तब बिहार में लालू प्रसाद यादव की सरकार हुआ करती थी। हमारे बाबूजी बताते हैं कि एक दिन एक सज्जन उनके पास आकर अपनी व्यथा-कथा कह रहे थे। उनकी शिकायत थी कि ‘गुआरों’ (ग्वालों) के राज में सब नष्ट हो गया है और वे अति पर उतर आए हैं। बाबूजी ने उनको लगभग आधे घंटे बिना किसी रोकटोक के सुना, फिर बोले, ‘यह तो इतिहास-चक्र है। घूम रहा है, आज जिसको तुम गुआर-राज कह रहे हो, वह तो असल में प्रतिक्रिया है। जब ब्राह्मणों का राज था, तब उन्होंने अनाचार किया, अब वो कर रहे हैं।‘
उसके बाद बाबूजी ने जो बात बताई, उसका लब्बो-लुआब ये था कि जगन्नाथ मिश्र हों या नागेंद्र झा, उनके शासनकाल में मैथिल ब्राह्मणों ने खूब अनाचार किए, जिसको मैथिली में ‘अत करना’ कहते हैं। मैथिलों (उसमें भी केवल ब्राह्मणों की) हरेक जगह वैध-अवैध नियुक्तियां की गयीं, खेत-चौर में जगन्नाथ मिश्र ने कॉलेज खुलवा दिए, वित्त-रहित, वित्त-सहित, न जाने किस-किस तरह की योजनाएं वह उच्च शिक्षा में लाए। यानी, उच्च शिक्षा को पूरी तरह बरबाद करने का श्रेय उनको ही दिया जा सकता है। बाबूजी ने एक चपरासी की कहानी सुनायी जो जाति से ब्राह्मण थे, पूरी सामंती ठसक उनमें थी और जगन्नाथ राज में वह सीएम कॉलेज, दरभंगा में नियुक्त हुए थे। उनकी हेकड़ी का आलम यह था कि वह किसी भी प्रोफेसर की बात नहीं मानते थे, अपने काम को वे हेठी मानते थे और कुछ पैसे के बदले बच्चे को अपनी जगह काम पर लगाये हुए थे।
यह कहानी सुनाकर बाबूजी ने कहा, ‘जातिवाद बुरी ही चीज है, बेटे। मीठा-मीठा गपा-गप और कड़वा-कड़वा थू नहीं चलेगा। इसको रोकना है, तो बस रोकना है। अगर-मगर करेंगे तो वही दुर्दशा होगी, जो आज बिहार की हो गयी है।’
आज जब बिहार में जातिगत जनगणना की शुरुआत हो रही है, तब ये पुरानी बातें याद आ रही हैं। बीते सात दशक में सिर्फ और सिर्फ जातिवाद की नींव पर खड़ी बिहार की राजनीति के हर एक खिलाड़ी ने इस जाति गणना का स्वागत किया है। राहुल गांधी कह रहे हैं कि जातिगत गणना से समाज का असल चेहरा सामने आएगा। क्या बिहार के समाज का असल चेहरा अब भी छुपा हुआ है? कौन नहीं जानता कि बिहार के समाज का पर्याय ही जातिवाद है?
इस जातिवाद की जड़ें बिहार के पहले मुख्यमंत्री ने ही रख दी थीं। उनको आज भी सम्मान से बाबू श्रीकृष्ण सिंह बुलाते हैं। हमारे पिता-चाचा की पीढ़ी बताती है कि उनके राज में मुख्यमंत्री के सजातीयों के साथ खुले तौर पर पक्षपात होता था। जातिवाद चाहे जगन्नाथ का हो, लालू का हो या नीतीश का, एक सुर में निंदनीय है! एफर्मेटिव ऐक्शन के नाम पर बिहार में जो पिछले तीस वर्षों से हो रहा है, वह शायद उसके पहले जमींदारी और परंपरा के नाम पर हो चुका है। केवल चेहरे बदले हैं, जातियां बदली हैं, लेकिन बिहार का दुर्भाग्य नहीं बदला है।
बिहार के एक वरिष्ठ नौकरशाह कहते हैं, ‘बिहार का जातिवाद बिल्कुल ही अलग है। बाकी जगहों पर आप देखेंगे कि क्षेत्रवाद हावी हो जाता है जातिवाद पर। बिहार में हरेक पहचान से अलग और ऊपर जाति हावी है। सबकी पसंद आखिरकार जाति पर ही जाकर टिक जाती है, विनाश का यही मूल कारण है।’
बिहार में जाति हरेक जगह मौजूद है। प्रशासनिक परीक्षाओं से लेकर नियुक्ति तक में, ठेकेदारी से लेकर रंगदारी तक में, पान की दुकान से लेकर विद्यालयों तक। 1990 के बाद इसका क्रूरतम रूप हमें देखने को मिला जब लालू प्रसाद यादव ने खुलेआम ‘भूराबाल साफ करो’ का नारा बुलंद किया। भूराबाल का मतलब भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला यानी कायस्थ होता है। लालू जिस सामाजिक न्याय का बल और भरोसा लेकर आए थे, वह सत्ता के पहले दो-तीन वर्षों में ही यादववाद, परिवारवाद और सामान्य वर्ग के प्रति विद्वेष से ग्रस्त हो गया। लालू ने इसको कभी छुपाया भी नहीं और अपनी भदेस भाषा में इसे और लोकप्रिय होने का औजार भी बनाया।
लालू के बाद सत्ता में आये नीतीश कुमार ने कुछ बदला तो बस ये कि यादववाद की जगह कुर्मीवाद ने ले ली। नौकरशाही का हौसला पूरी तरह तोड़ दिया गया और बिहार का मतलब राजगीर-नालंदा हो गया। इसके साथ ही नीतीश की कोटरी (छोटा समूह) को यह खुली छूट दी गयी कि वह बिहार नाम की हड्डी पर लगे-बचे थोड़े-बहुत मांस को भी चींथ जाए। यह बिल्कुल अध्ययन का विषय है कि आखिर 12 करोड़ जनता को पिछले 30 वर्षों से लगातार बेवकूफ बनाने का वह कौन सा फॉर्मूला है, जो आज तक बिहार की जनता इन नेताओं को झेल रही है, इनको उखाड़ नहीं फेंकी है। कहावत है- आप कुछ लोगों को कुछ समय के लिए मूर्ख बना सकते हैं, सभी को हर समय नहीं। बिहार इसका अपवाद दिखता है।
यह कमाल की बात है कि बिहार में कोई भी वर्तमान पर बात नहीं करता। एक सामान्य बिहारी से लेकर बिहार सरकार के पर्यटन विभाग तक देख लीजिए, सभी अशोक, चंद्रगुप्त, चाणक्य, जनक, विद्यापति, दरभंगा महाराज आदि-अनादि की चर्चा करते रहेंगे। मजाल है कि कोई भी नागरिक, विद्यार्थी, नेता, अभिनेता वर्तमान पर बात कर ले जबकि अतीतजीवी बिहार का वर्तमान पूरी तरह ध्वस्त है। 12 करोड़ की जनसंख्या वाले इस प्रदेश के चार करोड़ लोग दूसरे प्रदेशों में धक्का, गाली औऱ मार खा रहे हैं। असली आंकड़े इससे अधिक हो सकते हैं। जिस बिहार ने 1970 के दशक में इंदिरा गांधी को उखाड़ फेंका, जयप्रकाश की संपूर्ण क्रांति के हरावल दस्ते में शामिल हुआ, वह बिहार आज इतना जीर्ण-शीर्ण क्यों है?
जयप्रकाश नारायण का नाम आते ही हम लोकनायक-लोकनायक जपते हुए, लंबी उच्छ्वास भरते हुए रोने-पछाड़ने लगते हैं, लेकिन कभी यह नहीं सोच पाते कि कोई तो वजह होगी कि जयप्रकाश के चेलों (लालू-नीतीश-सुशील मोदी-रामविलास) ने बिहार की यह दुर्गति कैसे और क्यों की है। 1990 से लगातार संपूर्ण क्रांति के अलमबरदार और सामाजिक न्याय के ठेकेदार ही तो बिहार की सबसे बड़ी कुर्सी पर बैठे हैं, फिर बिहार जहालत और अंधेरे के इस बियाबान में क्यों भटक रहा है। क्या इसके लिए डायलिसिस पर चल रहा और राजनीति से दूर जा चुका वह बूढ़ा आदमी भी कहीं न कहीं जिम्मेदार नहीं, जिसने वापसी की और पूरे भारत को हिला दिया, लेकिन बिहार उसके बाद ही डायलिसिस पर चला गया।
जातिगत गणना के ताजा परिदृश्य में बिहार के सामाजिक-राजनीतिक इतिहास में जातिवाद की भूमिका पर वस्तुनिष्ठ तरीके से बात किये बगैर गणना के पक्ष या विपक्ष में नारे लगाने का कोई मतलब नहीं है। आने वाला समय ही बताएगा कि जातिगत गणना का यह राजनीतिक दांव वास्तव में वंचित जातियों के सशक्तीकरण का माध्यम बनेगा या महज मंडल का दूसरा संस्करण साबित होगा।