पंचतत्व: बोल मेरी बिजली कितना पानी


इससे पहले कि मैं बिजली और कोयले-पानी पर कुछ आंकड़ों और निराश करने वाली कोई तस्वीर पेश करूं, मैं चाहता हूं कि आप पहले थोड़ा मुस्कुरा लें. इसलिए पहले एक लतीफाः

एक मंत्री महोदय अपने एक वरिष्ठ नौकरशाह पर बहुत लाल-पीले थे. वजह थी कि उक्त नौकरशाह उनके इलाके में किसी प्रस्तावित बांध परियोजना की फाइल पर फन काढ़कर बैठ गए थे. मंत्री ने फटकारा तो रिटायरमेंट में पांव लटकाए नौकरशाह की घिग्घी बंध गईः “सर, मंजूरी कैसे दूं? आपके इलाके में तो नदी ही नहीं है”. मंत्री फट पड़े, “अच्छा, तो नदी के अभाव में हम बांध बनाने की योजना छोड़ दें?”

खैर…


जून के महीने में प्रधानमंत्री का वह बहुचर्चित आत्मनिर्भरता वाला बयान आया था. बाकी क्षेत्रों का नहीं पता, पर भारत में पर्यावरण के क्षेत्र में इसका असर तो उल्टा दिखने वाला है. केंद्र सरकार ने वाणिज्यिक मकसदों के लिए कोयला खदानों की नीलामी शुरू कर दी है. एक तरफ दुनिया के अधिकतर देश कोयला आधारित ताप बिजली घरों से दूर जा रहे हैं, दूसरी तरफ सरकार का यह कदम कोयला वाले बिजलीघरों को बढ़ावा देगा. जर्मनी के साथ हिंदुस्तान की तुलना तो नहीं की जा सकती, फिर भी असली खबर यही है कि जर्मनी की सरकार ने जुलाई, 2020 के पहले ही हफ्ते में एक कानून बनाया है ताकि उनके देश से कोयला आधारित ताप बिजलीघर 2038 तक चरणबद्ध तरीके से खत्म कर दिए जाएं.

जानकार बता रहे हैं कि जर्मनी की ही तर्ज पर स्पेन ने अपने कोयला आधारित ताप बिजलीघरों में से आधे प्लांट जून की आखिरी तारीख तक बंद कर दिए हैं. स्पेन में 15 ताप बिजलीघर थे और सात बंद हो चुके हैं. स्पेन ने यह कदम यूरोपीय देशों द्वारा अपने सभी कोयला खदान बंद करने के डेढ़ साल बाद उठाया है.

यहां ध्यान देने वाली बात है कि हिंदुस्तान के कोयला आधारित ताप बिजलीघरों का प्रदर्शन पिछले एक दशक में काफी खराब रहा है. 26 जून को प्रकाशित ब्लूमबर्गएनईएफ में इंडियाज क्लीन पावर रिवॉल्यूशन रिपोर्ट के मुताबिक, 2010 में जिन बिजलीघरों के बेड़े का प्रदर्शन 78 फीसद था, उसमें पिछले दस साल में 21 फीसद की कमी आई है.

बहरहाल, सरकार के इस कदम से कोयला आधारित ताप बिजलीघरों में नई जान आएगी. ताप बिजलीघर सिर्फ पानी गंदा ही नहीं करते हैं, बल्कि सुरसा की तरह मुंह फाड़कर पानी गटकते भी हैं.

कोयला आधारित ताप बिजलीघरों में पानी की बहुत जरूरत होती है. यह पानी उन्हें कूलिंग और राख हटाने के काम के लिए चाहिए होता है. तटीय इलाके के बिजलीघरों में यह जरूरत समुद्री पानी से पूरी होती है, लेकिन समुद्रों से दूर बिजलीघरों के लिए पानी वहीं से दिया जाता है जो हमारे-आपके इस्तेमाल के लिए होता है.

पिछले कुछ साल में (इनमें हालिया आंकड़े नहीं जोड़े हैं) सरकार ने 1,92,804 मेगावॉट कोयला आधारित ताप बिजलीघरों की स्थापना को पर्यावरणीय मंजूरी दी है. इनमें से 1,38,000 मेगावॉट या 72 फीसद बिजलीघर समुद्र से दूर हैं और इन 72 फीसद में से भी आधे से अधिक पांच नदी घाटियों- गंगा (33,255 मेगावॉट), गोदावरी (16,235 मेगावाट), महानदी (14,595 मेगावाट) और ब्राह्मणी (6534 मेगावाट) में हैं.

केंद्रीय जल आयोग के आंकड़ों के लिहाज से देखें तो महानदी जैसी कुछ नदी घाटियां जलाधिक्य (वॉटर सरप्लस) वाली हैं लेकिन खेती, स्थानीय समुदायों के छोटे किसानों, नदी की खुद की जरूरतों और मछुआरा समुदाय के साथ पर्यावरणीय जरूरतों को ध्यान में रखा जाए तो महानदी समेत अधिकतर भारतीय नदियों में इन ताप बिजलीघरों के पानी का खर्च समेटने की क्षमता शायद नहीं ही है.

इन स्वीकृत बिजलीघरों से स्थानीय रूप से कई विवाद खड़े होने की शंका भी है. मसलन, 2007 में हीराकुड बांध (महानदी) में 30,000 किसानों के जुट जाने की घटना हुई थी और उन्होंने अपने हिस्से के सिंचाई का पानी उद्योगों को देने के खिलाफ प्रदर्शन किया था और मानव श्रृंखला बनाई थी.

उसी नदी बेसिन में अब नए ताप बिजलीघरों का प्रस्ताव है और उसके लिए सरकार कोयले के जुगाड़ में लगी है.

सरकार का पर्यावरण मंत्रालय हरेक प्लांट के लिए पानी की जरूरतों का आंकड़ा उपलब्ध नहीं कराता और न ही यह बताता है कि उक्त जरूरत को कहां से पूरा किया जाएगा, पर मोटे तौर पर यह मान लीजिए कि (सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी के आंकड़ों के हिसाब से) कि कोयला आधारित बिजलीघर हर 100 मेगावॉट बिजली उत्पादन करने के लिए 39.2 करोड़ क्यूबिक मीटर पानी का सालाना इस्तेमाल करता है. सरकार ने पिछले पांच साल में जिन 1,17,500 मेगावॉट के इनलैंड कोयला आधारित बिजलीघरों को पर्यावरणीय मंजूरी दी है, उनमें यह कुल मिलाकर 460.8 करोड़ क्यूबिक मीटर पानी का हिसाब बैठ जाता है.

शायद इसका हिसाब भी कुछ वैसा ही हो गया जब पैकेज के बाद सोशल मीडिया पर कोई आपसे किसी लाख-करोड़ के बाद लगे जीरो की गिनती पूछ ले. आसान शब्दों में आप बस इतना समझ लीजिए कि यह पानी इतना है कि आप इससे एक साल में 9,20,000 हेक्टेयर खेत सींच लेंगे या इतना समझ लीजिए कि 8.5 करोड़ लोगों को रोजाना घरेलू इस्तेमाल और पीने के लिए पानी उपलब्ध करा देंगे.

वैसे, हम आपको बता दें कि पानी की यह जरूरत सिर्फ उन्हीं प्लांट के लिए है जिनको पिछले पांच साल में पर्यावरणीय मंजूरी दी गई है. जो प्रोजेक्ट अभी पाइपलाइन में हैं उनकी चर्चा अलग से करनी होगी. उनका हिसाब अलग से लगाना होगा. वैसे भी, पानी के मामले में कितने पानी की जरूरत है यह आंकड़ा तस्वीर का असली रुख नहीं दिखाता. भाई, एक बाल्टी पानी की कीमत तुम क्या जानो गंगा के किनारे बैठे लोगों, उसकी कीमत जैसेलमेर के किसी अली की ढाणी में पूछकर देख लीजिए.

अभी अगर पानी की कमी के मामले में विदर्भ का नाम लूं तो आपको हैरत नहीं होगी. किसानों की जान लेने वाले इस इलाके में खेती के लिए पानी नहीं है, पर महाराष्ट्र ने बिजली उत्पादन में अगुआ होने के लिए यहां 47 नए ताप बिजलीघरों को मंजूरी दे रखी है और उसका लक्ष्य 33,000 मेगावॉट बिजली उत्पादन का है. हा विदर्भ इलाका पावर सरप्लस वाला माना जाता है और इस इलाके में सूबे के कुल उत्पादन का 67 फीसदी बिजली बनाई जाती है. फिर भी राज्य ने 47 नए बिजलीघरों के निर्माण को मंजूरी दे दी है.

तथ्य यह है कि मौजूदा बिजलीघरों के लिए कोयला इंडोनेशिया से आयात किया जाता है. तो आपको इस लेख की शुरुआत में मौजूद अफसर की तरह क्यों लगता है कि इंडोनेशिया से कोयला मंगाने और पानी की कमी के बावजूद विदर्भ में ताप बिजलीघर नहीं लगेंगे!

विदर्भ इंडस्ट्रीज एसोशिएसन का अनुमान है कि इन 47 नए परियोजनाओं के बिजलीघरों के लिए करीब 135.3 करोड़ क्यूबिक मीटर पानी की सालाना जरूरत होगी. जाहिर है यह पानी इलाके की सिंचाई परियोजनाओं से ही लिया जाएगा और यह पानी 2,00,000 हेक्टेयर खेतों को पानी से महरूम कर देगा.

और उसके बाद फ्लाइ ऐश के निस्तार की समस्या भी है.

इन बिजलीघरों में सालाना 6,00,000 टन कोयला खपेगा और इसका कोई 30-40 फीसदी हिस्सा राख में तब्दील हो जाएगा. इसके लिए भी जमीन चाहिए और शायद इस पर किसी का ध्यान नहीं गया है.

विदर्भ में ताप बिजलीघरों को पानी देने पर एक रिपोर्ट गैर-सरकारी संगठन ग्रीनपीस ने भी दी है. संस्था के मुताबिक, 2003 से 2011 के बीच 3988.7 करोड़ क्यू. मी. पानी तापबिजली घरों की दी जा चुकी है और इससे करीबन 79,774 हे. खेतों को सींचा जा सकता था.

विदर्भ में आत्महत्याओं के सिलसिले को कृषि समस्या और सिंचाई की कमी से जोड़ा जाता रहा है. खासकर जिन जिलों में किसान आत्महत्याएं अधिक संजीदा रुख अख्तियार किए हुए है वहां कोयला आधारित ताप बिजलीघरों को मंजूरी देना अतार्किक सा लगता है.

उधर, आइआइटी, दिल्ली के सिविल इंजीनियरिंग विभाग का एक अध्ययन बताता है कि वर्धा जिले में पानी की उपलब्धता करीब 3679 एमसीएम से घटकर महज 1857 एमसीएम रह गई है.

खैर, हो सके तो इस लेख की शुरुआत वाले लतीफे को दोबारा पढ़िए. हमारे नीति नियंता अब भी परियोजना के बारे में पहले सोचते हैं और उसे लागू करने के उपायों को जमीन पर उतार लेने का काम अफसरों पर छोड़ देते हैं. और यह वर्ग वही है जिसको जमीन, माटी, पानी, परंपराओं और सतत विकास के नाम पर सेमिनारों से आगे कुछ सूझता नहीं है.



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