नेपाल के प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली और प्रचंड के बीच जारी झगड़े के पीछे क्या है?


नेपाल में सत्तारूढ़ नेपाल कम्युनिस्ट पार्टी के दो अध्यक्ष, प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली और पूर्व प्रधानमंत्री पुष्पकमल दहाल प्रचंड, के बीच लंबे समय से जारी रस्साकशी 30 जून को जारी पार्टी की स्थायी कमिटी की बैठक में खुल कर सामने आ गई. बैठक में प्रचंड ने प्रधानमंत्री ओली से अध्यक्ष और प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने कहा. समाचार वेबसाइट रातोपाटी ऑनलाइन ने बताया है कि उनकी मांग को बैठक में मौजूद 17 नेताओं का समर्थन था. (पार्टी की स्थायी समिति में 45 सदस्य हैं.) वेबसाइट के मुताबिक प्रचंड की बगावत के बाद ओली अपने करीबी नेताओं और मंत्रियों से मीटिंग कर रहे हैं, जिनमें वह बगावत से निबटने की योजना तैयार कर रहे हैं.

28 जून को कम्युनिस्ट नेता मदन भंडारी की जयंती के अवसर पर आयोजित एक कार्यक्रम में ओली ने “खुलासा” किया था कि भारत उनकी सरकार को गिराने का प्रयास कर रहा है. इस तरह उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से प्रचंड सहित पार्टी में अपने विरोधियों पर भारत परस्त होने का आरोप लगाया था. उस कार्यक्रम में ओली ने कहा था, “यदि कोई समझता है कि नक्शा छापने के कारण सरकार बदल जाएगी तो उसे पुराने दिनों की गलतफहमियों से ऊपर उठने की जरूरत है. प्रधानमंत्री के पद पर बैठे रहने का मेरा मन नहीं है लेकिन अगर मैं हट गया तो फिर नेपाल के पक्ष में बोलने की हिम्मत कोई नहीं करेगा.” बाद में प्रचंड ने स्थायी कमिटी की बैठक में ओली को घेरते हुए कहा कि उनकी ऐसी अभिव्यक्ति से भारत के साथ अंतरराष्ट्रीय संबंध खराब होंगे.

हालांकि ज्यादातर जानकार मानते हैं कि दोनों नेताओं के बीच तनाव के पीछे दो कारण महत्वपूर्ण हैं. एक, दोनों पार्टियों (माओवादी और एमाले) के बीच मई 2018 में हुई एकता में की गई प्रतिबद्धता को ओली द्वारा पूरा न करना. प्रचंड और उनके समर्थक दावा करते हैं कि दोनों पार्टियों के बीच एकता के वक्त पार्टियों के नेताओं के बीच सहमति हुई थी कि ओली और प्रचंड आधे-आधे कार्यकाल के लिए प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष रहेंगे यानी जब ओली प्रधानमंत्री होंगे तो प्रचंड पार्टी के अध्यक्ष होंगे और जब प्रचंड प्रधानमंत्री बनेंगे तो ओली पार्टी के अध्यक्ष बन जाएंगे. हालांकि बाद में ओली इस सहमति से पीछे हट गए और भारत की वजह से यानी अंग्रेजी में थैंक्स टू इंडिया, नेपाल की राजनीति में उनका दबदबा अधिक हो गया था कि प्रचंड नई पार्टी में उनके खिलाफ खुलकर विद्रोह भी नहीं कर सके.

इसके अलावा नई पार्टी में प्रचंड की वैसी धाक भी नहीं थी जिसकी उन्हें आदत रही है. नई पार्टी के शीर्ष नेता प्रचंड पर विश्वास करने में कतराते हैं क्योंकि प्रचंड जब माओवादी थे तो उनकी पार्टी इन नेताओं को “दलाल पूंजीपति वर्ग का प्रतिनिधि” कहती थी. माओवादी जनयुद्ध के दौरान माओवादी पार्टी और एमाले के कार्यकर्ताओं में अक्सर झड़पें होती थीं इसलिए निचले स्तर पर भी दोनों पार्टियों के नेताओं में आपसी विश्वास का आभाव है. 2010 में तो प्रचंड ने एमाले के वरिष्ठ नेता माधव कुमार को प्रधानमंत्री पद से हटाने के लिए काठमांडु की सड़कों में भीषण आंदोलन किया था. ऐसी ही कई और वजहों से एकता होने के बाद भी पार्टी की कमेटियों या मोर्चों की बैठकें नहीं हो पा रही हैं, इनके पदों का सैटलमैंट तक नहीं हुआ है. इसके अलावा खुद प्रचंड के साथ एकता में आए कई बड़े नेताओं ने भी पाला बदलने के संकेत दिए हैं. इन कारणों से प्रचंड को अब तक केपी शर्मा ओली की मनमानी के आगे झुकना पड़ा रहा था.

लेकिन हाल के दिनों में, खासकर कोरोना और मिलेनियम चैलेंज कारपोरेशन (एमसीसी) के चलते, ओली का “भारत विरोधी राष्ट्रवाद” कमजोर होने लगा है. हालांकि भारत के साथ हाल में हुए कालापानी-लिपुलेक विवाद ने उस राष्ट्रवाद में थोड़ी जान भर दी थी लेकिन वह अस्थायी साबित हुई.

ओली के राष्ट्रवाद की असल चुनौती एमसीसी है जिसे नेपाल के जानेमाने पत्रकार और जानकार अमेरिका की हिंद-प्रशांत योजना का हिस्सा मानते हैं. हालांकि नेपाल सरकार का ओली पक्ष इसे विशुद्ध रूप से विकास साझेदारी बताता है. एमसीसी के तहत अमेरिका नेपाल को 50 करोड़ डॉलर का ब्याज रहित अनुदान देगा जिसे नेपाल सरकार दोनों के बीच सहमति वाली परियोजनाओं में खर्च करेगी. इस साझेदारी को लागू करने की शर्त है कि इसका अनुमोदन संसद को करना होगा. चूंकि विवाद संसद से सड़क तक चल रहा है इसलिए ओली अब तक इसे संसद से पास नहीं करा सके हैं.

एमसीसी को सही परिप्रेक्ष में रखने वाले सबसे पहले नेपाली पत्रकारों में से एक रोहेज खतिवडा ने मुझे बताया है कि एमसीसी को हिंद-प्रशांत नीति से जोड़ कर देखने की अच्छी-खासी वजहें हैं. उनका कहना है कि एमसीसी के विरोधी ही नहीं बल्कि नेपाल में अमेरिकी राजदूत रैंडी बैरी सहित अमेरिकी के कई बड़े अधिकारियों ने इसे हिंद-प्रशांत नीति का हिस्सा कहा है. काठमांडु प्रेस में प्रकाशित एक लेख में खतिवडा ने चुटकी लेते हुए लिखा है, “क्या मजेदार बात है कि नेपाल में एमसीसी का विरोध करने वालों और अमेरिकी अधिकारियों की बात आपस में मिलती है.”

तो एमसीसी को अमेरिका की हिंद-प्रशांत नीति के साथ मिला कर देखा ही पड़ता है. हिंद-प्रशांत नीति पर बहुत कुछ लिखा जा सकता लेकिन यहां सिर्फ इतना ही कि अमेरिका की अगुवाई वाले इस गठजोड़ में जापान, ऑस्ट्रेलिया, भारत सहित कई देश हैं. ये सभी हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीन के बढ़ते प्रभाव का विरोध करते हैं. नेपाल में एमसीसी लागू होने का मतलब है कि नेपाल भी इस गठजोड़ में शामिल हो जाएगा. गठजोड़ में शामिल होने का मतलब है कि तटस्थता की अपनी नीति को छोड़ देगा. यही असल में एमसीसी विवाद की जड़ है. ओली, जो खुद को भारत विरोधी दिखाते हैं, असल में वह नेपाल में भारत के सबसे बड़े सहयोगी हैं. एमसीसी में शामिल होने की उनकी जिद, भारत के हित में है फिर चाहे वह इसे भारत विरोधी बन कर ही क्यों न पूरी करें. भारतीय मीडिया, जिसे वैसे भी अंतर्राष्ट्रीय मामलों की, खासकर पड़ोस के मामलों की मामूली जानकारी भी नहीं होती, ओली के इस पक्ष से परिचित नहीं है और भारत को भी ओली की इस छवी को कायम रखने में ही अपना हित नजर आ रहा है.

इसलिए ओली और प्रचंड के बीच जो टकराव चल रहा है वह सिर्फ इन दो नेताओं की टक्कर का मामला नहीं है बल्कि यह नेपाल की भूराजनीति को और चीन के साथ उसके संबंध को लंबे कालखंड के लिए बदल सकता है.

नेपाल में जारी अमेरिका-चीन युद्ध में भारत कहां खड़ा है?

भारत में हम अक्सर यह मानकर चलते हैं कि आसपड़ोस में ऐसा कोई देश नहीं है जो किसी न किसी विदेशी ताकत के इशारे पर काम नहीं कर रहा है. हम मानते हैं कि पाकिस्तान पहले अमेरिका परस्त था लेकिन अब चीन परस्त हो गया है. नेपाल, बंगलादेश, भूटान, श्रीलंका और अन्य देशों के बारे में भी हमारी ऐसी ही रायें होती हैं. वैसे ही नेपाल के लोग भारत को अमेरीका का प्रॉक्सी मानते हैं.

नरेन्द्र मोदी के शासन में उनकी यह मान्यता मजबूत हुई है क्योंकि भारत ने अपनी विदेश नीति पर पड़ा स्वायत्तता और स्वतंत्रता का छद्म आवरण उठा लिया है. मोदी के कार्यकाल में भारत ने गुट निरपेक्ष आंदोलन और सार्क जैसे समूह को डिफंक्ट बना दिया है और स्वयं को अमेरिका की हिंद-प्रशांत नीति के साथ मजबूती से नत्थी कर लिया है. यही कारण है कि अमेरिका अब नेपाल में अपने प्रॉक्सी के बिना सीधा हस्तक्षेप करने की स्थिति में आ गया है.

जब अमेरिका एमसीसी योजना लेकर आ रहा था तो मुझे, पुराने अनुभवों के आधार पर, लगा रहा था कि भारत को इतना सीधा हस्तक्षेप कभी पसंद नहीं आएगा क्योंकि भारत ने हमेशा नेपाल में अमेरिका की ऐसी घुसपैठों का विरोध किया था. लेकिन मुझे तब बहुत हैरान हुई जब मोदी सरकार ने ऐसा होने दिया. इसकी एक सबसे बड़ी सीख तो यह है कि मोदी का भारत बाहर से चाहे जो दिखावा करता हो- नेपाल में आर्थिक नाकेबंदी करना, अनुच्छेद 370 हटाना, सर्जिकल स्ट्राइक आदि- लेकिन भीतर से उसमें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चीजों को हल करने के आत्मविश्वास की गहरी कमी है. मोदी अच्छे वक्त के शानदार प्रधानमंत्री तो हो सकते हैं लेकिन संकटकालीन अवस्था के लिए वह एक खराब प्रधानमंत्री साबित हुए हैं और भारत का उन पर विश्वास करते रहना उसके दीर्घकालीन हितों के लिए खतरनाक हो सकता है. कोविड-19 संकट में सरकार की लचर भूमिका और चीन के साथ ताजा विवाद से इसकी पुष्टि होती है. डॉ. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में ऐसा नहीं था. सिंह के कार्यकाल में कम से कम पड़ोसियों के मामलें में भारत चीजों को स्वयं हल करना चाहता था और कई बार उसने किया भी था.


विष्णु शर्मा दिल्ली स्थित पत्रकार हैं और यह टिप्पणी उनके फेसबुक से साभार प्रकाशित है


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