासक बना। सम्राट चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य अपने सगे बड़े भाई राम गुप्त की हत्या करके शासक बना। राणा सांगा के पुत्र उदय सिंह की हत्या करने का प्रयास राणा सांगा के सगे भतीजे बनवीर ने किया था जिसे पन्नाधाय ने अपने पुत्र का बलिदान देकर बचाया था। यह इतिहास प्रसिद्ध है। यह बातें उस समय गुरूजी ने हमें क्यों नहीं बतायी हम नहीं जानते। यह उन्होंने जानबूझ कर किया या अनजाने में लेकिन यह दोनों स्थिति समाज के लिए विध्वंसक है।

भारत में धार्मिक वैमनस्‍य की शुरुआत अंग्रेजों ने 1857 के विद्रोह के बाद की जब हिन्दुओं और मुसलमानों ने बहादुर शाह जफ़र को अपना शासक मान लिया। अंग्रेजों को अपना शासन चलाने के लिए जरूरी हो गया कि हिन्दू और मुसलमान आपस में लड़ते रहें जिससे उनके खिलाफ संगठित न हो सके। इससे पहले हिन्दू और मुस्लिम शासकों की सेना ही आपस में लडती थी। जनता उस लड़ाई में शामिल नहीं होती थी। विजयी को वह अपना शासक मान लेती थी। 1857 के बाद स्थिति बदल गयी। राजसत्ता के खिलाफ जनता भी खड़ी हो रही थी। इसलिए अंग्रेजों को अपना शासन कायम करने के लिए जनता की एकता तोड़ना जरूरी हो गया। जो लोग यह समझते हैं या समझने की कोशिश करते हैं कि हिन्दुओं और मुसलमानों में शत्रुता मुसलमान शासकों के भारत में आने के साथ ही शुरू हुई वह लोग इतिहास की जानबूझ कर गलत व्याख्या करते हैं या समझ रखते हैं।

राजनीतिक उत्प्रेरक के रूप में सांप्रदायिकता का इस्तेमाल और राष्ट्रीय आंदोलन से सबक

सल्तनत काल के लेकर मुगलकाल तक का इतिहास देखने से पता चलता है कि उस समय हिन्दू और मुस्लिम धर्म को लेकर कोई संधर्ष नहीं था। जयचंद द्वारा पृथ्वीराज के खिलाफ मुहम्मद गोरी को आक्रमण करने के लिए निमंत्रण देना और मद्द करना; राणा सांगा द्वारा बाबर की मदद से दिल्ली के शासक इब्राहिम लोदी को हराने के लिए निमंत्रण भेजना; अकबर के नवरत्नों में हिन्दू राजा टोडरमल और बीरबल का होना; महाराणा प्रताप के सेनापति हकीम खान सूरी; औरंगजेब के सेनापति राजा जय सिंह; शिवाजी के व्यक्तिगत सचिव मौलवी हैदर अली खान; ऐसी तमाम घटनाएं हैं जो साबित करती हैं कि उस समय धार्मिक युद्ध (हिन्दू-मुसलमान) जैसा कुछ भी नहीं था। ये सारे युद्ध सत्ता पर कब्ज़ा करने के लिए थे। 1857 में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह में भी हिन्दुओं और मुसलमानों ने एक मुस्लिम शासक बहादुर जफ़र के नेतृत्व में विद्रोह किया था।

भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन में भी हिन्दू और मुसलमान एक साथ मिल कर संघर्ष किये थे। इसके साथ ही साथ एक अलग मुस्लिम राज्य बनाने का भी संघर्ष चल रहा था जिसे अंग्रेजों का समर्थन प्राप्त था जो चाहते थे कि हिन्दू और मुसलमान एकजुट न होने पायें और आजादी की लड़ाई से हट कर आपस के संघर्ष में उलझते रहे और उनका शासन मजबूत रहे, लेकिन इसका परिणाम भारत और पाकिस्तान के बंटवारे के रूप में सामने आया। अंग्रेजों की इसी नीति के कारण बंटवारे के समय हुए दंगों में लाखों लोग मारे गये। आजादी के बाद भी यह धार्मिक लड़ाई जारी है और दंगों का रूप लेती रही है। इन हिन्दू-मुस्लिम दंगों को देश के राजनैतिक दल शह देते रहे हैं। आजादी के बाद यह संघर्ष चरम पर तब पहुंचा जब बाबरी मस्जिद को ध्वंस किया गया। बाबरी मस्जिद गिराए जाने से पहले भी स्वतंत्र भारत में बड़े-बड़े दंगे हुए। 1970 में भिवंडी, जलगाँव, 1977 में वाराणसी, 1979 जमशेदपुर, 1984 दिल्ली और मुम्बई, 1980 में मुरादाबाद, 1987 में मेरठ, 1962 में जबलपुर, 1969 और 1985 में अहमदाबाद, 1989 में भागलपुर, 1984 के दिल्ली। इन दंगों में हजारों लोग निर्दयता पूर्वक मारे गए, उनके घर जलाये गए, लोग की सम्पत्ति को नष्ट किया गया और लूटा गया। 1992 में बाबरी मस्जिद का गिराया जाना और उसके बाद शुरू हुआ दंगा पूर्व के दंगों से वैचारिक रूप से भिन्न था। यह दंगा था भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की पृष्ठभूमि।

इन दंगों की अगर निष्पक्ष जांच पड़ताल की जाय तो राजनैतिक पार्टियों, पुलिस और प्रशासन की भूमिका साफ़ नजर आएगी। न्यायशास्त्र कहता है कि समय से न्याय न मिलना भी अन्याय है तो न्यायशास्त्र की इस कसौटी पर भारतीय न्यायपालिका को देखें तो न्यायपालिका भी दंगा पीड़ितों के साथ नहीं है। 1951 से 1975 बैच के यूपी के आइपीएस अधिकारी विभूति नारायण राय कहते हैं कि “एक प्रशासनिक अधिकारी के हैसियत से हम दावे के साथ कह सकते हैं कि कोई भी दंगा एक दिन नहीं चल सकता। कठिन स्थितियों में दो दिन से ज्यादा नहीं चल सकता है अगर वह राज्य प्रायोजित न हो।” एक ईमानदार पुलिस अधिकारी का यह बयान बताता है कि देश में धार्मिक उन्माद बढ़ाने, उसको दंगे के रूप में बदल देने और लम्बे समय तक इसे जारी रखने में राज्य (सरकार, पुलिस, प्रशासन और न्यायपालिका) की ही भूमिका होती है।

सरकार, पुलिस, प्रशासन और न्‍यायपालिका की भूमिका को रेखांकित करने के लिए सन 1987 में मेंरठ दंगों में पीएसी की 41वीं बटालियन द्वारा मारे गए लोगों के बारे में विभूति नारायण राय कहते हैं कि ‘मारे जाने के बाद की कथा एक लम्बी और यातनादायक प्रतीक्षा का वृत्तान्त है जिसमें भारतीय राज्य और अल्पसंख्यकों के रिश्ते, पुलिस का गैर पेशेवराना रवैया और घिसट-घिसट कर चलने वाली उबाऊ न्यायिक प्रणाली जैसे मुद्दे जुड़े हुए हैं। मैंने 22 मई 1987 को जो मुकदमे गाजियाबाद के थाना लिंकरोड और मुरादनगर में दर्ज कराए थे वे पिछले 21 वर्षों से विभिन्न बाधाओं से टकराते हुए अभी भी अदालत में चल रहे हैं और अपनी तार्किक परिणिति की प्रतीक्षा कर रहे हैं।’

सत्ता में बने रहने या सत्ता में पहुंचने के लिए देश की राजनैतिक पार्टियां धार्मिक संघर्ष के मौके तलाशती ही नहीं हैं, बल्कि उपलब्ध भी कराती हैं। राजीव गाँधी की कांग्रेस सरकार में 1986 में विवादित राम मंदिर का ताला खोला गया और जिन्न को कब्र से बाहर निकाला गया। इस जिन्न के सहारे भारतीय जनता पार्टी ने राम मंदिर निर्माण करने के नाम पर हिंदुओं को एकजुट करने का प्रयास तेजी से शुरू किया। 25 सितम्बर 1990 को गुजरात के सोमनाथ मंदिर से लालकृष्‍ण आडवाणी के नेतृत्व में राम मंदिर निर्माण के लिए रथ यात्रा शुरू की गयी जो आठ राज्यों से होते हुए 30 अक्टूबर 1990 को अयोध्या में खत्म होनी थी और राम मंदिर निर्माण कार्य शुरू करना था। 23 अक्टूबर को बिहार में गिरफ्तार होने के बाद आड़वाणी की रथयात्रा तो रुक गयी लेकिन भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का रथ आगे बढ़ गया। इस घटना के दो साल बाद भाजपा ने 6 दिसम्बर 1992 को अयोध्या में देश भर से हिन्दुओं को जुटा कर बाबरी मस्जिद के इतिहास को इतिहास बना दिया। केंद्र की नरसिंह राव की कांग्रेस सरकार इस इतिहास को ध्वंस होते मूक दर्शक बनी देख रही थी। दोनों पार्टियां भाजपा और कांग्रेस इस ध्वंस को अपने-अपने हितों के अनुसार देख रही थी और देश को दंगों की आग में झोंक दिया। एक ने सत्ता में बने रहने के लिए और दूसरे ने सत्ता पर काबिज होने के लिए।

1992 में हुए देशव्यापी दंगे की शुरुआत का प्रस्थान बिंदु मस्जिद गिरना ही नहीं था। इसकी तैयारी तो 1986 में ही हो गयी थी जब अदालत ने ताला खोल देने का फैसला सुनाया। बाबरी मस्जिद गिरने के बाद हुए दंगों ने हिन्दू और मुसलमान समुदाय के बीच अविश्वास की खाई को और चौड़ा कर दिया। हिन्दुत्ववादी सोच के लोगों ने इस विचार को इस तेजी से आगे बढाया कि मुस्लिम समुदाय के अलावा अन्य अल्पसंख्यक समुदाय को भी अपने चपेट में ले लिया। 1999 में उड़ीसा में इसी हिन्दुत्ववादी भीड़ ने चर्च के पादरी ग्राहम स्टेंस को उनकी पत्नी और बच्चों के साथ जिन्दा जला दिया।

बाबरी मस्जिद, राम मंदिर और हिन्दी समाज: आनंद स्‍वरूप वर्मा से लंबी बातचीत

सैद्धांतिक रूप से समाज की बहुसंख्यक आबादी हमेशा आक्रामक होती है और अल्पसंख्यक आबादी रक्षात्मक। प्रकृति का नियम है कि कोई जगह खाली नहीं रहती है, खाली होने पर उसका स्थान कोई और ले लेता है। प्रकृति का यह नियम समाज में भी काम करता है। जब समाज में कोई विचार पुराना हो जाता है तो उसकी जगह नये विचारों का आना जरूरी हो जाता है। नये प्रगतिशील विचार अगर उस जगह को नहीं भर पाये तो वहां पुराने प्रतिक्रियावादी विचार अपनी जगह ले लेते हैं। समाज में नये प्रगतिशील विचारों का अभाव ही धार्मिक उन्माद का करण बन रहा है। हिन्दुवादी संगठनों द्वारा चलाये जा रहे इस प्रतिक्रियावादी वैचारिक अभियान को सत्ता की पूरी मदद मिल रही है। जो इसके विरोध में खड़े हो रहे है उनकी हत्याएं की जा रही हैं, उन्हें कैद कर जेल में डाला जा रहा है, उनके ऊपर देशद्रोह का मुकदमा चलाया जा रहा है। प्रगतिशील विचारों के लोग और उनके सहयोगी भयभीत और डरे हुए हैं। कोई समाज जब भयभीत और डरा हुआ हो तो वह सब कुछ संभव हो जाता है जो राजसत्ता चाहती है।

देश में अब शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार, भ्रष्टाचार, महंगाई, कुपोषण को ख़त्म करने के आन्दोलन की जगह राम मंदिर, गोरक्षा, गोमांस, हिन्दू राष्ट्र, तीन तलाक, समान आचार संहिता, नागरिकता कानून, लव जेहाद, घर वापसी जैसे मुद्दे राष्ट्रव्यापी हो गए हैं जो समाज उत्थान में कहीं से भी सहायक नहीं है। उल्टे यह समाज को खण्ड-खण्ड में बांट रहे हैं। मीडिया (इलेक्ट्रॉनिक और प्रिंट) की व्यापकता इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। वैज्ञानिक भी इसमें पीछे नहीं हैं। नाले की गैस से खाना बनाना, गणेश की माइक्रो सर्जरी, बादलों में राडार की तरंगें बेअसर, तालाबों में बतखों द्वारा आक्सीजन पैदा करना जैसे विचार देने वाले लोगों की सभाओं में वैज्ञानिकों द्वारा तालिया बजायी जा रही हैं। रही सही कसर मजदूर आन्दोलन की नाकामी ने पूरी कर दी है। अब जनजीवन की समस्याओं को लेकर चलने वाले संघर्ष पिछड़ गए हैं। जन समस्याओं के खिलाफ होने वाला संघर्ष समान हितों वाले लोगों को एक साथ खड़ा होने का मौका देता है, उनके सामाजिक रिश्ते को मजबूत करता है और समाज तो तोड़ने वाले विचारों को भी कमजोर करता है। पुराने और प्रतिक्रियावादी विचार पीछे छूटते जाते हैं, उनकी जगह नये प्रगतिशील विचार लेते जाते हैं।

सांप्रदायिकता 360 डिग्री: बाबरी से लखनऊ वाया गुजरात

इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण 2020-21 का किसान आन्दोलन है जिसने हिन्दू-मुस्लिम एकता को पुन: कायम किया। हिन्दुओं और मुसलमानों द्वारा एक मंच से एक साथ लगते नारे ने यह दिखा कि उनकी समस्या एक है, लड़ाई एक है और एकता भी एक है। यह आन्दोलन एक नयी उम्मीद ले कर आया है। इस आन्दोलन की सफलता ने सांप्रदायिक तकतों के कान खड़े कर दिये हैं। वे जानते हैं कि जनता की एकता और उनके द्वारा जनजीवन की समस्याओं को लेकर होने वाला संघर्ष सांप्रदायिक विचारों की मौत है।

कर्नाटक की हिजाब की घटना को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए। देश में बढ़ती बेतहाशा महंगाई, पिछले दो वर्षों में कोविड के नाम पर खत्म किये गये रोजगार, बंद हो गए व्यवसाय, सरकारी संस्थानों को उद्योगपतियों को कौड़ी के मोल बेच दिया जाना, लोगों की गिरती आर्थिक दशा और गरीबी ने देश की जनता को संकट में डाल दिया है। उनका गुस्‍सा कभी भी फट सकता है जो सत्ताधारी के लिए संकट खड़ा कर सकता है। इसे शासक वर्ग जानता है। प्रेशर कुकर में एक सेफ्टी वाल्व लगा होता है जिसका काम होता है कि अगर किसी कारण से कुकर की सीटी ख़राब हो जाये और गैस न निकले तो प्रेशर कुकर फटने से पहले सेफ्टी वाल्व गल जाता है और गैस निकल जाती है। कुकर फटने से बच जाता है। इस सेफ्टी वाल्‍व से केवल प्रेशर कुकर ही नहीं बचता है। यह उसके विस्फोट से होने वाले नुकसान को भी बचाता है। कर्नाटक में चल रही इस घटना की तरह अन्य घटनाओं को अन्जाम देकर सेफ्टी वाल्‍व की तरह राजसत्ता जनता के गुस्से को निकाल देती है।


लेखक जन आंदोलनों से जुड़े राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता हैं


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