बसु-रमण की धरती पर अंधश्रद्धा और वैज्ञानिक मिज़ाज पर कुछ बातें


मेरे लिए यह बेहतर होगा कि मैं शुरूआत में ही कुछ प्रारंभिक क़िस्म की बातों पर अपनी राय ज़ाहिर कर दूं। चर्चा के शीर्षक के तौर पर बसु, रमण और सलाम की धरती का हवाला दिया गया है, जिससे यह धारणा भी बन सकती है कि वैज्ञानिक के वैज्ञानिक मिज़ाज (Scientific Temper) से लैस होने की गारंटी है। साथ ही वह इतना प्रभावशाली भी होगा कि आम समाज पर भी अपनी छाप छोड़ सकेगा। एक आदर्श दुनिया में शायद यही होना चाहिए, लेकिन, वैज्ञानिक भी आदर्श दुनिया में नहीं रहते।

आप सर आइज़क न्यूटन का उदाहरण देखें, जो आज भी विज्ञान के सबसे महान प्रतिमूर्ति समझे जाते हैं, जिनकी प्रतिभा ने वैज्ञानिक क्रांति पर अपनी अंतिम और आधिकारिक मुहर लगा दी। कैम्ब्रिज में उन दिनों फैली प्लेग की महामारी से बचने के लिए भागकर अपने गाँव पहुँचे इस एकाकी युवा प्रतिभा ने अपने अकेले दम पर आधुनिक विज्ञान की नींव डाल दी। 1665-1666 के अपने चमत्कारी वर्षों के महज 18 महीनों में उन्होंने गति के नियमों को तथा गुरुत्वाकर्षण के नियमों को सूत्रबद्ध किया। इन्हीं महीनों में उन्होंने कैलकुलस की खोज की, लेकिन इसके बाद उन्होंने अपनी लंबी जिन्दगी का बड़ा हिस्सा कीमियागरी में तथा बाईबिल के अर्थापन की धर्मशास्त्राीय विवेचना में लगाया। उन्होंने ऐसे विचारों की भी भर्त्सना  की (जैसे कि त्रिदेववाद-Trinitarianism), जो उनके मुताबिक ईसाई मत के प्रदूषण के प्रतीक थे, और एरियनवाद (Arianism) के अत्यधिक रैडिकल शुद्धतावादी संस्करण को अपनाया, जो मानता था कि बाइबिल भविष्य की बिल्कुल सटीक भविष्यवाणी है। न्यूटन के अंदर कुछ भी सामान्य अनुपात का नहीं था- न ही उनकी वैज्ञानिक प्रतिभा, न ही उनका सख्त जड़सूत्रवाद और आत्मविश्वास से भरपूर अंधश्रद्धा।

अगर आप यह समझ रहे हों कि मैं न्यूटन के प्रति अन्याय कर रहा हूं- आखिर वह भी तो अपने वक्त़ की ही पैदाइश हो सकते थे- तो एक तरह से मैं जिस प्रस्थापना की ओर उन्मुख हूँ उसे आप अभी ही स्वीकार करने की दिशा में हैं। लेकिन इसके पहले कि मैं विज्ञान और वैज्ञानिक मिज़ाज के अंतर्सम्बन्ध की पड़ताल करूं, हाल के समय के कुछ अन्य उदाहरणों पर ग़ौर करना चाहूंगा। पास्कुअल जॉर्डन, जो क्वाण्टम यान्त्रिकी के जन्मदाताओं में से था, एक सक्रिय नात्सी था। युद्धोत्तर जर्मनी में अपने पुनर्वास के बाद भी अपने फासीवादी विचारों पर अडिग रहा। भौतिक विज्ञान के नोबेल पुरस्कार विजेता फिलिप लेनार्ड और योहान स्टार्क भी सक्रिय नात्सी थे और खुले रूप में यहूदी-विरोधी थे। उनके कुछ समय पहले बीसवीं सदी के दूसरे दशक में महान गणितज्ञ एम्मी नोदर को गॉटिंगन विश्वविद्यालय के गणित विभाग में प्राध्यापक की नौकरी से वंचित किया गया था, महज इसलिए कि वह एक स्त्री थी। इस मामले से क्षुब्ध डेविड हिलबर्ट ने कहा था, ‘‘विश्वविद्यालय में शिक्षक के तौर पर उसकी नियुक्ति के खिलाफ आखिर उसका लिंग कैसे आड़े आ सकता है। आखिर हम एक विश्वविद्यालय हैं, कोई स्नानगृह तो नहीं।’’

और मेरे एक वैज्ञानिक दोस्त ने मुझे कुछ दिन पहले ही याद दिलाया है कि खुद अपने सर सीवी रमण भी, जिनका नाम भी इस कार्यक्रम के शीर्षक में शामिल है, एक महिला प्रत्याशी को पीएचडी छात्रा के तौर पर प्रवेश देने के ख़िलाफ़ थे क्योंकि उनके हिसाब से महिलाएं वैज्ञानिक बनने के योग्य नहीं होतीं।

मैं जाने-माने वैज्ञानिकों को वैज्ञानिक मिज़ाज से लैस होने के प्रमाणपत्र दिए जाने का विरोध करने के लिये यहां नहीं आया हूं। मैं यह जानना चाहता हूं कि क्या वैज्ञानिक मिज़ाज का अभाव विज्ञान के बेहतर ढंग से करने के रास्ते में बाधा बनता है।

लगभग तीन दशक पहले परवेज़ हुदभॉय ने एक किताब लिखी थी। किताब का शीर्षक था ‘इस्लाम एण्ड साइंस’ और उसका उपशीर्षक था ‘रिलीजियस आर्थोडॉक्सी एण्ड द बैटल फॉर रैशनेलिटी’ (धार्मिक रूढिवाद और तार्किकता का संघर्ष)। इस किताब में वह एक दिलचस्प उदाहरण पेश करते हैं।

स्टीवन वाईनबर्ग और अब्दुस सलाम- वही सलाम जिनका नाम भी इस कार्यक्रम के शीर्षक में है- दोनों ने बीसवीं सदी के सबसे मूलभूत और महत्वपूर्ण भौतिकी सिद्धांतों में से एक का आविष्कार किया, जिसे हम युनिफाइड क्वांटम थियरी ऑफ इलेक्ट्रोमैगनेटिज्‍म एंड वीक न्‍यूक्लिअर फ़ोर्स कहते हैं। उन्होंने एक दूसरे से स्वतंत्र इस सिद्धांत का आविष्कार किया और उसके लिए नोबेल पुरस्कार साझा किया। वाईनबर्ग एक घोषित नास्तिक थे और सलाम ने खुद स्वीकारा था कि वह आस्तिक हैं। सलाम ने परवेज़ के किताब की भूमिका लिखी थी। भूमिका में वह लेखक के इस विचार से सहमत होते हैं कि इस सिद्धांत तक पहुंचने के लिए उनके आस्तिक होने से कोई फर्क नहीं पड़ा। यह बात आप खुद आविष्कारक के मुंह से ही सुन रहे हैं। फिर विज्ञान और वैज्ञानिक मिज़ाज के बीच का रिश्ता क्या है?

एक वैज्ञानिक महज विज्ञान पर ज़िन्दा नहीं रहता। उसके मस्तिष्क पर केवल तर्क और विज्ञान का क़ब्ज़ा नहीं होता। मैं नहीं जानता कि मस्तिष्क की तरह क्या मन के भी दो अलग-अलग लेकिन एक दूसरे से जुड़े गोलार्द्ध होते हैं, लेकिन मुझे सरल भाषा में मन के ऐसे विभाजन का एक रूपक की तरह इस्तेमाल करने दीजिए। वैज्ञानिक चिन्तन का ताल्लुक, जैसा कि मुझे लगता है, उस प्रक्रिया से है जिसमें मन का तार्किक ‘गोलार्द्ध’ उसके भावनात्मक ‘गोलार्द्ध’ को प्रभावित करने की कोशिश करता है। इसका परिणाम एक तार्किक और सुसंस्कृत व्यक्ति के उभार में भी हो सकता है, लेकिन इसका नतीज़ा बहुत ख़राब भी निकल सकता है। तार्किक पक्ष के भावनात्मक पक्ष में ज़रूरत से ज़्यादा दखलअंदाजी करने से एक बचकाने वयस्क का भी उदय हो सकता है। ज़्यादा ख़तरनाक नतीज़े भी निकल सकते हैं- हो सकता है कोई डॉ स्ट्रेंजलव जैसा शख़्स पैदा हो जाय (डॉ स्ट्रेंजलव नाम से एक फिल्म आयी थी, जिसमें इसी नाम का एक अधिकारी केन्द्र में है जो नाभिकीय युद्ध की शुरूआत करने का हिमायती है- अनुवादक)।

वैज्ञानिक चिन्तन एक मुश्किल चीज़ है। इसमें शामिल होता है तर्कबुद्धि और संस्कृति के बीच का एक जटिल अंतरसंघर्ष। तुर्रा ये कि न तो हम तर्कबुद्धि को अच्छी तरह समझते हैं न ही संस्कृति को। कुछ लोग समझते हैं कि तार्किकता पारदर्शी होती है जबकि संस्कृति में कई अँधेरे कोने होते हैं। विरोधी पक्ष कहता है कि यह एक ग़लत तस्वीर है। वह यह दिखाने की कोशिश करता है कि तर्क की जड़ें धुँधली हैं- वह पवित्र-निर्मूल ढंग से धारण नहीं हुई। और वह स्वयं जागरूक नहीं है- वह नहीं जानती कि वह सत्ता की संरचनाओं से गहरे में उलझी हुई है।

कौन सा पक्ष महत्वपूर्ण है ताकि एक सफल और साथ ही साथ सार्थक जीवन जिया जा सके? किस पक्ष को फैसला देने का हक है? यह एक ऐसी बहस है जिसका आसानी से समाधान संभव नहीं है। इसे लेकर मज़ेदार प्रसंग भी हैं। मिसाल के तौर पर, जहां वैज्ञानिक कविता पर अपना फ़ैसला सुनाते दिखते हैं। पॉल डिराक, जिन्हें बीसवीं सदी के महानतम वैज्ञानिकों में शुमार किया जाता है, उन्होंने एक बार जेआर ओपनहाइमर, जो भी एक बड़े वैज्ञानिक थे और एक बहुज्ञ-बहुप्रतिभासम्पन्न व्यक्ति थे, से कहा, ‘‘मैं समझ नहीं पाता कि आप भौतिकी में काम करते हैं और साथ ही साथ कविताएं भी लिखते हैं। विज्ञान मे आप उस बात को कहना चाहते हैं, जो पहले से कोई जानता नहीं हो, लेकिन ऐसे शब्दों में  कहना चाहते हैं जिसे सभी  समझ सकें। जब कि  कविता में आप  वही  कहते हैं जो सब पहले से ही जानते हैं, लेकिन ऐसे शब्दों में जिन्हें कोई समझ न सके।’’

दूसरी तरफ़, विज्ञान पर कवियों का फ़ैसला आम तौर पर अधिक स्याह होता है- वह अक्सर विज्ञान की यांत्रिकता की आलोचना करती है, या उसका ऐसे मज़ाक उड़ाती है जैसे कोई किसी वयस्क के बचपने का मज़ाक उड़ाए।

इतनी पृष्ठभूमि के बाद, मैं अब आज के विषय पर आना चाहूंगा। मैं इस बात से सहमत हूं कि वैज्ञानिक मिज़ाज उन समाजों एवं संस्कृतियों  से लगभग गायब है जो इस उपमहाद्वीप की एक अलग क़िस्म की सभ्यता का निर्माण करते हैं, लेकिन मैं इस बात को लेकर आश्चर्यचकित नहीं हूं कि वह बसु, रमण और सलाम जैसे वैज्ञानिकों के बावजूद अनुपस्थित है। मैं इस बात पर अधिक आश्चर्यचकित हूं कि वह जवाहरलाल नेहरू जैसी शख्सियत के बावजूद अनुपस्थित है। मेरे हिसाब से, वैज्ञानिक मिज़ाज की वांछनीयता के सबसे श्रेष्ठ और सबसे समझदार हिमायती नेहरू थे। मैं ‘भारत एक खोज’ से एक उद्धरण साझा करना चाहूँगा, भले ही इसमें थोड़ा वक़्त ख़र्च हो जाय:

विज्ञान सकारात्मक ज्ञान के दायरे में  व्यवहार करता है लेकिन जिस मिज़ाज  को वह निर्मित करता है, वह उस दायरे का उल्लंघन करता है। मनुष्य का अंतिम लक्ष्य ज्ञान हासिल करना, सत्य को पाना, अच्छाई और सुंदरता का  रसग्रहण करना  हो सकता है। वस्तुनिष्ठ खोज की वैज्ञानिक पद्धति इन सभी पर लागू नहीं होती और जीवन में बहुत  कुछ ऐसा भी महत्वपूर्ण है, जो इसके दायरे के बाहर दिखता है- फिर वह चाहे कला और कविता के प्रति संवेदनशीलता, वह भावना जो सौंदर्य से निर्मित होती है, अच्छाई का बेहद गहराई में स्वीकार। मुमकिन है कि एक वनस्पति वैज्ञानिक और एक प्राणी वैज्ञानिक प्रकृति का सम्मोहन और उसकी सुंदरता  का कभी अनुभव भी न करे; संभव है एक समाजविज्ञानी मानवता के प्रति प्रेम से बिल्कुल वंचित हो। लेकिन जब हम पहाड़ों की उंचाई पर जाते हैं, जहां दर्शन का निवास होता है और उच्च कोटि की भावनाएं मन में समा जाती हैं, या हमारे सामने खड़े विराट को अपलक हम देखते जाते हैं, उस वक्त भी  वैज्ञानिक मिज़ाज वाली  पहुँच और भावना की ज़रूरत बनी रहती है।

अनुवादक द्वारा मूल टिप्पणी का भाषांतर

मैं इस बात को भी जोड़ना चाहूंगा कि भारत का संविधान दुनिया का एकमात्र संविधान है जिसमें  हर नागरिक के बुनियादी कर्तव्य के तौर पर ‘‘वैज्ञानिक चिन्तन, मानवता और अनुसंधान और सुधार की भावना’’ का स्पष्ट उल्लेख है।

यह सब कुछ अत्यधिक दार्शनिक और आदर्शवादी लग सकता है। आखिर कोई इस बात का क्या प्रमाण है कि किसी समाज या किसी सभ्यता के लिए वैज्ञानिक मिज़ाज की वाकई ज़रूरत है? मुझे लगता है कि इतिहास ने हमारे सामने एक वास्तविक मिसाल पेश की है। मैं चंद बातें उस पर भी रखना चाहूंगा।

परवेज़ की जिस किताब का मैंने अभी ज़िक्र किया है उसकी शुरूआत एक कल्पित कथा से होती है, ‘‘मान लें कि मंगल ग्रह पर रहने वाले मानवशास्त्रियों की एक टीम ने 9वीं और 13वीं सदी के दरमियान पृथ्वी की यात्रा की’’। उन्होंने पाया कि ‘‘यहां पर सबसे अधिक संभावनाओं वाली इस्लामिक सभ्यता दिखती है, जहां बैत-उल-हिकमा जैसा पुस्तकालय है, खगोलीय वेधशालाएं है, अस्पताल हैं और स्कूल हैं।’’ फिर वे बीसवीं सदी के अंत में फिर एक बार यहां आते हैं और पाते हैं ‘‘उनका पहले का अनुमान बिल्कुल गलत साबित हुआ। मानवता का वह हिस्सा जो कभी सबसे अधिक संभावनासंपन्न दिखता था वह अवरूद्ध मध्ययुगीनता की स्थिति में जकड़ा है, नए को बिल्कुल खारिज कर रहा है और अतीत से बुरी तरह चिपका हुआ है। इसके उलट, अतीत के पीछे छूटे हुए लोग (यूरोप से तात्पर्य है) विकास की सीढ़ी चढ़ चुके हैं और अब सितारों को लक्ष्य किए हुए हैं। क्या यह भूमिकाओं का प्रचंड उलटफेर, आगंतुक पूछते हैं, महज एक का दुर्भाग्य और दूसरे का सौभाग्य कहा जा सकता है? क्या उसकी वजह आक्रमण और सैनिक पराजय है? या क्या यह  नज़रियों और रुख में बुनियादी बदलाव की परिणति है?’’

कुछ मामूली फ़र्क़ों के साथ यह दृष्टान्त भारतीय उपमहाद्वीप पर भी समान रूप से लागू हो सकता है। अगर मंगल ग्रह के लोग 17वीं सदी के दरमियान यहां पहुँचते तो सम्राट अकबर के दरबार के नवरत्नों को देख कर चकित रह जाते; इस बात से अचंभित रह जाते कि पूरी दुनिया के सकल उत्पाद का लगभग एक-तिहाई अकेले इस महाद्वीप पर ही पैदा होता है। लेकिन जब वे आज के समय में फिर इस महाद्वीप पर वापिस आते तो यहां की दुर्दशा देखकर और यहां का पिछड़ापन देखकर इस सभ्यता के बारे में उतने ही निराश हुए होते जितना कि वे इस्लामी सभ्यता के बारे में हुए थे।

शायद यह पूछने की बजाय कि सभी पीछे क्यों छूट गये, असली सवाल यह पूछा जाना चाहिए कि पश्चिम आगे कैसे निकल गया। इससे सभी के पीछे छूट जाने के मसले पर भी ज़्यादा आसानी से रौशनी पड़ सकती है। हो सकता है जवाब साफ हो, लेकिन कमरे में मौजूद हाथी की तरह उसे नज़रअन्दाज़ करने की कोशिश की जाती रही हो। हो सकता है, इतिहास के लम्बे दौर में अन्तर्भूत गहरे कार्यकारण सम्बन्धों का सन्धान आज की बौद्धिक-अकादमिक दुनिया में फ़ैशन में न हो। आख़िरकार, यह महान आख्यानों के प्रति संदेहों का दौर है। हम जो इस दौड़ में पीछे छूट गए हैं, उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद को इसके लिए जिम्मेदार ठहराते हुए सुकून हासिल कर सकते हैं और उन्हें इन अपराधों के लिए पूरी तरह जिम्मेदार ठहरा सकते हैं। हम इस बात पर भी खुश हो सकते हैं कि पश्चिमी अकादमिक जगत के बड़े-बड़े विद्वतजन भी विज्ञान और आधुनिकता के खिलाफ बौद्धिक तूफान खड़ा कर रहे हैं, जो उनके हिसाब से कथित तौर पर पूंजीवाद, उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का नौकर और उपकरण मात्र रहे हैं। उत्तर-औपनिवेशिकता के सिद्धान्तकार उस उपनिवेशवाद के भयावह कारनामों को उजागर करने में व्यस्त रह सकते हैं जिसका युग बीत चुका है। लेकिन एक दिन तो हमें यह पूछना ही होगा-  उस अनुपस्थित उपनिवेशवाद की आलोचना से भारतीय उपमहाद्वीप पर रहने वाले हम लोगों को क्या हासिल होने वाला है?

पश्चिम के अकादमिक गढ़ों में बैठे उपनिवेशवाद के ये आलोचक और उत्तर-औपनिवेशिकता के ये सिद्धान्तकार निश्चित ही पश्चिमी समाजों को अधिक सभ्य, अधिक जनतांत्रिक और अधिक बहुसांस्कृतिक बनाने में योगदान कर रहे हैं, लेकिन पश्चिम के पास तो पहले से ही विज्ञान और आधुनिकता है, वह पहले ही आगे बढ़ चुका है। इस सब में हम पूरब वालों के लिए क्या है? गरीबी और अंधश्रद्धा के दलदल से हमें अपना रास्ता किस तरह निकालना है? अपने लिए हमें किस तरह के भविष्य की कल्पना करनी है? 

पश्चिम क्यों और किस तरह आगे निकल गया- यह एक विशद विषय है और इस पर तमाम पुस्तकालय भरे पड़े हैं। लेकिन कुछ मायनों में इसका जवाब इतना साफ़ है कि इसे दो शब्दों में कहा जा सकता है: विज्ञान और आधुनिकता की सहायता से  पश्चिम यह चमत्कार कर सकने में सफल रहा। यह सच है कि विज्ञान और आधुनिकता दोनों ही पूँजीवाद और उपनिवेशवाद के साथ पैदा हुए थे, लेकिन, जैसा कि मुहावरा है, हमें बच्चे को भी कठौते के गन्दे पानी के साथ फेंक नहीं देना चाहिए। यह बेहद आश्चर्यजनक है कि तमाम बड़े-बड़े सिद्धांत मौजूद हैं जो कहते हैं कि सार्वभौमिक सत्य, वस्तुनिष्ठता और वैज्ञानिक पद्धति की विशिष्टता को लेकर विज्ञान की हैसियत कोई अलग नहीं है। सत्य और ज्ञान को लेकर सभी युगों में सभी संस्कृतियों के अपने-अपने दावे थे और उन सभी को विज्ञान तथा वैज्ञानिक पद्धति के दावों के बराबर का स्थान मिलना चाहिए। आज के भारत में ऐसी धारणा को पुष्ट करने के लिए एक आसान रास्ता निकाला गया है- हमें बस यही दावा करना है कि आधुनिक विज्ञान ने अब तक जो हासिल किया और आगे जो भी हासिल करेगा, वह सब वेदों में पहले से मौजूद है। 

भारतीय आधुनिकता, स्वधर्म और लोक-संस्कृति के एक राजनीतिक मुहावरे की तलाश

बात जो भी हो, पश्चिम ने सबसे आगे निकल जाने का यह चमत्कार महज पूंजीवाद और औद्योगिक क्रांति के ज़रिये ही हासिल नहीं किया। प्रबोधन और आधुनिकता ने इसमें उतनी ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। हम लोगों ने विज्ञान और संस्कृति के बीच की जटिल अंतःक्रिया को पहले से ही संदर्भित किया है। 18वीं सदी के पश्चिमी यूरोप में इसने इतिहास को और गतिमान बना दिया। आधुनिक विज्ञान के उभार के बाद लगभग दो सौ साल लगे जब वैज्ञानिक मिज़ाज पश्चिमी समाज और संस्कृति में नीचे तक पहुँचने लगा। सांस्कृतिक ज़मीन में वैज्ञानिक सोच और मिज़ाज के धीरे-धीरे रिसने की इस प्रक्रिया को ही प्रबोधन का नाम दिया जाता है। 

प्रबोधन और आधुनिकता को हम महज आयात नहीं कर सकते। इसे हासिल करने के लिए हम किसी का अन्धानुकरण नहीं कर सकते। इसकी वजह ये है कि विज्ञान भले एक ही हो, संस्कृतियाँ अनेक हैं। सभी संस्कृतियों को चाहिए कि वे विज्ञान को अपनाएँ और आधुनिकता को सक्रिय-सामाजिक रूप दें, लेकिन संस्कृतियों की अनेकता और विविधता के चलते सभी के रास्ते अलग-अलग होंगे। जो पीछे छूट गए, उनमें से कुछ ही ऐसे सफल उदाहरण मिलते हैं जिन्होंने उन्नति, आधुनिकता और वैज्ञानिक मिज़ाज के मामले में अपने अलग ढंग से ही पश्चिम को पकड़ लिया और उससे बराबरी हासिल कर ली।

पहले सोवियत संघ ऐसा उदाहरण था, लेकिन वह नष्ट हो गया। वैसे भी रूस यूरोपीय सभ्यता के इतना करीब था कि उसे बराबर में आ जाने के अलग सभ्यतात्मक उदाहरण के तौर पर देख पाना मुश्किल है। पूरब में, पहले जापान और अब चीन ऐसे उदाहरण के तौर पर सामने आते हैं। भारतीय महाद्वीप के ऐसा उदाहरण न बन पाने के पीछे कौन से कारण हैं?

यह भी एक बड़ा विषय है और बेहद जटिल मामला है। कहा जाता है कि समझदार जहां जाने में हिचकते हैं, अहमक वहां दौड़कर पहुँच जाते हैं। लेकिन अहमक होने का ख़तरा मुझे उठाने दीजिए। जिन सहस्राब्दिक ऐतिहासिक प्रक्रियाओं के द्वारा इस उपमहाद्वीप में एक विशिष्ट सभ्यता का निर्माण हुआ है उनमें एक ऐसी है जो विशिष्ट और अनूठी है। इसके तत्व अन्य मुल्कों और सभ्यताओं में पाए तो जा सकते हैं लेकिन इस उपमहाद्वीप में उसने जो भूमिका अदा की है, वह अन्य किसी इलाके में नहीं निभायी होगी। यही मेरे खयाल से वह अकेला सबसे बड़ा अवरोध है जिसने हमारी संस्कृति में वैज्ञानिक मिज़ाज को रिसने से रोकने में सबसे बड़ी भूमिका निभायी है। इसी पर उंगली उठाने की कोशिश करते हुए मैं अपनी बात समेटना चाहूंगा। 

मैं इस बात की तरफ संकेत करना चाहता हू कि इस उपमहाद्वीप में मौजूद लगभग सभी धर्मों ने, अलग अलग अंशों में, एक रहस्यवादी-भक्तिमार्गी रूप धारण किया। इसमें गुरुओं, पीरों, महात्माओं और अनेक प्रकार के गॉडमेन की नेतृत्वकारी भूमिका बनी। ये सभी, पुरोहितों, पवित्र किताबों या अन्य बिचौलियों की मध्यस्थता के बग़ैर, ईश्वर तक सीधी पहुँच के लिए भक्ति का लोकमार्ग बनाने का दावा करते थे। हिन्दू पक्ष को देखें तो दक्षिण में उसका उदय पहली सहस्राब्दि के भक्ति आंदोलन के साथ हुआ और जो दूसरी सहस्राब्दि में उत्तर भारत में पहुंचा। मुस्लिम पक्ष को देखें तो अनेक प्रकार के सूफ़ी पन्थ अफगानिस्तान के रास्ते भारत के उत्तर पश्चिम में पहुँचे और सूफियों, दरवेशों और पीरों के ज़रिये फैलते गये। इस परिघटना ने एक नए धर्म- सिख धर्म- को भी जन्म दिया। यही वह भक्ति, सूफी, सिख धर्म और सम्मिश्र रहस्यमयी-भक्तिमार्गी आंदोलनों की परिघटना है जिसने भारतीय उपमहाद्वीप में एक अलग और विशिष्ट सभ्यता के निर्माण में महती भूमिका निभायी है। 

लगभग सभी ने इस परिघटना की बेहद अनुकूल ढंग से व्याख्या की है। धार्मिेकों से लेकर अधार्मिकों तक, परंपरावादियों से लेकर आधुनिकतावादियों तक, दक्षिणपंथियों से लेकर वामपंथियों तक सभी ने इसकी प्रशंसा की है। लगभग हर कोई रूढिवादिता की तुलना में वैविध्य या बहुलवाद की हिमायत करता है। इस बात से इन्कार तो नहीं किया जा सकता कि भक्ति-सूफी-सिख-संत आन्दोलनों ने उपमहाद्वीप की संस्कृति और सभ्यता में सकारात्मक योगदान भी किया है। इसके बावजूद यह कहना ज़रूरी है कि इसका एक बड़ा नकारात्मक परिणाम भी रहा है जिसे नज़रअंदाज़ किया गया है।

यह परिघटना ऐसी प्रक्रियाओ को आगे बढ़ाती दिखती है जो वैज्ञानिक चिन्तन और आधुनिकता की प्रगति को बाधित करते हैं। यह विस्मय और जिज्ञासा की जगह अंधी आस्था को प्रोत्साहित करती है; धार्मिकता को सही मायने में आध्यात्मिक, तत्वज्ञानशील और दार्शनिक बनने से रोकती है; दार्शनिक को तार्किक बनने से बाधित करती है; और तार्किकता को संस्कृति में रिसने से रोकती है। वह दुनिया के इस हिस्से में अतार्किकता, अंधी आस्था और अंधश्रद्धा का प्रधान वाहन बनती है।

जार्ज ऑरवेल ने कभी कहा था, ‘‘संतों को हमेशा ही दोषी मान लेना चाहिए जब तक कि यह साबित न हो कि वह निरपराध हैं।’’ आज के भारत में ऑरवेल के इस कथन का एक विडम्बनापूर्ण अर्थ निकला है- अनेक साधुओं और महात्माओं के बलात्कारी और हत्यारे साबित होने के बावजूद और उनके जेल जाने के बावजूद उनके अनुयायियों की संख्या में कोई कमी आती नहीं दीखती।

नेहरू तक  भक्ति आंदोलन के सभ्यतात्मक परिणामों से जूझने में असफल रहे। वे अपने में अंतर्विरोधों को समाहित किये हुए थे। विवेकानन्द, रवीन्द्रनाथ टैगोर, गाँधी, भगत सिंह और आइन्स्टाइन- सभी की एक साथ और बराबर आदर से तारीफ़ करते थे। नेहरू एक महान व्यक्ति थे- वे दूरदर्शी थे, नेता थे, चिन्तक थे, राजनेता थे। विटमैन के तौर पर वह शायद कह सकते थे, ‘‘मैं विशाल हूं, मुझमें बहुलता समाहित है।” दरअसल वे असफल इसलिए हुए कि भारत के अतीत का बोझ उनके जैसे महान व्यक्ति के लिए भी बहुत भारी साबित हुआ। वे खरी-खरी बात नहीं कह सकते थे क्योंकि उन्हें अपने लोगों को साथ लेकर चलना था।  इसीलिए कभी-कभार आपको छोटे लोगों की बातें भी सुननी चाहिए। वे सच्ची बातें इसलिए कह सकते हैं क्योंकि नेहरू वाला बोझ उठाने की ज़िम्मेदारी उनकी नहीं है।

यहीं मैं अपनी बात खत्म करना चाहूंगा। 


(द इंडियन डाइस्पोरा, वॉशिंग्टन डीसी मेट्रो , संयुक्त राज्य अमेरिका की तरफ से Absence of Scientific Temper in the Lands of Scientists Raman, Bose, Abdus Salaam  विषय पर, 19 दिसम्बर 2022 को आनलाइन पैनल डिस्कशन का कार्यक्रम हुआ। अग्रणी भौतिकीविद, जनबुद्धिजीवी, नागरिक अधिकार कार्यकर्ता, लेखक और स्तंभकार प्रोफेसर परवेज हुदभॉय, पाकिस्तान; सैद्धांतिक भौतिकीविद, एक्टिविस्ट, प्रगतिशील आंदोलनों से जुडे़ बुद्धिजीवी एवं लेखक डॉ. रवि सिन्हा; पूर्व मुख्य वैज्ञानिक, कौन्सिल आफ साइंटिफिक एण्ड इंडस्टियल रिसर्च, नागरिक अधिकार कार्यकर्ता, डॉक्युमेंटरी फिल्म निर्माता गौहर रज़ा ने बातें रखीं। प्रो. रजी रजीउददीन, वैज्ञानिक, इंडियन डाइस्पोरा के संस्थापक ने स्वागत वक्तव्य दिए। कार्यक्रम में डॉ. रवि सिन्हा द्वारा उपरोक्त लिखित वक्तव्य दिया गया। मूल अंग्रेजी वक्तव्य यहां पढ़ सकते हैं)

(अनुवाद : सुभाष गाताड़े)


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