संत लाल दास – हिंदुत्व के इतिहास का एक ऐसा नाम है जिसे कोई नहीं लेना चाहता. खासतौर से विश्व हिंदू परिषद, बीजेपी और आरएसएस के लोग यह नाम सुनकर ही मुंह बिचकाने लगते हैं. जैसे ही आप यह नाम लेंगे, एक अपराधबोध मिश्रित नकार उनके चेहरे पर उभर आता है.
क्यों ?
क्योंकि संत लाल दास वही शख्स थे जिन्होंने राम मंदिर-बाबरी विवाद के शांतिपूर्ण हल की बात की थी. वो इस मुद्दे के राजनीतिकरण के सख्त खिलाफ थे. जब तक वो जिंदा रहे परिषद, बीजेपी और आरएसएस की दाल अयोध्या में नहीं गल पायी.
लाल दास मानते थे कि यह स्थानीय ज़मीनी विवाद है अत: इसका हल भी स्थानीय तरीके से निकाला जाना चाहिए. इस मुद्दे के समाधान के लिए कोर्ट-कचहरी, रथयात्रा, आंदोलन की कोई जरूरत नहीं.
लाल दास का दूसरा परिचय यह है कि कोर्ट ने उन्हें रामजन्मभूमि का पुजारी नियुक्त किया था. कोर्ट ने माना था कि लाल दास तटस्थ हैं इसीलिए भगवान राम का पुजारी बनने के काबिल हैं. याद रहे, तटस्थता कोर्ट की निगाह में तब एक ज़रूरी योग्यता हुआ करती थी. ज्यादा वक्त नहीं हुआ. सिर्फ दो दशक पहले की बात है.
बहरहाल, यह बात राम के नाम पर दिल्ली-लखनऊ की सत्ता पर कब्जा करने को आतुर हिंदू नाजीवादियों को पसंद नहीं आयी. आती भी कैसे?
यह महज संयोग नहीं हो सकता कि कल्याण सिंह के नेतृत्व में 1991-92 में उत्तर प्रदेश में जब पहली बार बीजेपी की सरकार बनी तो लाल दास को पुजारी के पद से हटा दिया गया. और इसके कुछ समय पश्चात ही उनकी हत्या हो जाती है.
सीबीआइ की जांच फाइलों में हत्या का कारण ज़मीन विवाद के रूप में दर्ज है पर असल कारण सत्ता और पैसे का लालच था. अयोध्या और उसके आसपास के लोग मानते हैं कि लाल दास की हत्या राम मंदिर राजनीति पर कब्जा जमाने वालों के इशारे पर की गयी थी, हालांकि इसे सीबीआइ भी साबित नहीं कर पायी.
मैं दिल्ली से धर्म सभा कवर करने गया था. 2018 की धर्मसभा की अहमियत इस बात में है कि राम मंदिर का फैसला आने से पहले जनमत बनाने के मकसद से विश्व हिंदू परिषद द्वारा आयोजित की गयी यह आखिरी धर्म सभा थी. मेरे साथ द हिंदू के ओमर राशिद, स्क्रॉल के शोएब दानियाल और द प्रिंट की अदिति भी आ जुड़े. अयोध्या यूनिवर्सिटी के गेस्ट हाउस में हम चार लोग एक ही कमरे में रुके हुए थे. ओ.पी. सिंह नहीं होते तो ठंड के मौसम में शायद वह भी नसीब नहीं होता क्योंकि पूरी अयोध्या पर रामभक्तों का ही कब्जा था.
लाल दास का नाम 2018 में अयोध्या वाले दबी जुबान से ही ले रहे थे. वरना कोई तो होता जो खुलकर इस बारे में बात करता. राम की नगरी में साहसी और सतचरित लोगों को नितांत कमी है – ऐसा मैं मानता हूं.
मैं पहली बार रामभक्तों के आतंक से अयोध्या को सहमते हुए, डरते हुए देख रहा था. तब धर्मसभा में भाग लेने के लिए आज के सेक्युलरवादी उद्धव ठाकरे भी सपरिवार पहुंचे थे. हज़ारों की तादाद में त्रिशूलधारी शिव सैनिक मुंबई से स्पेशल ट्रेन के जरिये अयोध्या आये थे. मैंने देखा था कि कैसे राम के नाम पर उस साल अयोध्या में कट्टर हिंदुत्व सड़कों पर नंगा घूम रहा था. लाउडस्पीकर से नारे लग रहे – ‘तेल लगा के डाबर का, नाम मिटा दो बाबर का’.
मैंने यह भी देखा था कि कैसे चैनल नंबर वन की एक विषकन्या जो उस वक्त एबीपी न्यूज में थी, विश्व हिंदू परिषद की कार्यशाला से राम मंदिर के पक्ष में ज़हर उगल रही थी.
पुराने अयोध्यावासी मानते हैं कि अयोध्या का चरित्र पहले ऐसा नहीं था. अगर लाल दास होते तो शायद यह सब नहीं होने देते. हो सकता है मंदिर भी सहमति से बन जाता. पर राम के नाम पर रावण राज्य स्थापित करने वालों को लाल दास शुरू से खटक रहे थे. यह बात गौर करने वाली है कि लाल दास की हत्या के बाद ही राम मंदिर आंदोलन की कमान संघ परिवार के हाथ में आयी.
उस साल विश्व हिंदू परिषद की धर्म सभा से डरकर करीब 3500 मुसलमान अपना घर-बार छोड़कर राम की नगरी से भाग गये थे. इस बात को दर्ज किया जाना चाहिए कि जिसे हिंदुओं के बीच राम राज्य कहकर प्रचारित किया जाता है, वह दरअसल कुछ मुट्ठीभर अपराधियों द्वारा चलाया जाने वाला धार्मिक-माफिया राज है.
उस साल नवंबर की दोपहर में मुस्लिम मुहल्लों में पसरा सन्नाटा चैत-बैशाख के सन्नाटे से भी गहरा था. घरों में ताला लटका कर बच्चों को दामन में छुपाये भागती हुई कुछ महिलाओं को मैंने खुद देखा था. मन किया कि उनसे कहूं कि रुक जाइए. आपका अपना घर है, छोड़कर मत जाइए लेकिन नहीं कह सका!
बाद में जब हमने ख़बर चलायी तो थोड़ी हलचल हुई. सबने फॉलो भी किया, लेकिन सरकार ने भागते हुए लोगों को रोकने के लिए भरोसे का एक शब्द भी नहीं बोला.
उसी दौरान मुझे मधु किश्वर के साथ लाल दास का आखिरी इंटरव्यू पढ़ने को मिला. इंटरव्यू उमके द्वारा प्रकाशित-संपादित पत्रिका ‘मानुषी’ में छपा था. यह वही मधु किश्वर हैं जो आजकल मोदी की सबसे ज़हरीली भक्त हैं. उस दौरान मधु ‘मानुषी’ चलाती थीं. तब उनकी रगों में ज़हर नहीं, खून ही बहा करता था.
उस इंटरव्यू में लाल दास ने अपने जिंदा रहने पर हैरानी जतायी थी. लाल दास ने बताया था कि उस दौरान करीब 10 लाख तक सालाना चंदे के रूप में मिल रहे थे. 25-26 साल पहले यह रकम कम नहीं थी.
आज भी कई लोग राम मंदिर निर्माण के लिए दिये गये दान के बारे में जानना चाहते हैं. अगर हज़ारों करोड़ नहीं तो कम से कम सैकड़ों करोड़ का दान पिछले दो-तीन दशकों में ज़रूर मिला है, लेकिन पैसा गया कहां?
इस बारे में संघ, विहिप, बीजेपी की तरफ से आज तक कोई बयान या स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है. संभवत: नए राम राज्य के उसूलों में पारदर्शिता शामिल नहीं है.
मोदी सरकार ने भूमि पूजन के लिए मंदिर आंदोलन में शहीद परिवारों को खास तौर से बुलाया था. पता नहीं कि लाल दास का परिवार कहां और कैसा है, उन्हें बुलाया भी गया था या नहीं.
अयोध्यावासी बताते हैं कि रामभक्त लाल दास का प्रेत आज भी अयोध्या के ऊपर मंडराता रहता है! वह हर किसी से सवाल भी करता है कि हिंसा की बुनियाद पर चाहे जितना भव्य मंदिर बना दिया जाये, क्या उस मंदिर में राजा राम निवास करेंगे?