इन दिनों कालावधि पर कब्जे की होड़ है। सात साल, सत्तर साल, आठ सौ साल, हजार साल और कालातीत भी, लेकिन इस होड़ में शासक वर्ग के अनेक अपराध छुपाए जाते हैं। ऐसा ही एक अक्षम्य अपराध है अड़तीस साल पूर्व घटित भोपाल गैस संहार। इस साम्राज्यवादी संहारकर्ता यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन को दंडित करने की कोई कोशिश नहीं की गयी, बल्कि उसे बच निकलने का रास्ता दिया गया।
2-3 दिसंबर, 1984 को घटित इस जघन्य कांड के पचीसवें वर्ष प्रकाश चन्द्रायन ने ‘राष्ट्रीय स्मृतिलोप’ शीर्षक से लंबी कविता रची और गोपाल नायडू ने एक मूर्तिशिल्प ‘भोपाल गैस काण्ड’ शीर्षक से रचा था। कविता 2017 में जारी हुई।
प्रस्तुत है त्रासदी की याद में कविता और मूर्तिशिल्प।
राष्ट्रीय स्मृतिलोप
ये बीसवीं सदी की बातें-आघातें हैं।
किसी ने आठवें दशक में लिखी एक बात-
क्या वह देश मिल गया है मानचित्र पर,
जहां वधिक आदमी को मारने के पहले उसे चूमता है?
उसी ने 2017 में लिख डाली एक और बात-
एक देश चमकीली आंधियों में भुला रहा है,
बर्बर जनसंहार भीषण रक्तगाथा।
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वर्जीनिया-कनावा घाटी में संदिग्ध हलचल थी,
ऊंचे गुंबदों वाले चमाचम गोलाकार हॉल में जासूसी खामोशी थी।
कोई आतिशी शीशा थामे ग्लोब में कुछ ढूंढ रहा था,
कोई मेज़ पर फैले मोमजामे पर झुका था।
कोई दस्तावेजों में कुछ दर्ज कर रहा था,
किसी के हाथ में एटलस और दूरबीन थी।
कोई नापजोख में तल्लीन था-
कि अचानक हुल्लड़ मच गया।
1917 के नाम छलके जाम, हुआ ऐलान-
मिल गया वह देश,
जो मन से उपनिवेश।
क्या गजब कि वह लुटेरों को मैदान छोड़ देता है,
टुकड़े-टुकड़े लडता भी है तो आपस में भिड़ जाता है।
चलें, वहीं डेरा डालें, निशाना साधें,
जादू जगाएं जहर आजमाएं।
इससे माकूल गिनिपिगियाना दुनिया में दूसरा नहीं,
इतना भरापूरा खजाना भी कहां कहीं।
थोड़ी छटपटाहट होती है वहां,
पर स्मृतिलोप भी अजूबा है वहां!
ऐसा कि रक्तपात विदेशज हो तो धीरे-धीरे भूल जाओ,
देशज हो तो तुरत-फुरत विजयगाथा बनाओ।
यह तो हुई रक्तपातों की पृष्ठभूमि,
आगे सजती रही एकतरफा युद्धभूमि।
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उन दिनों विदेशी शेर का राज था,
देसी सिंह के आने में बयालीस साल देर थी।
वह अशोक स्तम्भ में जड़ा इतिहास में पड़ा था,
उसी दौरान एक अमेरिकी काली बिल्ली झपटती आयी –
जैसे गुलाम देश में आया दूसरा राजपशु।
वह हर सेकंड धावा की मुद्रा में थी।
मानो देह में बैटरी लगी हो
और उसे दुनिया जीतनी हो।
उसकी आंखें भकभक टॉर्च थीं,
जो बटन दबाते भक्क से जले
और हतबुद्धि हिंदुस्तान को चौंधिया दे।
चकाचौंध भर ही देता है चेत में चमकीली रेत।
वैसा ही हुआ जैसा उसने चाहा।
वह गांव-गांव पहुंच ही गया-
चोरबत्ती और अगिनबत्ती बनकर।
सीने पर चिपकाये वहीं ट्रेडमार्क,
9 नंबरी छल्ले से कूद मारती वही काली बिल्ली।
कूदती-फांदती आ धमकी काली परेड मैदान,
चौंसठवें साल राजधानी ने झुक-झुक किया सलाम।
लुटेरों के लिए भारत में कब नहीं तना शामियाना,
हरदम बिछा ही रहता है लाल गलीचा सोफियाना।
पहले तो यह कौतुक बड़ा हैरतअंगेज लगा,
अगिनबत्ती हाथ में हो और हाथ न जले।
उसका बटन दबा रोशन मुख पर हथेली रखता,
तो तलहथी लाल सुर्ख दिखती-
जैसे खून अभी टपक जाएगा,
टपकेगा तो वक्त पर कुछ अघटित लिख जाएगा।
खून बेइंतहा टपका दुनिया में फिर एक बार।
भोपाल के मलिन जिस्मो-जान से उस सर्द आधी रात,
हत्यारों की होती है यही अंतिम औकात।
लहू रिस रहा है अभी तक बाहर-भीतर,
रिसता ही रहेगा… मुंह छिपाती रहेगी छोटी-बड़ी राजधानी।
गैस चेंबर में तिल-तिल मरा-मरेगा आम हिन्दुस्तानी,
जैसे मुंह दबाकर ली जा रही हो जान बेजबानी।
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आधी रातों के दिलों में धड़कती रहतीं हैं,
काली-मटमैली रातें, सर्द-गर्म रातें, सफेद-लाल रातें-
जैसे माताओं के दामन में दुबकी संतानें।
उनकी धीमी आवाज़ों में होता है सच,
तेज आवाज़ों के झूठ को करती हुई बेपर्द।
सुनने के लिए कानों को जगाना पड़ता है।
शाही जश्नों में पेश उन आधी रातों से कभी पूछिए,
वे सच बतातीं हैं, कभी नहीं छिपातीं।
खून हमेशा बहा शाही आधी रातों में,
आम हिन्दुस्तानी हमेशा मरा जगमग काली रातों में।
याद करें वह तारीखी आधी रात,
जब हुआ हिंदुस्तानियत का कत्ल।
आर-पार लहू के दरिया में डूबतीं-उतरातीं रहीं नवजात सीमाएं,
आंसू पोंछने के लिए अलग-अलग झंडे भी काम नहीं आए।
शून्य में टिकी तो अब तक टिकीं हैं-
उपमहाद्वीप की आंखें,
कोई सुच्चा ही मिला सकेगा उन आंखों से आंखें।
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1947 हो या 1984
साल-दर-साल, तारीखें-दर-तारीखें-
क़ातिल रातें इसी जमीं को क्यों चूमतीं हैं?
जंगी दिन इसी मिट्टी को क्यों रौंदते हैं?
दो सौ साल अफ़ीम-राज करती रही कंपनी-महारानी,
भोपालों-भारत में होती रही हैं अमेरिकी जहरखुरानी।
हमें बगलगीर कर आततायी निकाला जाता है,
ऐसा स्मृतिलोप कि हर संहार इतिहास जमा हो जाता है।
कैसा संधिस्थल बनाया गया यह देश,
जहां सत्ता आती है,आपराधिक कंपनियां हो जाती हैं-
जहां कंपनियां आती हैं आपराधिक सत्ता हो जाती हैं।
सोच सकें तो सोचें दोनों में कैसा नातागोता है,
उससे भी पूछें जो सदियों से राजतिलक लगाता है।
यदि सोचें तो सोचने के लिए बहुत कुछ है-
एक बड़ा पेड़ गिरा, हजारों पेड़ चाक कर डालो!
गुंबद-शिखर के शतरंज पर खूनी विजयगाथा लिख डालो!!
अरे, स्मृतिलोप न हो तो रक्तपातों की डायरी पढ़ डालो!!!
सोचो तो राष्ट्रीय गर्व का सिर राष्ट्रीय शर्म से झुक जाता है।
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जब संशय हो तो द्वन्द्व कहता है-
वर्जीनिया-कनावा घाटी तभी धमकती है,
जब सिंधु घाटी आत्ममुग्ध होती है।
घर में स्मृतिलोप हो, सन्नाटा हो,
तो काली बिल्ली तक कोलंबस बन जाती है।
यह दूर का नहीं, घर-घर का सच है ,
बहुत विचलन है, बेहद कछमछ है।
पूछता है हताहत भोपाल-
कैसे कोई हो सकता है कवि,
जो शामला हिल पर बैठ कहे-
मुर्दों के साथ कोई मर नहीं जाता है!
दिन काटता-गिनता हिंद मर भी गया
तो चकमक इंडिया का क्या घट जाता है।
ओ, पेशेवर कवियो!
पाब्लो नेरुदा ले सकते हैं,
यूनाइटेड फ्रूट कंपनी का नाम।
यहां कौन कवि लेगा ‘एवरेडी’ का नाम,
यूनियन कार्बाइड है जिसकी हत्यारी संतान।
ब्रांड काली बिल्ली है उसकी पहचान।
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देश के आला दिमाग़ खोजें
कि भारत पूरब है,
फिर उसका सूरज पश्चिम से क्यों आता है?
कौन है सरकस का रिंगमास्टर
जिसके आगे देसी सिंह दुम हिलाता है?
खोजना और जानना द्वंद्व की राह जीना है-
बौद्धिक सटोरियों ने क्या किया,
जब द्वंद्व ने उनको राह जनाया?
हर क्षण सफेद आतंक के बरक्स उठती है निर्भय ‘ना’।
हरदम समान दुनिया के हक़ में गूंजती है ‘हां’
ध्वनियां मरतीं नहीं,
रोशनियां बुझतीं नहीं।
जब होतीं हैं खोजें आधी-अधूरी,
सोच और क्रिया में होती है दूरी।
तब सफेद आतंक गहराता है,
सत्ता और सट्टा जश्न मनाता है।
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कैसा हो गया है भोपाल-भारत,
न आविष्कार है न बहिष्कार है।
सजा तो दूर, नहीं कहीं धिक्कार है,
कौन गद्दार है और कौन गुलज़ार है?
शेर तो शेर, काली बिल्ली तक से दुआ-सलाम है,
झुकी रीढ़ को गुमान है कि वह तनी हुई कमान है।
राष्ट्र-राज्य, छत्र-दंड के नाम पर हर सिक्का चलता है,
क्या वह देश मिल गया है मानचित्र पर-
जहां वधिक आदमी को मारने से पहले उसे चूमता है.
साफ-साफ कहना कविता न हो,
आंखों देखा बयान सीधा-साफ होता है।
क्या भारत सचमुच अपना भाग्य-विधाता है?
मन के उपनिवेश से स्थायी जवाब आता है-
कि 1947 का भारत आधुनिकता है,
तो 1984 का भोपाल उत्तर-आधुनिकता है।
जहां स्मृतिलोप ही स्थायी पता है।
जो भी आता है, ज़हर-कहर बरपाता चला जाता है,
हर जनसंहार दास्तान-ए-लापता है।
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संदर्भ: 2017 भारतीय स्मृति से लुप्तप्राय यूनियन कार्बाइड कारपोरेशन का सौवां साल था। 1917 में नामांतरित यह कंपनी इसके पूर्व 1886 में अमेरिका के वर्जीनिया-कनावा घाटी में कार्बन कंपनी के नाम से शुरू हुई थी और इसी ने उस एवरेडी ब्रांड को जन्म दिया था, जिसका ट्रेडमार्क 9 अंक के बीच से छलांग लगाती काली बिल्ली है। ब्रिटिश इंडिया में इस अमेरिकी कंपनी का आगमन आजादी के बयालीस साल पूर्व 1905 में नेशनल कार्बन कंपनी लिमिटेड के बतौर हुआ। भारत में एवरेडी के कारोबार के सौ साल से ज्यादा हुए और यह अधिकांश घरों में बैटरी और टॉर्च के जरिये स्थापित है। ‘एवरेडी’ ही उस यूनियन कार्बाइड की मूल और मातृ कंपनी है, जिसका कीटनाशक संयंत्र 1969 में भोपाल के काली परेड मैदान में स्थापित किया गया और जिसने पंद्रह वर्ष बाद 2-3 दिसंबर 1984 की रात दुनिया का भयानकतम रासायनिक संहार किया, जिसमें 16-30 हजार गैस पीड़ित प्रत्यक्ष मारे गए और हजारों आज भी तिल-तिल मारे जा रहे हैं। इस साम्राज्यवादी संहार के 37 साल 3 माह 19 दिन पूर्व प्रथम साम्राज्यवादी राजनीतिक संहार 14-15 अगस्त 1947 की अधरात भारत विभाजन में किया गया, जिसमें 10 लाख हिन्दुस्तानी मारे गए और एक करोड़ बेवतन हुए। हमारे स्मृतिलोप की यह कमाल मिसाल है कि बतौर एवरेडी ब्रांड हम हत्यारी कंपनी की विरासत उसी प्रकार ढो रहे हैं जैसे अन्य बाह्य और आंतरिक औपनिवेशिकता की विरासत को। जनसंहारों और रक्तपातों की विरासतों को ढोते रहना राष्ट्रीय स्मृतिलोप है जो आज विकासचक्र के नाम पर ज्यादा ध्वंसक होता जा रहा है। राष्ट्रीय स्मृतिलोप शीर्षक कविता की यही रचनाभूमि है।
प्रस्तुति: गोपाल नायडू