ग्रामीण भारत कई आपदाओं का सामना करता रहता है- वह चाहे प्राकृतिक आपदा हो, कॉर्पोरेट द्वारा जंगलों, भूमि और गाँव की सार्वजनिक भूमि का अधिग्रहण या कोविड महामारी के दौरान लॉकडाउन के कारण बेरहम शहरों से सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलने वाले प्रवासी मजदूर। ओडिशा में राजसत्ता समर्थित जिंदल स्टील वर्क्स उत्कल लिमिटेड के चंगुल से बचाने हेतु जगतसिंहपुर जिले में ढिंकिया के ग्रामीणों द्वारा अपनी कृषि भूमि और गाँव की सार्वजनिक भूमि को कपटपूर्ण तरीक़े से हड़पने का एक बार फिर डटकर पुरज़ोर मुक़ाबला किया जा रहा है।
कॉर्पोरेट पूंजी के इशारे पर चक्रवात से तबाह समुद्र तट को तबाह करने पर आमादा एक सैन्यीकृत राज्यतंत्र को एक बड़े वैश्विक समुदाय के रूप में प्रतिबिंबित करना प्रासंगिक हो जाता है। ढिंकिया की घटनाएं इस क्षेत्र से बाहर रहने वालों से एक बार फिर पूछ रही हैं कि क्या उपजाऊ कृषि भूमि को इस्पात उत्पादन उद्यमों द्वारा निगलने दिया जा सकता है? पूर्वी तटरेखा इक्कीसवीं सदी की पारिस्थितिकीय बर्बादी की गवाह बन रही है। अधिक मुनाफ़ा कमाने की नीयत से इस इलाक़े में जिंदल स्टील वर्क्स का प्रवेश पूंजीवाद के बेलगाम अभियान में अंतर्निहित पारिस्थितिक संकट की एक जीती-जागती मिसाल है।
जिंदल स्टील वर्क्स का प्रवेश एक बड़ी योजना का हिस्सा है!
यह ठीक वही इलाक़ा है जिसके लोगों ने 2005 से 2016 के बीच दक्षिण कोरियाई स्टील समूह पॉस्को का सफलतापूर्वक विरोध किया था। ग्रामीणों को नवंबर 2017 में एक और स्टील प्लांट के प्रवेश के बारे में तब पता चला जब ओडिशा सरकार द्वारा पॉस्को को आधिकारिक तौर पर बाहर निकाले जाने की घोषणा करने के सात महीनों के अंदर जमीन के चारों ओर चारदीवारी का निर्माण शुरू कर दिया गया। दो ग्रामीणों ने तुरंत ही वन अधिकार अधिनियम (एफआरए) और वन (संरक्षण) अधिनियम के उल्लंघन- कि यह वन भूमि का अन्यथा उपयोग अवैध है- के आधार पर राष्ट्रीय हरित अधिकरण (एनजीटी) का रुख किया।
ढिंकिया चारिदेश गांवों के समूह के रूप में जाना जाता है। इसमें ढिंकिया, गोबिंदपुर, नुआगांव और गडकुजंगा शामिल हैं। दिनांक 19 अक्टूबर 2019 को ओडिशा स्टेट पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड ने 22 नवंबर को होने वाली जन सुनवाई की घोषणा की। इसके अनुसार, जिंदल स्टील वर्क्स उत्कल लिमिटेड जगतसिंहपुर जिले की इरास्मा तहसील में जटाधारी नदी के मुहाने पर 52 एमटीपीए क्षमता वाले कार्गो को संभालने के लिए मल्टी-कार्गो ऑल-वेदर कैप्टिव जेटी विकसित करने जा रहा था, लेकिन पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय की वेबसाइट के अनुसार 13.2 एमटीपीए (मिलियन टन प्रति वर्ष) कच्चे स्टील, 900 मेगावाट कैप्टिव पावर प्लांट और 10 एमटीपीए सीमेंट प्लांट की पर्यावरण मंजूरी के लिए जनसुनवाई की जा रही थी। लोगों की सूचित सहमति दूर की कौड़ी है। इन प्रक्रियाओं में व्यवस्थित रूप से पूर्ण और सही जानकारी छुपा ली जाती है। भूमि और प्राकृतिक संसाधनों के लिए पूंजी का बेज़ा लालच हर बार राज्य सरकार को इसमें सक्रिय सहयोगी पाता है। भूमि अधिग्रहण और पर्यावरण मंजूरी के लिए अनिवार्य प्रावधान इस प्रकार संबंधित दस्तावेजों को हासिल करने के लिए निगमों के लिए एक सुनियोजित अनुष्ठान बन जाते हैं क्योंकि उनकी हिस्सेदारी बहुत बड़ी है।
भारत सरकार ने बंदरगाह-आधारित औद्योगिक विकास को बढ़ावा देने के लिए आंध्र प्रदेश (विशाखापट्टनम), गुजरात (दहेज), ओडिशा (पारादीप) और तमिलनाडु (कुड्डालोर और नागपट्टिनम) में पीसीपीआइआर के रूप में जाने जाने वाले चार पेट्रोलियम, रासायनिक और पेट्रोकेमिकल निवेश क्षेत्रों की योजना बनाई है। इसे यदि ओडिशा सरकार द्वारा अपनी ओईसी परियोजना (ओडिशा आर्थिक गलियारा) के लिए तटीय जिलों के साथ 7,000 एकड़ भूमि की आवश्यकता के साथ समझा जाए, तो यह इस क्षेत्र के लोगों और इसकी पारिस्थितिक स्थिरता पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाला साबित होगा। राज्य सरकार को पहले ही राष्ट्रीय औद्योगिक गलियारा विकास कार्यक्रम में शामिल करने की मंजूरी मिल चुकी है।
प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर लोग, जो साफ़ तौर पर मौजूद इकलौते साधनों जैसे भूमि, आजीविका और पर्यावरण की रक्षा के लिए कमर कस रहे हैं, यानी सीधा प्रतिरोध पेश कर रहे हैं। इस तरह पूंजीवाद की वैचारिक और भौतिक निरंकुशता को चुनौती दिया जाना बाक़ायदा जारी है।
राजसत्ता–कॉर्पोरेट गठजोड़ का ग्रामीणों द्वारा विरोध
दिनांक 4 दिसंबर 2021 की रात जब ओडिशा का समूचा तटीय इलाक़ा चक्रवात जवाद की चेतावनी के तहत था, पुलिसकर्मी पंचायत समिति सदस्य देवेंद्र स्वाईं के घर पहुँच गए। ढिंकिया में देवेंद्र स्वाईं जिंदल स्टील वर्क्स का विरोध करने वाले प्रमुख नेता हैं।
शांति दास नाम की एक महिला, जिसका हाथ पुलिस द्वारा की गई हिंसा में बुरी तरह ज़ख़्मी हो गया था, ने इस घटना को बयान करते हुए कहा:
जब हमने सुना कि पुलिस गाँव में प्रवेश कर चुकी है उस समय बहुत तेज़ बारिश हो रही थी। पुलिस को देबेंद्र स्वाईं को गिरफ्तार करने से रोकने के लिए हम में से क़रीब 200 लोग दौड़ पड़े। वे दो बड़ी पुलिस वैन के साथ चार बोलेरो पर सवार थे। पुलिस ने आसपास के कुछ घरों के किवाड़ बंद कर दिए ताकि लोग बाहर न आ सकें। उन्होंने मुझे भी पीटा और अश्लील भाषा का इस्तेमाल किया। वे देबेंद्र स्वाईं के चाचा अयोध्या स्वाईं और उनकी 22-वर्षीय बेटी को उठाकर ले गए। हमने वारंट देखने की मांग की, लेकिन उनके पास कोई वारंट नहीं था। उन्होंने एक अन्य लकवाग्रस्त व्यक्ति की भी पिटाई की। हमने उनसे विनती की कि कम से कम उसे छोड़ दिया जाए, लेकिन हम उन्हें देबेंद्र स्वाईं को ले जाने से रोकने में सफल रहे।
शांति दास
अगले दिन भारी बारिश के बावजूद सैकड़ों लोग पुलिस की हिंसा का विरोध करने के लिए बाहर आ गए। पुलिस ने बम फेंकने और पुलिसकर्मियों को घायल करने के आरोप में ग्रामीणों पर मामला दर्ज कर दिया। पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल ओडिशा) के नेतृत्व में की गई एक जांच के अनुसार पुलिस द्वारा दर्ज दो एफआइआर में ढिंकिया के ग्रामीणों पर भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) की विभिन्न धाराओं के तहत मामला दर्ज किया गया है। कई महिलाओं और पुरुषों के खिलाफ वारंट जारी किए गए हैं। तब से ढिंकिया लगातार पुलिस के घेरे में है और गाँव वालों को बिना अपना आधार कार्ड दिखाए बाहर निकलने की इजाज़त नहीं है। पुलिस के पास गिरफ्तार किए जाने वाले लोगों की एक सूची है। श्रीनगर के सौरा की तरह ही, जहां 2019 से गाँव वालों ने भारतीय सुरक्षा बलों को बाहर रखने के लिए प्रवेश बिंदुओं पर बैरिकेडिंग की थी, ढिंकिया के ग्रामीणों ने भी गांव के तीन प्रवेश बिंदुओं बैरीकेडिंग कर दी है और दिन-रात उनकी चौकसी पर हैं। जैसे युद्ध के समय होता है, महिलाएं, पुरुष, बच्चे, युवा और बुजुर्ग रात दिन चौकसी कर रहे हैं।
जमीन कब्जाने के लिए गांव को पुलिस ने बनाया बंधक, SKM का शांति मार्च और प्रेस वार्ता
ढिंकिया पंचायत के अन्य गांव भी विरोध और एकजुटता की कार्रवाइयां करते हुए पुलिस की सख्ती का लगातार मुक़ाबला कर रहे हैं। इन गांवों में रात के अंधेरे में घर-घर जाकर पुलिस ने लोगों को जिंदल का विरोध करने से बाज़ आने की धमकी दी। दिनांक 14 दिसंबर को महल गांव में आधी रात को लोगों को जगाया और तरह धमकाया गया। दिनांक 20 दिसंबर को ढिंकिया में जनसभा की ओर जाते समय गोबिंदपुर के प्रकाश जेना, नाथ सामल और भ्रामर दास पुलिस द्वारा लाठीचार्ज में गंभीर रूप से घायल हो गए।
पिछले 18 साल में किसी भी इस्पात कारख़ाने के विरोध के पीछे स्थानीय आजीविका के स्रोत, धान, मछली और पान की रक्षा करने पर ज़ोर रहा है। यह एक छोटी गुज़र-बसर की अर्थव्यवस्था है जहां लोग अपनी भूमि, श्रम और स्वायत्तता पर गर्व करते हैं। इसलिए ढिंकिया में माँ फूलखाई के मंदिर के पास के पेड़ों के नीचे दैनिक सामूहिक सभाएं की जाती हैं। अपने और आने वाली पीढ़ियों के लिए भूमि की रक्षा हेतु एकता बनाए रखने का लगातार आह्वान किया जाता है। एक बैठक में युवा नेता चिंटू स्वाईं ने युवाओं से अपील की:
आप सभी सच में इस भूमि के सच्चे सिपाही हैं। इस बार जिंदल के प्रवेश का विरोध कर आप यहां मौजूद अपने बुज़ुर्गों का बोझ हल्का करेंगे। उन्होंने कई कठिनाइयों का सामना किया है। उन पर आपराधिक मामले थोपे गए क्योंकि उन्होंने सन 2005 से पॉस्को को हराने के लिए लंबी लड़ाई लड़ी थी। इस सभा में उपस्थित हमारी बहनों और माताओं का बलिदान और संघर्ष व्यर्थ नहीं जाना चाहिए। उन्होंने आज तक भूमि की रक्षा की है। ढिंकिया को बचाने की अब हमारी बारी है।
चिंटू स्वाईं
इस बैठक में भाषणों के बीच ओडिशा में किसानों के लोकप्रिय नारे: ‘मारिबू पाछे डरिबु नाहि, जन्म माटि छाड़िबु नाहि’ [डर-डर के जीने से मरना अच्छा; जन्मभूमि को कभी नहीं छोडेंगे] बार-बार लगाया जाता था।
गुज़र-बसर लायक इस अर्थव्यवस्था को बनाए रखने में भविष्य में आने वाली पीढ़ियों के लिए भूमि की रक्षा के लिए काम करना शामिल है। आज एक बार फिर से उनकी इस संपदा पर ख़तरा मँडरा रहा है। प्रतिरोध सभाओं और बैरिकेड वाली जगहों पर महिलाओं की उपस्थिति बहुत बड़ी तादाद में होती है। कुछ लोगों ने युवाओं को दिए जाने वाले रोजगार की संभावनाओं पर भी संदेह जताया। दरअसल, ढिंकिया चारिदेश के पान उत्पादकों और किसानों ने एक लंबा सफर तय किया है और प्रशासन द्वारा वैश्विक पूंजी की ओर से केवल उनकी जमीनों को लूटने की ख़ातिर किए गए खोखले जुमलों के माध्यम से देखा है। जमीन की हदबंदी के बहाने पूरे गांव में पुलिस की पलटन मौजूद है।
दिसंबर 2019 में ओडिशा स्टेट पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड द्वारा की गई जन सुनवाई ने ढिंकिया चारिदेश के ग्रामीणों को उनकी भूमि के लिए आसन्न खतरे से अवगत कराया था। कुछ ग्रामीणों ने कार्यवाही में अनियमितताओं की ओर इशारा करते हुए ओपीएससीबी के पास शिकायत दर्ज कराई और बताया कि कैसे स्टील प्लांट का विरोध करने वालों को बोलने की अनुमति नहीं दी गई। सन 2020 में महामारी और लॉकडाउन की निर्मम बदइंतजामी से लोगों को आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। बंगाल, उत्तर प्रदेश और ओडिशा के कुछ हिस्सों में पान के पत्तों का व्यापार बुरी तरह से प्रभावित हुआ। इस दौरान जिंदल स्टील और जिला प्रशासन का काम बेरोकटोक चलता रहा।
Re-repression-of-communities-in-Odisha-Indiaप्रतिरोध के बढ़ने के साथ ग्राम समुदायों के भीतर के विभाजन गायब हो गए हैं। सभी तबके गांव की एकता को तोड़ने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले विभाजनकारी हथकंडों को भुगत चुके हैं। जब ओडिशा सरकार ने 18 मार्च 2017 को पॉस्को से हाथ खींचने की घोषणा की, तब भी सैकड़ों पुलिस मामले न केवल पॉस्को-विरोधी कार्यकर्ताओं के खिलाफ बल्कि कंपनी-समर्थक लॉबी के खिलाफ भी लंबित थे। तत्कालीन बीजू जनता दल विधायक दामोदर राउत द्वारा पोषित कंपनी-समर्थक लॉबी को पॉस्को छोड़ने पर कुछ हासिल नहीं हुआ। नुआगांव पंचायत के अधिकांश ग्रामीणों ने पहले मुआवजा लिया था और पॉस्को-विरोधी आंदोलन द्वारा उन्हें “कंपनी समर्थक” करार दिया गया था। आज भूमिहीनों में पट्टा अधिकारों की मांग को लेकर लामबंदी है। दिनांक 8 जनवरी को युवाओं ने इकट्ठा होकर कंपनी की ओर से दिए गए पैकेज ऑफर की प्रतियां जलाईं।
ढिंकिया की पूर्व सरपंच ममता नायक ने बताया:
हमारे अस्सी प्रतिशत लोग भूमिहीन हैं। उन्हें क्यों बेदखल किया जाना चाहिए? भूमि उतनी ही उनकी है, जितनी पान की लताओं के स्वामियों की। वे पान के प्लाटों पर दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करते हैं। उन्हें प्रतिदिन 350 रुपये और एक बार भोजन मिलता है। पॉस्को के बाद हमें इंडियन ऑयल कॉरपोरेशन के खिलाफ लड़ाई लड़नी पड़ी ताकि हमारे गांव की सार्वजनिक भूमि को हड़पने से बचाया जा सके, जो हमारे मवेशियों के लिए चरागाह थे। आज उन्होंने एक चारदीवारी का निर्माण किया और हमें हमारी ही भूमि से खदेड़ दिया। सैकड़ों मछुआरे हैं। वे कहां जाएंगे? हमें अब किसी पर भरोसा नहीं है।
ममता नायक
नवंबर 2021 में जिला प्रशासन ने पंचायत मुख्यालय में ग्रामीणों से चर्चा की। इन बैठकों में कंपनी अधिकारी और पुलिस के लोग शामिल थे। भोजन की व्यवस्था भी की गई थी। जिनके पास जमीनें थीं उन्होंने पट्टों या ज़मीन पर आधिकारिक अधिकार की माँग की। भूमिहीन ग्रामीणों ने वन संसाधनों पर अपनी निर्भरता के बारे में बताया। ग्रामीणों ने पिछले पुलिस मामलों को वापस लिए जाने व रोजगार की गारंटी की मांग की, लेकिन इस तमाशे का अंत तब हुआ जब ढिंकिया के लोगों ने पटाना और महला के लिए भूमि की हदबंदी की प्रक्रिया का विरोध किया।
लंबे समय तक कम्युनिस्ट कार्यकर्ता रहे अक्षय दास के अनुसार:
अविभाजित ढिंकिया से इन दो नए राजस्व गांवों- पटाना और महला- का बनाया जाना हमारी एकता को कमजोर करने की चाल है। वे भूमि अधिग्रहण के लिए सशस्त्र पुलिस को क्षेत्र में लाए हैं। नये राजस्व ग्रामों की हदबंदी एक बहाना है। पुलिस न सिर्फ पटाना और महला बल्कि ढिंकिया के भी पान के खेत तोड़ रही है। हमने गांव में बैरिकेडिंग कर दी है लेकिन हमारे पान के भूखंड समुद्र के करीब रेत के टीलों के बीच हैं। हम उनकी रक्षा नहीं कर सकते। प्रतिरोध ही एकमात्र रास्ता है।
लोगों को बरगलाने के लिए कि हदबंदी की जा रही है। तहसीलदार ने ओडिशा पुलिस और आइआरबी के साथ मिलकर पान के खेतों को तोड़ना शुरू कर दिया है। एक ग्रामीण ने बताया:
माप लेने के बाद वे तस्वीरें लेते हैं और हमसे सहमति फॉर्म पर हस्ताक्षर करवा लेते हैं। उनका कहना है कि पूरी प्रक्रिया खत्म होने के बाद पैसे हमारे खातों में ट्रांसफर कर दिए जाएंगे। हमें बार-बार यह भी कहा गया कि हम ‘स्वेच्छा से’ जमीन छोड़ रहे हैं।
प्रशासन ने पान के खेतों को उजाड़ने में वक़्त नहीं लिया। चूंकि लोगों ने गांव के अंदर खुद को बैरिकेड कर लिया था, इसलिए वे इसे खुद देखने के लिए बाहर नहीं जा सकते थे। गिरफ्तारी का डर वास्तविक था क्योंकि दिनांक 4 दिसंबर की रात को की गई एफआइआर में नामों की एक लंबी सूची थी।
जब संयुक्त किसान मोर्चा की ओडिशा इकाई ने 6 जनवरी को इस क्षेत्र का दौरा किया, तो अधिकारियों द्वारा पान के खेतों को नष्ट किए जाने के कारण लोगों में जोश बढ़ रहा था। खबर पाकर महिला-पुरुष टूट पड़ रहे थे। पुलिस के साथ किसी भी तरह के टकराव के लिए तैयार लकड़ी के डंडों से लैस बैरिकेडों पर गाँव वाले जमा हो गए थे। ओडिशा-एसकेएम नेताओं ने लोगों से प्रशासन द्वारा उकसाए जाने और पुलिस मामलों के झांसे में आने से बचने की अपील की। उन्होंने कहा कि अधिकारी उन्हें फँसाने तलाश में थे और इसलिए उन्हें सावधानीपूर्वक योजना और रणनीति बनाने की जरूरत है। ठीक उसी तरह जिस तरह से किसानों ने नई दिल्ली की सीमाओं पर प्रदर्शन किया था और तीन कृषि अधिनियमों को निरस्त करवाने में कामयाब रहे थे। ओडिशा-एसकेएम के साथ ढिंकिया के द्वार से एक लंबा मार्च निकला जो महला और पटाना से होते हुए चला। लोगों को उनके पान के खेत पहली बार देखने को मिल रहे थे। “जिंदल वापिस जाओ,” “बंदूक की नोक पर औद्योगीकरण हो बर्बाद,” और “हम विनाश नहीं, विकास चाहते हैं” के नारे फ़िज़ा में गूँजते रहे।
लड़ेंगे और जीतेंगे!!!
लोगों और जिला प्रशासन के बीच गतिरोध की स्थिति एक सप्ताह तक जारी रही, हालांकि पान के खेतों को तबाह करने के साथ-साथ आतंक से डरकर घुटने टेकने की ख़बरें लगातार आ रही थीं। पीढ़ियों से दलित परिवार पान के खेतों में दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करते आ हैं। विरोध उनके द्वारा ही जारी है।
दिनांक 14 जनवरी की सुबह ओडिशा पुलिस ने तब दहशत फैला दी जब उसने अपने खेतों को देखने जा रहे गाँववासियों की एक रैली को ज़बरन रोका। लोगों ने सशस्त्र पुलिस का डटकर विरोध किया और उनसे आगे निकल गए। पुलिस की इस कार्यवाही सबसे बर्बर कार्यवाहियों में शुमार की जाएगी। उसने प्रदर्शनकारियों पर लाठियों की बारिश की, लोगों को अपने बूटों तले कुचला और उनके साथ मार-पिटाई कर क़हर बरपा दिया।
इस क़हर का नतीजा यह निकला कि कुछ समय के लिए गलियां सूनी हो गईं और भयानक सन्नाटा छा गया। स्कूली छात्राओं को पीटा गया। कुछ के सर फोड़ दिए गए। महिलाओं को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा गया। दिन के अंत में पुलिस ने गाँव में फ्लैग मार्च निकाला।
आंदोलन के नेता नेता देबेंद्र स्वाईं को- जो ख़ुद एक पान किसान हैं- और फर्जी मुकदमों के खिलाफ अभियान चलाने वाले नरेंद्र मोहंती को क्षेत्र का दौरा करने पर गिरफ्तार कर लिया गया। गिरफ्तार किए गए अन्य चार लोगों में मुरलीधर साहू, निमाई मल्लिक, मंगुली कंडी और त्रिनाथ मलिक शामिल हैं। उन्हें भारतीय दंड संहिता (आइपीसी), की धाराओं 307, 147, 148, 323, 294, 324, 354, 336, 325, 353, 332, 379, 427, 506, 186, और 149 तथा सीएलए और पीपीडीपी एक्ट के तहत गिरफ्तार कर लिया गया। इस घटना में पहले से एक दलित परिवार न्यायिक हिरासत में है।
राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर किसान यूनियनों और कृषि मजदूर संघों के लगातार साल भर चले संघर्ष ने तीन कृषि क़ानूनों को निरस्त करने के लिए बढ़ते लोकप्रिय समर्थन के साथ गति पकड़ी। इस आंदोलन की ऊर्जा ने ओडिशा में किसान संघों को भी प्रभावित किया है, जो ओडिशा पुलिस को वापस बुलाने और जिंदल स्टील वर्क्स से पारंपरिक पान की अर्थव्यवस्था की सुरक्षा के लिए राज्यपाल और मुख्यमंत्री को याचिका दायर करने में अग्रणी भूमिका निभा रहे हैं। इस प्रक्रिया में ओडिशा-एसकेएम अन्य विपक्षी दलों के साथ एकजुटता कायम करने में जुटा हुआ है।
पूरे एक हफ्ते तक ढिंकिया तक पहुँचना दुर्गम बना रहा। दिनांक 21 जनवरी को 13 विपक्षी दलों की 20-सदस्यीय एक टीम ढिंकिया पहुंची और उसी गांव के चौराहे पर लोगों से मुलाकात की जहां विरोध सभाएं हो रही थीं। अलगाव की इस अवधि के दौरान अनुभव किए गए आतंक और डराने-धमकाने की बात करते हुए महिलाएं रो पड़ीं। कई युवा लड़कियों ने एक टीवी चैनल से बात करते हुए बताया कि कैसे उन्हें 14 जनवरी को उनके पान के खेतों तक मार्च करने से रोका गया और कैसे पुलिस ने उन्हें अपराधी मानकर बेरहमी से पीटा। एक युवती ने अपनी 10-वर्षीय बहन के लापता होने की सूचना दी। एक और लड़की ने सवाल किया; “हमें इस क़दर क्यों पीटा गया। हमारे सिर पर चोट क्यों की गई? क्या हम अपराधी हैं? रात में पुलिस हमारे दरवाजे पर दस्तक क्यों देती है?” एक बुजुर्ग महिला ने बताया कि कैसे वह अपने घर नहीं जा पा रही और रात में ठंड होने के बावजूद बाहर सोती है। उसे गिरफ्तारी का डर है। उसके जैसे कई हैं।
घायलों और लापता लोगों की संख्या की अभी पुष्टि नहीं हो पाई है। आस-पास के गाँव, जो गहरे सदमे में चले गए थे, अब यह देख पा रहे हैं कि एक चुनी हुई सरकार उनकी ज़मीन और उत्पादक संपत्ति पर दावा ठोकने में किस हद तक जा सकती है। वामपंथी और लोकतांत्रिक ताकतों ने भी आक्रामक पूंजीवाद द्वारा लोगों की भूमि और आजीविका हड़पने के खतरों को देखना शुरू कर दिया है। साथ ही यह कि कैसे यह समूची पूर्वी तटरेखा और उसके पारिस्थितिकी आवास के लिए सबसे बड़ा खतरा है।
चक्रवातग्रस्त समुद्रतट पर एकीकृत इस्पात कारखाना
पॉस्को के जाने और जिंदल स्टील वर्क्स के आने के बाद से पूर्वी मोर्चे पर सब कुछ शांत नहीं हुआ है। पूर्वी तट पर 2013 में साइक्लोन फैलिन, अक्टूबर 2014 में साइक्लोन हुदहुद, मई 2019 में साइक्लोन फानी, नवंबर 2019 में साइक्लोन बुलबुल, मई 2020 में साइक्लोन अम्फन और दिसंबर 2021 में साइक्लोन जवाद आया। इन चक्रवातों ने जहां भी तबाही मचाई, पान की खेती करने वाले इस क्षेत्र के छोटे उत्पादक और मछुआरे हर बार बुरी तरह से प्रभावित हुए। जैसे ही साइक्लोन फानी पुरी जिले में ज़मीन से टकराया, उसने कई घरों और पान के खेतों को नष्ट कर दिया। कुछ महीनों बाद साइक्लोन बुलबुल ने बांग्लादेश की ओर बढ़ते हुए इस क्षेत्र को फिर से तबाह कर दिया। साइक्लोन अम्फन ने केंद्रपाड़ा, जगतसिंहपुर, बालासोर और भद्रक को सबसे अधिक प्रभावित किया। यहां तक कि जैसे ही यह अधिक रोष के साथ पश्चिम बंगाल की ओर बढ़ा, इसने फसलों और पशुओं को बहुत नुकसान पहुंचाया। ज्वार की लहरों ने तटबंध तोड़ दिए और खारा पानी हजारों हेक्टेयर फसलों में चला गया।
जब लोग कोविड लॉकडाउन के दौरान पान के पत्तों की बिक्री और परिवहन के कारण हुए अभूतपूर्व आर्थिक नुकसान से उबर रहे थे, तो जिला प्रशासन ने जिंदल स्टील वर्क्स की ओर से आर्थिक संकट के कारण उनके भूखंडों को खरीदने के प्रस्ताव के साथ उनसे संपर्क किया। अभी हाल ही में चक्रवात जवाद ने कहर बरपाया था। ओडिशा में सबसे अधिक वर्षा पारादीप में और उसके बाद इरासामा में दर्ज की गई, जो इन पंचायतों का क्षेत्र है।
यह क्षेत्र 1999 के सुपर साइक्लोन से तबाह हो गया था। इसमें 10,000 से ज़्यादा लोगों के मरने और 15 लाख लोग बेघर हो गए थे। इसी के बाद ओडिशा राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण (ओएसडीएमए) की स्थापना हुई। तब से ओएसडीएमए द्वारा जान-माल के नुकसान को रोकने के लिए उठाए गए कदमों ने वास्तव में परिणाम दिए हैं, हालांकि एक एकीकृत मेगा स्टील प्लांट की शुरुआत करके ओडिशा सरकार सक्रिय रूप से पर्यावरण की रक्षा और आपदाओं को रोकने के ओएसडीएमए के मक़सद को लचर बनाती है। वे जंगलों और पान के खेतों को कैसे नष्ट कर सकते हैं जो प्रकृति के विनाश को रोकने के लिए प्राकृतिक सुरक्षात्मक कवच के रूप में काम करते हैं? मेगा स्टील प्लांट के निर्माण के साथ यहां तटीय क्षरण (इरोज़न) को रोका नहीं जा सकता।
गोबिंदपुर में पान की खेती करने वाले टूना बराल ने कहा:
जब प्रशासन ने 2013 में पोस्को के लिए भूमि अधिग्रहण का आखिरी हताश प्रयास किया, तो हमारे गांव ने पहले ही 1,200 एकड़ जमीन खो दी है। हम स्टील प्लांट के निर्माण के विरोध में थे और आज भी हैं। हम आवास, जंगलों, हिरणों और कछुओं की देखभाल करते हैं। हमारा क्षेत्र चक्रवातों से तबाह हो गया है जो अब आम हो गए हैं। हमने चक्रवात और लॉकडाउन दोनों का सामना किया है। प्रशासन हमसे हमारे सबसे बुरे समय में अपनी जमीन छोड़ने का दबाव बनाने की कोशिश कर रहा है।
टूना बराल
हिमनदों (ग्लेशियरों) का पिघलना और समुद्र के स्तर में वृद्धि ओडिशा तट को अप्रभावित नहीं छोड़ सकती है। यह इलाक़ा निर्माण कार्यों के साथ-साथ समुद्र तट को नष्ट करने वाली प्राकृतिक आपदाओं से गंभीर पारिस्थितिकीय खतरे में है। क्लाइमेट सेंट्रल द्वारा 2019 में किए गए एक अध्ययन में भविष्यवाणी की गई है कि गंजम, पुरी, जगतसिंहपुर, केंद्रपाड़ा, भद्रक और बालासोर जिलों जैसे तटीय ओडिशा के बड़े हिस्से में बाढ़ का अधिक खतरा है, जो समुद्र स्तर में खतरनाक वृद्धि के कारण लाखों-लाख लोगों को प्रभावित करेगा। यह मानव गतिविधि के साथ-साथ ग्रीनलैंड, विशेष रूप से अंटार्कटिका में भूमि-आधारित बर्फ की चादरों के अस्थिर होने के कारण वातावरण में ग्लोबल वार्मिंग के कारण है। आज समुद्र तट के प्राकृतिक संरक्षण तंत्र को कमजोर किया जा रहा है, जबकि पानी का गर्म होना अधिक ऊर्जा का संचार कर रहा है। यह चक्रवातों को फलने-फूलने और तीव्र होते जाने का कारण बनता है। ये सवाल 2005 से उठाए जा रहे हैं, जब पॉस्को के लिए भूमि अधिग्रहण का विरोध किया गया था।
राजसत्ता की सांठगांठ वैश्विक जलवायु संकट द्वारा आवश्यक तात्कालिकता की उपेक्षा करती है। पूंजी के हित में क़ानूनी प्रावधानों और संवैधानिक गारंटियों में खुलेआम हेराफेरी की जाती है।
राज्य हमारे समय का सबसे बड़ा जमींदार बन गया है
जब 2005 में पॉस्को परियोजना के लिए आवश्यक भूमि के अधिग्रहण हेतु ओडिशा सरकार में एमओयू पर दस्तखत किए तो यह 4,004 एकड़ जमीन थी, जिसमें से 3,000 एकड़ वन भूमि के रूप में वर्गीकृत थी। ढिंकिया चारिदेश के लोगों का सामूहिक प्रतिरोध प्रशासन के लिए सबसे बड़ी बाधा बन गया। सन 2013 तक कंपनी ने कारख़ाने की उत्पादन क्षमता को 12 एमटीपीए से घटाकर 8 एमटीपीए कर दिया था और इसकी भूमि की आवश्यकता को 2,700 एकड़ तक कम कर दिया गया था, जिसे औद्योगिक अवसंरचना विकास निगम (इडको) द्वारा अधिग्रहित किया गया था। यह बड़े पैमाने पर गोबिंदपुर, नुआगांव और गडकुजंगा से आया था। पोस्को के लिए ढिंकिया अभेद्य बना रहा। प्रस्तावित जिंदल स्टील परियोजना, जिसमें एक बिजली संयंत्र और एक सीमेंट कारखाना शामिल है; साथ ही, ओडिशा आर्थिक गलियारे (एसईज़ेड) सहित अन्य बड़ी योजनाओं के लिए और भी अधिक भूमि अधिग्रहण की आवश्यकता पड़ेगी।
आइए, लगभग 2,700 एकड़ और शेष भूमि अधिग्रहण को पुनर्जीवित करते हुए राज्य सरकार द्वारा अपनाए गए कुछ विवादास्पद और जन-विरोधी उपायों पर एक नज़र डालें:
- सबसे पहले, पटाना और महला के दो नए राजस्व गांवों को बनाने के प्रशासनिक कदम ने तनाव को गहरा कर दिया। खासकर, तहसीलदार और उनकी टीम ने1 दिसंबर 2020 से सशस्त्र पुलिसकर्मियों की भारी उपस्थिति के साथ हदबंदी का काम शुरू किया गया। गाँव वाले इसे प्रशासन के प्रयास के रूप में देखते हैं- जिंदल स्टील के प्रतिरोध को कमजोर करने के लिए लोगों के बीच विभाजन उत्पन्न करना। आदिवासी क्षेत्रों में भी जबरन वन भूमि अधिग्रहण के लिए यह एक मानक संचालन प्रक्रिया बन गई है।
- दूसरा, नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल ने 2018 में इडको द्वारा अधिग्रहित 2,700 एकड़ के चारों ओर एक चारदीवारी के निर्माण को रोकने के लिए आदेश पारित किया था। ग्रामीणों द्वारा एनजीटी से संपर्क करने के बाद कि वन भूमि का अतिक्रमण करना अवैध है, यह क़दम उठाया गया था।
- तीसरा, भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और उचित मुआवजा और पारदर्शिता का अधिकार (एलएआरआर) एक्ट 2013 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि अधिग्रहण के पांच साल के भीतर अधिग्रहित परंतु उपयोग में न लाई गई भूमि को लोगों को लौटा दिया जाना चाहिए। याद रहे कि 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने एक फ़ैसला सुनाया था। इस फ़ैसले में पश्चिम बंगाल सरकार को सिंगूर में टाटा नैनो परियोजना के लिए अधिग्रहित भूमि को उनके मालिकों को वापस लौटाने का आदेश दिया गया था। मुख्यमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के कार्यकाल के दौरान गुजरात सरकार की चालबाजी के नमूने से उधार लेते हुए ओडिशा सरकार ने 2015 में एक नीति संशोधन करके राज्य सरकार द्वारा ऐसी भूमि को लैंड बैंक में रखना अनिवार्य बना दिया।
- चौथा, पॉस्को-विरोधी आंदोलन के चरम पर समूचे क्षेत्र के लोगों ने वन अधिकार अधिनियम (2006) के अनुसार क्षेत्र में किसी भी स्टील प्लांट की योजना को स्पष्ट रूप से खारिज कर दिया था। 2011 में ग्राम पंचायतों ने वन भूमि पर अपने अधिकारों का दावा पेश किया था और एफआरए द्वारा अनिवार्य रूप से वन भूमि को इस्पात समूह को देने के खिलाफ सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया था। तब से प्रशासन द्वारा कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है कि इन दावों पर कार्रवाई की गई थी या नहीं।दिनांक 16 अगस्त 2019 को पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय ने लैंड बैंक में उपलब्ध भूमि के साथ-साथ जिंदल स्टील को वन मंजूरी हस्तांतरित कर दी। इस तरह कंपनी को वन मंजूरी प्राप्त करने की प्रक्रिया से गुजरने के झंझट से निजात मिल गई। यह लोगों के मौलिक अधिकारों पर एक बड़ा हमला है। भूमि को राज्य द्वारा हड़प लिया जाता है और एक उद्योगपति से दूसरे उद्योगपति को हस्तांतरित करने के लिए वर्षों तक भूमि बैंक में रखा जाता है।
- अंतिम बात, ओडिशा राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के जनादेश को लागू करना। अपने स्वयं के घोषित मिशन में ओएसडीएमएका काम न केवल आपदाओं, विशेष रूप से चक्रवात और बाढ़ के प्रभावों को कम करना है, बल्कि उसमें पुनर्निर्माण करना और उबारना भी सुनिश्चित करना है। इसका उद्देश्य प्रभावी आपदा प्रबंधन प्रदान करने से आगे बढ़कर “एक आपदा प्रतिरोधी राज्य का निर्माण और सुरक्षा की संस्कृति को बढ़ावा देना” है। फिर कैसे एक 13.2 एमटीपीए स्टील प्लांट के साथ एक बिजली संयंत्र, एक सीमेंट कारखाना और एक कैप्टिव जेटी, आपदा प्रतिरोधी राज्य को आश्वस्त करता है या सुरक्षा की किसी भी संस्कृति को बढ़ावा देता है?
कोयला खदान के लिए संबलपुर के तालाबीरा गाँव में 40,000 से अधिक पेड़ों को काटने, कोरापुट के माली पर्वत में बॉक्साइट खनन का प्रस्ताव, नियमगिरि पर्वत पर सड़कों का निर्माण, जाजपुर जिले के सुकिंदा की हवा और पानी में जहर घोलने से लेकर क्रोमाइट के भंडार का पता लगाने तक, कॉरपोरेशन अब पूंजी की उन्नति की ख़ातिर सभी वैधानिक मानदंडों और प्रावधानों को ताक पर रखने में माहिर हो गए हैं। राजसत्ता-पूंजी-उद्योग का गठजोड़ जमीन, जंगल, रेत और कंकड़ निगल रहा है। यह सभी के लिए साफ़ है कि पूंजीवाद के निर्मम आगमन से भूमि और पानी की रक्षा कौन कर रहा है।
ढिंकिया चारिदेश के ग्रामीणों की लड़ाई धरती और समूची मानवता की लड़ाई है।
(Raiot.in पर मूल अंग्रेजी में प्रकाशित इस लेख का हिंदी में अनुवाद राजेंद्र सिंह नेगी ने किया है)