कोरोना: रोज बनते मौतों के रिकार्ड के बीच अब गांवों से भी निकल रही हैं लाशें


पिछले हफ़्ते गाँव में एक बुज़ुर्ग महिला की मृत्यु हुई। मृत्यु प्राकृतिक थी न कि इस महामारी के कारण। ये बात बतानी इसलिए ज़रूरी है कि आजकल हो रही मौतों में कोरोना से हो रही मौतों को सामान्य और सामान्य मौतों को भी कोरोना से बताये जाने के मामले देखे जा रहे हैं। ख़ासकर ग्रामीण क्षेत्रों में अगर किसी को लक्षण हैं तो पहले वो इसे मौसम के बदलाव बताते हुए नज़रंदाज करता है और उससे भी अधिक आस पड़ोस के लोगों को विश्वास दिलाता है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ है। अगर ज़ोर दबाव में आकर टेस्ट करा लिया और पॉज़िटिव रहा, तो उसे छुपाने का पूरा प्रयास करता है। ये छुपाने की प्रवृति बहुत नुकसान पहुँचा रही है। ये कोई अपराध नहीं है। आप इससे छुपाकर ही एक अपराध करेंगे बल्कि बताकर कुछ लोगों को सुरक्षित ज़रूर कर पाएंगे।

उन बुज़ुर्ग महिला की मौत के बाद पूरा गाँव इकट्ठा तो हुआ, लेकिन इस बार तस्वीर अलग थी। लोग जितना सम्भव था दूर-दूर ही खड़े थे और सबसे अलग बात कि दबाव में मुँह पर गमछा बाँधकर और बहुत कहने पर साड़ी को मास्क के रूप में इस्तेमाल करने वाली महिलाएं भी मास्क में थीं। पिछले साल ऐसी तस्वीर देखने को नहीं मिलती थी गाँवों में लेकिन ये तस्वीर डराती भी है और तसल्ली भी देती है।

मैं पिछले साल अक्टूबर में जब घर आया और आने के बाद पूर्वांचल के दो तीन ज़िलों के 8-10 क्षेत्रों में अपने काम के सिलसिले में गया। उस दौरान मुझे ढूँढना पड़ता था कि कोई मास्क लगाये हुए इन्सान दिख जाये, उल्टा लोग मुझे ही ध्यान से देख रहे थे कि मैं मास्क क्यों लगाया हूं। ऐसा लगता था कि यहां कुछ है ही नहीं, न ही इस महामारी को लेकर कोई डर है। डर नहीं है एक बात, लेकिन लापरवाही जो थी उससे मुझे डर ज़रूर लगा। सोचने वाली बात तो ये हुई कि इस बीच दसियों लोग मुझसे ये पूछे कि ‘अरे भैया ये करोना वरोना सच में है या अफ़वाह है’, ‘अरे भैया ई सर्दी खाँसी है कि बस मोदी सब अफ़वाह फैलाए हैं’। झूठ का कारोबार इतने गहरे बैठ चुका है कि लाखों लोगों को मारने वाले इस वायरस को कुछ लोग अभी अफ़वाह ही समझ रहे हैं।

कोरोना महामारी और ग्रामीण क्षेत्र

24 अप्रैल को पंचायती राज दिवस के मौक़े पर पंचायत सदस्यों और प्रतिनिधियों के साथ वर्चुअल बातचीत और ‘पुरस्कार वितरण’ कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पंचायत प्रतिनिधियों से कहा“पिछले साल की तरह इस साल भी कोरोना महामारी को गाँवों तक पहुँचने नहीं देना है”। इस बयान पर आप हंस भी सकते हैं, रो भी सकते हैं और चाहें तो अपना माथा भी पीट सकते हैं। आप चाहे ग्रामीण क्षेत्र से हों या ना हों सबको पता है इस दूसरी लहर में गाँव भी पूरी चपेट में आ चुके हैं। अब ऐसा तो है नहीं कि देश के प्रधानमंत्री को इतनी ज़रूरी बात पता नहीं होगी और जिन प्रतिनिधियों से उन्होंने ये तथ्यहीन बात की उन्होंने तुरंत टोका क्यों नहीं इस पर सवाल करना तो बेकार ही है। आप रोकथाम के लिए कह सकते हैं, सतर्कता के लिए कह सकते हैं लेकिन खुलेआम तथ्य को कैसे नकार सकते हैं।

मेरा गाँव आसपास के 6-7 छोटे बड़े गाँवों से घिरा हुआ है। यहां सिर्फ़ मैं इन गाँवों में इस महामरी के प्रभाव की बात बात रहा हूं। एक गाँव में जान-पहचान के एक 35 वर्षीय व्यक्ति की अस्पताल में भर्ती न होने और ऑक्सीजन न मिलने के कारण मौत हो गई। दूसरे गाँव में एक दैनिक अख़बार के पत्रकार और उनके पूरे परिवार के संक्रमित होने के बाद उस गाँव के कई घरों के लोग संक्रमित पाये गये। एक अन्य गाँव में भी दो-तीन मौतें हुईं। ये सिर्फ़ मौत के आँकड़े हैं वो भी पिछले 10 दिनों के और संक्रमण की बात करें तो ये संख्या 100 से अधिक है सिर्फ़ इन गाँवों में। गाँवों में जाँच की कोई व्यवस्था नहीं है और बहुत से लोग अस्पताल से लौटाये जा रहे हैं। उनकी मौत इस महामारी के आँकड़ों में नहीं गिनी जा रही है। ग्रामीण क्षेत्र में महामारी के प्रकोप और अस्पतालों के हाल के सम्बंध में प्रिंट की रिपोर्ट्स महत्वपूर्ण हैं।

ये संक्रमण अब बहुत क़रीब से होकर गुज़र रहा है

पिछले साल जब पहली बार अपनी टीम के साथी की मां के कोरोना संक्रमित होने का पता चला था तो जी सन्न रह गया था, उस दिन पहली बार इस संक्रमण की गम्भीरता का सही से अंदाज़ा लगा था और मन में आ रहा था- ‘अरे, उन्हें कैसे हो गया’। एक वो समय था और एक आज का दिन। पिछले महीने शायद ही कोई दिन ऐसा गया हो जिस दिन जान पहचान वाले किसी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष के संक्रमित होने, मरने या अस्पताल में भर्ती होने और बेड, ऑक्सीजन और दवाओं के जूझने की ख़बर न सुनी हो। देश का हर एक व्यक्ति किसी न किसी रूप में इस महामारी का अनुभव कर चुका है या कर रहा है। अगर ये हादसे सिर्फ़ महामारी के चलते होते तो एक दफे लोग सांत्वना भी दे सकते थे लेकिन इनमें से बहुत सी मौतें संसाधनों की कमी, अव्यवस्था, प्रबंधन की कमी और प्रशासन की ग़ैर-ज़िम्मेदारी के चलते हुईं।

महामारी की भयावहता और बेशर्म अवसरवादी बाज़ार

प्रधानमंत्री के नामांकन प्रस्तावक तथा पदम् विभूषित गायक पं. छन्नू लाल मिश्र की बेटी का वीडियो 

पिछले साल एक मित्र को अपनी मां को अस्पताल में भर्ती कराना था जिसके लिए दिल्ली के एक निजी अस्पताल ने भर्ती से पहले 15 लाख रूपए जमा कराने को कहा और बहुत दौड़ भाग करने के बाद भी कोई अस्पताल बिना पैसा जमा किये भर्ती करने को राज़ी नहीं हुआ। ये हाल एक साल पहले था, अब का हाल किसी से छुपा नहीं है। पहले तो अस्पताल में जगह नहीं है और जगह है तो ऑक्सीजन की व्यवस्था नहीं और ऊपर से अगर आपका ‘परिचय’ है तभी आपको जगह मिलेगी और कहीं-कहीं तो खुलेआम पैसे लेकर बेड बेचे भी जा रहे हैं।

हाल के दिनों में ऑक्सीजन के एक सिलिंडर के लिए 20000-100000 तक, कोरोना के इलाज में काम आने वाले इंजेक्शन रेमडेसिविर की खुराक के लिए 10000 से 70-75 हज़ार तक में कालाबाज़ारी हो रही है। पिछले दिनों एक दोस्त के लिए इस इंजेक्शन की बहुत आवश्यकता थी लेकिन क़रीब 25-30 लोग फोन पर सोशल मीडिया पर हर तरफ़ मदद माँग रहे थे। फिर कहीं से जाकर एक नेता के माध्यम से दो इंजेक्शन की व्यवस्था हुई लेकिन उसके बाद 4 और इंजेशकन की ज़रूरत थी, फिर मैंने कई जगह बात की। एक जगह पता चला कि इंजेक्शन है लेकिन 45000 में एक मिलेगा, थोड़ा पूछताछ की तो सामने वाले ने फ़ोन बंद कर दिया।

दूसरे दोस्त ने बताया कि उससे एक व्‍यक्ति ने 72000 रुपये माँगे एक इंजेक्शन के लिए। वहीं कई जगहों पर ऑक्सीजन के बड़े सिलिंडर 30000 और छोटे सिलिंडर 10000 तक में बेचते हुए पकड़े गये। ये सवाल तो है ही कि ऐसे दुर्लभ समय में भी ये कैसे लोग हैं जो इस तरह के काम कर रहे हैं, लेकिन उससे बाद सवाल ये है कि अगर ये दवाएं, ऑक्सीजन और इंजेक्शन इतने ज़रूरी हैं तो इनके प्रबंधन और वितरण का काम सरकार और प्रशासन अपने हाथों में क्यों नहीं लेती। क्यों न ये सुविधाएं सीधे अस्पतालों को उनकी ज़रूरतों के हिसाब से मुहैया करायी जाएं और मरीज़ के परिजनों को न भटकना पड़े और न ही इस कालाबाज़ारी का शिकार होना पड़े।

पिछले दिनों में हमने इस तरह के कई मामले देखे जहां ऑक्सीजन की जगह आग बुझाने वाले सिलिंडर बेचे जा रहे थे, रेमडेसिविर के इंजेक्शन में पानी भरकर बेचा जा रहा था और कई मामले तो ऐसे आये जहां ख़ुद डॉक्टर इस कालाबाज़ारी में लिप्त पाये गये। एक ओर लोग हज़ारों की संख्या में मर रहे हैं और दूसरी ओर ये कालाबाज़ारी उनको और मजबूर बना रही है।

ऑक्सीजन की कमी से मरते लोग, अदालतों के फ़ैसले और नेताओं की विरोधाभासी बयानबाज़ियाँ

सबसे पहले ऑक्सीजन की कमी के चलते पिछले दिनों हुई मौतों से सम्बंधी कुछ ख़बरों पर ध्यान दें-

ऑक्सीजन खत्म होने से 30 मिनट पहले अस्पताल में पहुंचा ऑक्सीजन टैंकर, बचे 500 मरीज़
डॉक्टर समेत 8 मरीज़ों की दिल्ली के बत्रा अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी से हुई मौत
दिल्ली के जयपुर गोल्डन अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी से बीती रात हुई 20 मरीज़ों की मौत
हरियाणा के अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी से 5 की मौत, 24 घंटे में इस प्रकार की तीसरी घटना
दिल्ली के अस्पताल में बीती रात 20 मौतें होने के बाद वहां पहुंचा ऑक्सीजन का टैंकर
यूपी के अस्पताल में ऑक्सीजन की कथित कमी के चलते हुई कोविड-19 संक्रमित 5 मरीज़ों की मौत

ये ख़बरें स्थिति की भयावहता को बताने के लिए काफ़ी हैं कि देश में ऑक्सीजन की सप्लाई और उसके प्रबंधन और उपलब्धता का क्या हाल है। अगर सही प्रबंधन और ज़िम्मेदारी के साथ स्थिति को सम्भाला जाता तो सिर्फ़ ऑक्सीजन के समय से पहुँचने के कारण ही कितनी जानें बच जातीं। बात यहीं तक होती तो ठीक थी लेकिन दिल्ली के कई अस्पतालों को ऑक्सीजन के लिए हाईकोर्ट का दरवाज़ा खटखटाना पड़ा है। राज्य सरकार ने पहले ही हाथ खड़े कर दिए कि उनके पास ऑक्सीजन नहीं है और केंद्र से मदद की गुहार लगाई और साथ ही सभी राज्यों से ऑक्सीजन देने की गुज़ारिश की। अस्पताल चिल्ला रहे हैं कि किसी के पास 20 मिनट तो किसी के पास आधे घंटे की ऑक्सीजन बची है समय से पहुँची तो ठीक नहीं तो मौत। फिर अदालत को इस मामले में कड़े निर्देश देने पड़े। इस मुद्दे पर हाईकोर्ट के कुछ फ़ैसले देखें-

ऑक्सीजन रीफिलिंग यूनिट को अपने हाथ में लें, स्थिति संभालें: दिल्ली सरकार से हाईकोर्ट
अगर कोई ऑक्सीजन सप्लाई रोकेगा तो हम उस आदमी को फांसी पर चढ़ा देंगे: दिल्ली हाईकोर्ट
भीख मांगो, उधार लो या चुराओ: कोविड-19 के बढ़ते केसों के बीच ऑक्सीजन आपूर्ति पर हाईकोर्ट

आख़िर स्वास्थ्य जैसी ज़रूरी और मूलभूत सुविधा के लिए ज़िम्मेदार सरकारों को अदालतों को जगाने की ज़रूरत क्यों पड़ रही है? अगर अदालतें हस्तक्षेप न करें तो आम आदमी की हालत किस कोने लग जाए इससे सरकार को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा? स्थिति अब भी कमोबेश वही है, ऑक्सीजन के लिए हाहाकार अब भी है दवाओं की कालाबाज़ारी अब भी है, हालाँकि सप्लाई के लिए वायुसेना को लगाया गया और कुछ विशेष ट्रेनें अलग-अलग राज्यों में ऑक्सीजन पहुँचाने के काम में लगाई गईं।

एक दिन पहले ही मंगलवार को दिल्‍ली उच्‍च न्‍यायालय ने केंद्र सरकार को यह पूछते हुए कारण बताओ नोटिस जारी किया है कि दिल्‍ली को ऑक्‍सीजन की आपूर्ति के सम्‍बंध में न्‍यायालय के आदेश का पालन न करने पर उसके खिलाफ अवमानना की कार्रवाई क्‍यों न शुरू की जाय।

लगातार बढ़ते केस, मरते लोग और मुँह चिढ़ाती चुनावी रैलियाँ

देश में कोरोना संक्रमण के 8 हज़ार से 3 लाख तक केस पहुँचने में डेढ़ से दो महीने का वक़्त लगा और फिर ये आंकड़ा देखते देखते 4 लाख के पार पहुँच गया। बाज़ार बंद हुए, लोग घरों में बंद हुए, लोगों की सांसें बंद हुईं। बस चलती रहीं तो चुनावी रैलियां। सोचने वाली बात है कि हर रोज़ जब आँकड़े भयावह हो रहे थे, ऑक्सीजन के लिए देश भर में हाहाकार मचा हुआ था, अस्पताल अदालतों की चौखट पर थे, लोग ऑक्सीजन की कमी से मर रहे थे, दवाइयों के लिए लोग एक दूसरे से सोशल मीडिया पर मदद मांग रहे थे और मदद कर रहे थे, ठीक उसी समय देश के ‘मुखिया’, केंद्र के ज़िम्मेदार मंत्रियों की टीम और अन्य पार्टियों के नेता चुनावी रैलियों में व्यस्त थे। प्रधानमंत्री जी दिन भर हज़ारों हज़ार की संख्या में रैलिया करते थे और फिर आकर वर्चुअल मीटिंग में लोगों को संदेश देते थे, मुख्यमंत्रियों से मीटिंग करते, लोगों से घरों में रहने और कोरोना गाइडलाइन का पालन करने की अपील करते। ऐसी बेशर्मी भला कोई कैसे कर सकता है। एक होती है राजनीतिक शुचिता जिसकी बात करना यहां पत्थर पर सिर मारने जैसा है लेकिन एक होती है संवेदना और मानवता, यहां वो भी नहीं दिखी।

चुनाव कराने के लिए ज़िम्मेदार संस्था चुनाव आयोग के मुँह से बोल तक नहीं फूटे। उसने अपनी आँखें बंद कर लीं। एक बार भी ये कहने की हिम्मत नहीं की कि इस दुख के समय में चुनाव ज़रूरी नहीं हैं, लोगों की जान बचाना ज़रूरी है। चुनाव साल दो साल के लिए भी टल जाते तो कोई आफ़त नहीं आ जाती लेकिन जो आफ़त आयी है उसे बढ़ाने में इस चुनाव ने पूरी भूमिका निभायी। और जब सब कुछ हो गया तो पीएम साहब अपनी एक रैली का दान करके लोगों पर अहसान किए और जब सभी चरणों के चुनाव हो गये तब चुनाव आयोग ने ‘कड़ा’ निर्णय लेते हुए वोटों की गिनती और परिणाम के बाद जश्न मनाने पर रोक लगने का आदेश जारी किया। ये क्या मदारी और बंदर का खेल चल रहा है? सारे पाप करने के बाद गंगा में डुबकी मार के पवित्र होने की उम्मीद की जा रही है? रैलियों में जो संक्रमण का विस्फोट हो गया उसको आप कैसे रोकेंगे और क्यों नहीं रोका? आख़िर मद्रास हाईकोर्ट को ये कहना ही पड़ा कि देश में बढ़े कोरोना संक्रमण के लिए चुनावी रैलियां पूरी तरह से ज़िम्मेदार हैं और शायद चुनावी अधिकारियों पर हत्या का मुकदमा दर्ज होना चाहिए।

ऑक्सीजन, ऑक्सीजन और ऑक्सीजन

पिछले एक दो महीनों में हमने सबसे ज़्यादा ये शब्द सुना होगा और इसका महत्व भी समझा। यूपी के मुख्यमंत्री ने कहा कि किसी भी अस्पताल में ऑक्सीजन की कोई कमी नहीं और किसी दवा की कोई कमी नहीं है। ऊपर हमने बताया कि यूपी में ऑक्सीजन की कमी के चलते पांच लोगों की मौत हुई और इस तरह की तमाम ख़बरें देखी जा सकती हैं। इसी संदर्भ में इलाहाबाद (प्रयागराज) की एक रिपोर्ट ध्यान देने योग्य है।

पिछले दिनों देश के स्वास्थ्य मंत्री ने भी कहा कि देश में किसी चीज़ की कोई कमी नहीं है। एक बात समझ नहीं आती कि अगर कमी है तो उसे दूर करने के बजाय उस पर मिट्टी डालने में इतनी मेहनत क्यों कर रहे हैं ये लोग। क्या ये जो बताएंगे वही सब मानेंगे? लोगों को दिख नहीं रहा? जिसके घर का कोई सदस्य ऑक्सीजन या किसी दवा की कमी से मर गया उससे आप ये बात कहेंगे तो वो क्या करेगा? वो तो आपको झूठा ही बोलेगा!

इधर यूपी में बेतहाशा केस बढ़ने शुरू हुए तो 30 हज़ार के ऊपर मामले आने लगे और सूबे के मुख्यमंत्री ने ऐलान कर दिया कि ऑक्सीजन सिर्फ़ अस्पतालों को दी जाए, घरों में रह रहे मरीज़ों को नहीं। क्या घरों में रह रहे मरीज़ प्रदेश की जनता नहीं हैं? क्या घरों में जिनका इलाज हो रहा है उनकी कोई गलती है? जब आपके अस्पताल खाली नहीं हैं और उनमें सुविधाओं का अभाव है तो लोग अपने घर में ही इलाज कराएंगे न? आप उनको ऑक्सीजन देने से रोक रहे हैं। इस संदर्भ में एक दिलचस्प ख़बर आयी थी जहां ऑक्सीजन देने वाले पर ही केस कर दिया गया।

ऐसे में जब लोग आपस में एक दूसरे की मदद करने और जान बचाने की कोशिश कर रहे हैं प्रशासन इस काम को दुरुस्त करने के बजाय उन पर ही केस कर रही है। लाजवाब! ऐसी सरकार से आख़िर कोई उम्मीद भी क्या करे।

मौत के आंकड़ों की चोरी

ये बात इतनी जगज़ाहिर है कि जो आंकड़े बताये जा रहे हैं असल में देश में उससे 5-10 गुना मामले आ रहे हैं क्योंकि इस सूची से गाँव पूरी तरह बाहर हैं। दूसरी ओर हर ज़िले के डीएम और सीएमओ पर ये दबाव भी है कि उसके क्षेत्र से कम मामले आएं। कम मामले आने के तरीके और हो सकते हैं, लेकिन सबसे आसान है कि आँकड़े ही छुपा दो। ये काम बड़े स्तर पर पहले से हो ही रहा है। बेरोजगारी के आंकड़ों पर केंद्रीय सांख्यिकी मंत्रालय और शिवराज सिंह चौहान के सूबे की राजधानी के आँकड़े तो कम से कम यही कहते हैं।

देश के एक राज्य के एक ज़िले में 1000 के आँकड़े को 50 बताया जा रहा है तो सोचिए इस हिसाब से देशभर में कितना खेल हो रहा होगा। सच को बदलने की हिम्मत नहीं है, नीयत नहीं है तो उसे छुपा ही दो। और भाषणों में कहो कि सब सही है।

अब भी वक़्त है सरकारें आईने में मुँह देखकर थोड़ी शर्म करें और लोगों की जान बचाने की कवायद में लग जाएं। लोग लगे हैं, अपने-अपने स्तर पर उनका सहयोग लें उनको सहयोग दें। इस तरीके से हम कुछ सुधार कर पाएंगे। यह लड़ाई सरकार बनाम जनता की नहीं है। यह बात किसी से छुपी नहीं है कि यूपी में पंचायत चुनाव के बाद और बंगाल में वोटिंग के बाद अब तक के सबसे ज़्यादा मामले मिले हैं। डर की बात तो ये है कि अब तक के सरकार के रवैये से देश ने जो खोया है वो तो खोया ही है लेकिन अभी ये नहीं पता कि ये स्थिति कब तक ऐसी रहेगी और ऐसे में सरकार ने अपनी नीयत न बदली तो न जाने क्या होगा। कुछ क्षेत्रों में काम शुरू हुआ है, अलग-अलग स्तर पर कुछ सुधार शुरू हुए हैं, उम्मीद है सरकारें महामारी से लड़ाई को अपनी प्राथमिकता देंगी और जनता बेवकूफी में न फँसकर अपनी जान ख़ुद बचाने में विश्वास रखेगी।


Cover Photo: Ajit Solanki/AP Courtesy The Diplomat


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