कोरोना आर्थिक पैकेज की सीमाएं और कुछ कारगर तात्कालिक उपाय


आधुनिक अर्थव्यवस्था पहले से कहीं अधिक जटिल है। इसमें कर्मचारी, उद्योग, आपूर्तिकर्ता, लेनदार, देनदार, उपभोक्ता, बैंक और अन्य वित्तीय मध्यस्थ शामिल हैं। हर कोई किसी और का लेनदार, देनदार और कर्मचारी आदि है। COVID-19 के प्रकोप से विश्व अर्थव्यवस्था दोहरी मार झेल रही है। एक तरफ मांग में कमी है तो दूसरी तरफ आपूर्ति श्रृंखला टूट गई है। भारत कोई अपवाद नहीं है।

भारतीय अर्थव्यवस्था में नोटबंदी के बाद से ही मांग में कमी दिख रही थी, उसके बाद लागू वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के अनियंत्रित कार्यान्वयन का खामियाजा भी उठाना पड़ा। COVID-19 के प्रकोप से आपूर्ति में व्यवधान आया है। इसने आपूर्ति श्रृंखला को तोड़ दिया। भारत 42 दिनों के लिए सीधे लॉकडाउन में है। अर्थव्यवस्था ठहराव में है और COVID-19 का मुकाबला करने के लिए भारत सरकार लॉकडाउन के सिवाय कोई दूसरे उपाय पर बहुत ध्यान देती नहीं दिख रही है। दैनिक जीवनयापन की कोई उम्मीद नहीं रहने के कारण लाखों प्रवासी श्रमिक सड़क पर फंसे हैं। यह निश्चित है कि महामारी बड़े पैमाने पर भूख और गरीबी लाएगी किंतु कोरोना का सटीक आर्थिक प्रभाव को मापने के लिए यह समय कठिन है। बस हम अच्छे दिन के लिए अनुमान लगा सकते हैं।

भारत सरकार ने COVID-19 के लिए आर्थिक उपाय की घोषणा करते हुए सिर्फ जल्दबाजी के चक्कर में जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ लिया है। महामारी के दौरान आर्थिक संकट का मुकाबला करने के लिए 1.70 लाख करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा की गयी किंतु यह उस मूल चिंता को संबोधित नहीं करता है जो दैनिक वेतनभोगी के लिए न्यूनतम बुनियादी आय है जो इस महामारी के कारण अपनी आजीविका से रहित हैं। यह पैकेज खामियों से भरा है किंतु हम इस पर चर्चा नहीं करेंगे क्योंकि इस पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है।

भारतीय रिजर्व बैंक ने 3.74 लाख करोड़ रुपये बैंकों को मौद्रिक नीति के माध्यम से दिया। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि बैंकों ने कुल 89.79 लाख करोड़ रुपये ऋण दिये हैं और 3.74 लाख करोड़ रुपया लगभग 4.17% है। 17 अप्रैल, 2020 को फिर से भारतीय रिजर्व बैंक ने विभिन्न तंत्र के माध्यम से 1 लाख करोड़ रूपये की तरलता प्रदान की जो गैर बैंकिग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) के लिए बेहद लाभकारी होगी।

भारत में 5 करोड़ परिवार गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) हैं और हर समय भुखमरी के शिकार हैं। उन्हें खिलाने के लिए, 6000 रुपया मासिक क़ी दर से भारत को कम से कम 30000 करोड़ रुपये मासिक कम से कम छह माह के लिए चाहिए। इसके अलावा 19 करोड़ लोग ऐसे हैं जो सामाजिक हाशिये पर हैं और रोजाना एक वक्त का खाना बमुश्किल खाते हैं। वे भोजन के बिना भूखे पेट सो जाते हैं। उनके पास मुश्किल से कोई बीपीएल या इसी तरह का कोई कार्ड है। भारत को उन्हें पहचानने और उन्हें खिलाने की जरूरत है। अनुमान के अनुसार यदि 35 रुपये प्रति व्यक्ति प्रति संध्या खाने की बात की जाय तो दो वक्त के उनके खाने के लिए कम से कम 39900 करोड़ रूपये मासिक की जरूरत छह माह तक पड़ेगी। वित्तीय समवेशन के अभाव में उन्हें खिलाने के लिए सबसे बड़ी समस्या उन्हें भुगतान करने की आएगी। इस बात पर संदेह है कि उनके पास किसी तरह का पहचान प्रमाण है। केवल एनजीओ से ही आशा की जा सकती है जो उन्हें सरकारी प्रतिपूर्ति के बदले खिला सकते हैं।

इस COVID-19 के कारण कितनी नौकरी छीनी जाएगी, इसका भी कोई अनुमान नहीं है। यह कहने की आवश्यक्ता नहीं है कि COVID-19 का हमला बहिर्जात (एक्सोजोनस) है जिसके प्रभाव का सही सही आकलन नहीं किया जा सका है। इस तरह के बहिर्जात झटकों से निपटने के लिए कोई भी उद्योग तैयार नहीं था। इन झटकों का सबसे बड़ा शिकार मध्यम, लघु और सूक्ष्म उद्यम (एमएसएमई) होंगे। उन्हें नसेटंदी के समय से ही वित्तीय तरलता की कमी है। अत्यधिक मामलों में इनका वित्तपोषण मालिकान और इनके रिश्तेदारों की पूंजी पर ही निर्भर करता है। बैंकों द्वारा ब्याज दर स्थगन इस संबंध में एकल मदद है। उचित प्रोत्साहन के अभाव में उनके लिए कर्मचारियों को इसकी वर्तमान दर पर बनाए रखना मुश्किल होगा।

भारत में एमएसएमई की 6.3 करोड़ इकाइयां हैं जो 45% क्षेत्रीय विनिर्माण उत्पादन के साथ नोमिनल सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में लगभग 30% का योगदान करती हैं। एमएसएमई लगभग 11 करोड़ लोगों को औसतन 1.75 प्रति यूनिट रोजगार देने के साथ ही अत्यधिक असंगठित हैं। शहरी एमएसएमई जो कुल एमएसएमई का पचास फीसदी हैं, वह बड़े उद्योगों की सहायक इकाइयां हैं, जिनके कारण उन्हें विलंबित भुगतान का सामना करना पड़ता है। भुगतान श्रृंखला में किसी भी तरह का दबाव उन्हें दिवालिया होने की ओर ले जाएगा। उनके लिए किसी भी प्रोत्साहन पैकेज की अनुपस्थिति से परिणाम धमाकेदार होंगे। एमएसएमई के लिए सबसे जरूरी है फैक्टरिंग (एक प्रक्रिया जिसमें उद्यम के रूके हुए भुगतान को कुछ अधिकृत एजेंट खरीद लेते हैं) का आसानी से उपलब्ध होना और यदि आवश्यक हो तो सरकार को फैक्टरिंग एजेंटों के रूप में इसके लिए कार्य करना चाहिए।

1 मार्च, 2020 से 31 मई 2020 के मध्य बकाया सभी ऋणों के संबंध में बैंकों और एनबीएफसी को किस्तों के भुगतान पर RBI द्वारा तीन महीने की मोहलत देने की अनुमति दी गयी है। इतना ही नहीं, इन बैंकों और एनबीएफसी को 1 मार्च, 2020 से 31 मई 2020 तक की बकाया कार्यशील पूंजी (वर्किंग कैपिटल) सुविधाओं के संबंध में ब्याज के भुगतान पर तीन महीने की छूट देने की अनुमति है। इन मोरेटोरियम से बैंकों और एनबीएफसी को एसेट लायबिलिटीज मिसमैच का सामना करना पड़ेगा। दिसम्बर 2019 में भारतीय रिजर्व बैंक ने स्ट्रेस टेस्ट के द्वारा यह अनुमान लगाया गया था कि अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों की सकल गैर निष्पादित आस्तियां (एनपीए) सितंबर 2019 में 9.3% से बढ़कर सितंबर 2020 में 9.9% हो जायेगा।

इसे सीता का शाप समझने की जरूरत नहीं है किंतु इसमें कोई आश्चर्य नहीं यदि चूक (डिफ़ॉल्ट) और एनपीए COVID-19 के बाद 9.9% से अधिक हो जाय। यह भविष्यवाणी की जाती है कि ऋणों में अधिक चूक (डिफाल्ट) दुनिया भर में बढ़ेगी और ऐसा ही भारत में भी होगा। इस संकट को कम करने के लिए, हमारे वित्तीय संस्थानों को वित्तीय रूप से मजबूत और अच्छी तरह से पूंजीकृत होना चाहिए। बचत दरों में कमी नहीं होनी चाहिए क्योंकि यह बैंकों के खातों में बचत को हतोत्साहित करेगा। यदि आवश्यक हो तो बैंकों और वित्तीय संस्थानों को ऋण के विस्तार और उसके पुनर्गठन के लिए तैयार रहना होगा। भारतीय बैंक अपने ग्राहकों को उनकी तरलता की कमी को दूर करने की योग्यता रखते हैं, किंतु एनपीए का प्रवाह होने पर उनके पास ऐसा करने की सीमित क्षमता होगी।

राजकोषीय बात करें तो समय की मांग है कि स्पष्ट आयकर स्लैब होना चाहिए। 500,000 रुपये तक की कर योग्य आय वाले व्यक्ति की आयकर की दर को शून्य करना समझदारी होगी। उपलब्ध वित्तीय वर्ष 2017-18 के आंकड़ों के अनुसार, वे करदाता जिनकी आय 0 से 500,0000 रुपये तक है, कर का सबसे बड़ा हिस्सा चुकाने वाले 4.57 करोड़ व्यक्ति हैं और वह कुल आयकर 121384 करोड़ का चुकाते हैं। अगर इनके आयकर को शून्य कर दिया जाता है तो यह राजकोषीय भार देगा, इसमें कोई संशय नहीं।

इसके विपरीत देखा जाय तो व्यक्तियों के पास अतिरिक्त व्यय योग्य (डिस्पोजेबल) आय होगी जिसका उपयोग वे या तो बैंकिंग चैनलों, म्यूचुअल फंड, सोने या संपत्ति के माध्यम से बचत में करेंगे या वे इसे उपयोगिता में खर्च करेंगे। यदि बैंकिंग चैनलों में डिस्पोजेबल आय को संचित किया जाता है, तो भारत में बैंकों के पास ऋण देने के लिए पर्याप्त राशि होगी जो कि निवेश के माध्यम से अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देगी जिससे देश में बेहतर बाजार परिदृश्य बनेगा। यदि डिस्पोजेबल आय को म्यूचुअल फंड में निवेश किया जाता है, तो कुशल कॉर्पोरेट घराने के पास उन्हें अपने व्यापार को विस्तार करने के लिए तरल धन उपलब्ध होगा जो अंततः आर्थिक बढ़ावा ही देगा। यही बात सोने और संपत्ति के साथ भी लागू होती है क्योंकि संपत्ति बेहतर बुनियादी ढांचे को बढ़ाएगी जिससे संगठित और असंगठित दोनों क्षेत्रों के कार्य बलों के लिए अवसर पैदा होंगे।

चलिये मान लेते हैं कि डिस्पोजेबल आय का पूर्णतया व्यय कर लिया जाता है तो ऐसे में क्या होगा! यदि डिस्पोजेबल आय उपयोगिता पर खर्च होती है तो ऐसी परिस्थिति में वह अर्थव्यवस्था में प्रत्यक्ष मांग पैदा करेगी जो अंततः आपूर्ति को बढ़ाएगा और अर्थव्यवस्था कुशलता से चलेगी। बाजार में मांग में वृद्धि श्रम आवंटन की बुनियाद खड़ी करेगी और इस प्रकार रोजगार में वृद्धि होगी जो अंततः उच्च मजदूरी, शिक्षा और स्वास्थ्य के अवसरों को बढ़ाने में सहायक होगा।

बड़ी कंपनियों के मोर्चे पर देखें तों 1 करोड़ रुपये तक की कुल कर योग्य आय वाले कॉरपोरेट्स की कर की दर को शून्य करना उचित है बशर्ते कि वे कुल लाभ अपने व्यवसाय के ग्रीनफिल्ड विस्तार में निवेश करेंगे। यदि वह ऐसा करने में असमर्थ होते हैं तो उन कंपनियों के लिए डिविडेंड डिस्ट्रीब्यूशन टैक्स को बढ़ाते हुए 30 फीसदी कर देना चाहिए जिससे कि किसी भी तरह की धोखाधड़ी न हो।

उपलब्ध वित्तीय वर्ष 2017-18 के आंकड़ों के अनुसार 0 से 1 करोड़ रुपये तक के करदाता जो कार्पोरेट श्रेणी में आते हैं उनकी संख्या 777715 है। वह कुल आयकर 24974 करोड़ रुपये का देते हैं जो न्यून है। यदि इस श्रेणी में व्यक्तिगत और कॉर्पोरेट की कुल राशि को जोड़ा जाए तो यह 146358 करोड़ रुपया होता है। इन कंपनियों के पास अतिरिक्त राशि होगी जो उन्हें अपने ग्रीन फील्ड विस्तार में निवेश करने में सहायक होगी। विफलता की स्थिति में उन्हें 30 फीसद की लागू दर पर डिविडेंड डिस्ट्रीब्यूशन टैक्स का भुगतान करना होगा जिससे वे बचना चाहेंगे और अपने ग्रीनफील्ड विस्तार में निवेश करेंगे। ग्रीनफील्ड विस्तार से कर योग्य आय भी बढ़ेगी। सरकार की जीत की स्थिति हमेशा होगी।  

एक करोड़ रुपये से ऊपर की कुल योग्य आय वाले कॉर्पोरेट की आयकर दर को 38% तक बढ़ा दिया जाना चाहिए। इससे कॉरपोरेट्स के बीच न्यूनतम अंतराल के लिए घबराहट फैल सकती है और एक अभावग्रस्त विचार भीड़ प्रभाव (क्राउडिंग आउट) की अफवाह फैला सकता है जो वास्तव में सच नहीं होगा। उपलब्ध वित्त वर्ष 2017-18 के आंकड़ों के अनुसार, उन करदाताओं जिनकी कर योग्य आय 1 करोड़ रुपये से अधिक है उनकी संख्या 19660 है और वह कुल 370747 करोड़ रुपये कर के रूप में चुकाते हैं। 38% तक कर बढ़ने से कर संग्रह 469612.87 करोड़ रुपये तक पहुंच जायेगा जिससे राजकोषीय बोझ 98865.87 करोड़ रूपये कम हो जाएगा।

जैसा कि पहले बताया गया है, COVID-19 के आक्रमण से पहले अर्थव्यवस्था में मांग की कमी थी। मांग को बढ़ावा देने के लिए, पूरे भारत में सबसे पहले नगरपालिका को सभी प्रकार के करों तथा लाइसेंस शुल्क को छह महीने तक माफ करना होगा। नगरपालिकाओं की कामकाजी जरूरत को पूरा करने के लिए, नगरपालिकाओं को नगरपालिका बांड जारी करने के लिए मंजूरी दी जा सकती है। राज्य के साथ-साथ केंद्र सरकार को उन कंपनियों के लिए जीएसटी में कमी देनी चाहिए जो व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरण (पीपीई), वेंटिलेटर और परीक्षण किट बना रही हैं। यह पाठकों के ध्यान में लाया जाना चाहियें कि इनमें उच्च प्रौद्योगिकी नहीं होती है और यदि भारतीय कंपनियां को प्रोत्साहित किया जाय तो वे बड़े पैमाने पर उत्पाद कर सकती हैं।

सेंटर फोर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के अनुसार, भारत में बेरोजगारी की दर 8.4% से बढ़कर 23% हो गई है। यदि यह पूरे वर्ष के लिए सही है, तो दूसरे चर को स्थिर रखते हुए और ओकुन लॉ लागू करने के बाद यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वास्तविक जीडीपी दर में 26.2% की कमी आएगी। यह एक ऐसा विषय है जिसपर बात करने से सरकार अभी कतराएगी। संयुक्त राज्य अमेरिका में बेरोजगारी को 4.4% से 10% आने में केवल ढाई साल लगे थे लेकिन 4.4% वापस आने में 7 साल लग गये। बेरोजगारी तेजी से बढ़ती है लेकिन रोजगार बढ़ने में समय लगता है। सरकार को इस पर संज्ञान लेने की जरूरत है।

एक खबर के अनुसार कर्मचारी राज्य बीमा निगम (ईएसआईसी) ने कर्मचारियों को आश्वासन दिया है कि यदि नियोक्ता उन्हें मासिक भुगतान करने में विफल रहता है तो वह मूल आय का 25% भुगतान करेगा। यहां एक गड़बड़ है। भारत में लगभग 45 करोड़ कर्मचारी हैं और ईएसआइसी के साथ पंजीकृत लोग केवल 13.32 करोड़ हैं। यह बहुत कम है। सरकार को समय और धन में श्रमिकों के समर्थन के मूल्य का सहयोग करने के लिए न्यूनतम बुनियादी आय प्रदान करने की आवश्यकता है। ऐसे समय में जरूरत है कि सरकार यह सुनिश्चित करे की तालाबंदी के दौरान कर्मचारियों को वेतन का भुगतान नियोक्ता के लिए बाध्यकारी न हो। इसके अलावा, जो लोग इस COVID -19 महामारी में फ्रंटलाइन कार्यकर्ता हैं, उनके पास 50 लाख रूपये की चिकित्सा बीमा के अलावा 1 करोड रूपये का न्यूनतम सुरक्षात्मक बीमा होना चाहिए।

यह एक ऐसा समय है जब सरकार को अपने पूरे प्रयास में पारदर्शिता की आवश्यकता है। यह सरकार की एक अच्छी पहल है कि कॉर्पोरेट सामाजिक जिम्मेदारी (सीएसआर) के तहत यदि कोई कम्पनी अपने अस्थायी/आकस्मिक श्रमिकों को उनके दैनिक वेतन से अधिक ऊपर जो भुगतान करेगी वह सीएसआर की श्रेणी में माना जाएगा। इस महामारी का मुकाबला करने की रणनीति पर सिंगापुर के विदेश मंत्री विवियन बालाकृष्णन का यह कथन उल्लेखनीय है जिसमें उन्होंने कहा, “हम सबसे बुरे दौर की तैयारी करते हैं। हम अपने सभी उपायों को परिष्कृत, समन्वित रूप से प्राप्त करते हैं। हमने अपने लोगों के साथ संवाद किया, लोग समझते हैं कि हम क्या कर रहे हैं।”

इस महामारी के बाद रेस्तरां सहित पर्यटन और आतिथ्य उद्योगों के लिए सबसे बुरा समय होगा। उपभोक्ता भावनाओं में प्रतिकूल विकास के कारण खर्च का एक संकुचन इस क्षेत्र की कुल मांग को इस महामारी के बाद भी प्रभावित करेगा। बाहर खाने, संगीत और यात्रा जैसे सामाजिक उपभोग सबसे कठिन दौर में होंगे। सरकार को इन उद्योगों के लिए पैकेज लाने की जरूरत है। मोटे अनुमान के अनुसार केवल पर्यटन उद्योग में 4 करोड़ से अधिक कार्यबल मौजूद हैं। इस क्षेत्र में उद्योग को बढ़ावा देने के लिए जीएसटी में एक अस्थायी कमी एक गारंटी के साथ अपरिहार्य है कि उद्योग किसी भी प्रकार के महामारी संक्रमण से सुरक्षित रहे। सरकार को इस क्षेत्र के लिए एक रोजगार रखरखाव कोष बनाना चाहिए ताकि रोजगार को बचाया जा सके।


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