सात साल में भाजपा देवकान्त बरुआ के लाखों-करोड़ों क्लोन वाली इंदिरा काँग्रेस बन गयी है!

मोदी ने भाजपा को 1975 से 1984 के बीच की भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में बदल दिया है जिसमें देवकांत बरुआ जैसे चारणों ने इंडिया को इंदिरा और इंदिरा को इंडिया बना दिया था। पिछले सात साल में भाजपा में बरुआ के लाखों-करोड़ों क्लोन खड़े कर दिए गए हैं।

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इंदौर का एक चोर और उन लहरों का शोर, जिनका ‘पीक’ शायद कभी न आए!

जिन लहरों से हम अब मुख़ातिब होने वाले हैं उनका ‘पीक’ कभी भी शायद इसलिए नहीं आएगा कि वह नागरिक को नागरिक के ख़िलाफ़ खड़ा करने वाली साबित हो सकती है। जो नागरिक अभी व्यवस्था के ख़िलाफ़ खड़ा है वही महामारी का संकट ख़त्म हो जाने के बाद अपने आपको उन नागरिकों से लड़ता हुआ पा सकता है जिनके पास खोने के लिए अपने जिस्म के अलावा कुछ नहीं बचा है।

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राजपथ के रंगीन सपनों में खलल के बीच छवि बनाने का ‘संघठनात्‍मक’ अभियान

राजा और प्रजा के बीच उत्पन्न हुआ विश्वास का संकट उन रंगीन सपनों में ख़लल डाल सकता है जो नई दिल्ली में राष्ट्रपति भवन और इंडिया गेट के बीच राजपथ पर आकार ले रहे हैं। सारी परेशानी बस इसी बात की है।

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‘विफल स्टेट’ और ‘स्टेट की विफलता’ दो अलग बातें हैं, शातिर मीडिया का खेल समझिए!

मीडिया इतना शातिर बन गया है, यह इस दौर की सबसे बड़ी त्रासदी है क्योंकि वही है जो स्टेट के शीर्ष पर बैठे लोगों की विफलताओं को स्टेट की विफलता घोषित कर लोगों के आक्रोश की धार को मोड़ने की कोशिश कर रहा है। वह हमें बताना चाहता है कि हमने ऐसा ही स्टेट बनाया है तो आज इस भयंकर त्रासदी में तमाम विफलताओं के सबसे बड़े दोषी हम ही हैं।

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कहीं ठंडी न पड़ जाये चूल्हे की आग! किसान आंदोलन में शामिल स्त्रियों के अनुभव और अहसास

ये स्त्रियां कौन हैं, उन्‍हें प्रदर्शन में आने के लिए कौन सी चीज़ प्रेरित कर रही है और इनके बीच प्रतिरोध की चिंगारी कैसे भड़की जो इन्‍हें सिंघु और टीकरी बॉर्डरों तक खींच लायी, इन सवालों के जवाब इतने आसान नहीं हैं। फिर भी, आज ये आंदोलन का हिस्‍सा हैं तो पूरे दमखम से उसे ऊर्जावान बनाए हुए हैं।

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भारत की कोविड-19 इमरजेंसी: The Lancet का ताज़ा संपादकीय

स्‍थानीय सरकारों ने बीमारी की रोकथाम के उपाय शुरू कर दिए हैं, लेकिन जनता को मास्‍क लगाने, शारीरिक दूरी बरतने, बड़ी संख्‍या में एकत्रित होने, स्‍वैच्छिक क्‍वारंटीन होने और परीक्षण करवाने की ज़रूरत समझाने के लिहाज से केंद्रीय सरकार की भूमिका अनिवार्य है। इस संकट के दौरान मोदी ने जिस तरीके से आलोचनाओं और खुली बहसों का मुंह बंद करवाने की कार्रवाई और कोशिश की है, वह माफ़ किए जाने योग्‍य नहीं है।

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जंग के बीच सेनापति से इस्तीफे की मांग अनैतिक और अव्यावहारिक क्यों है

प्रधानमंत्री अगर स्वयं भी इस्तीफ़े की पेशकश करें तो हाथ जोड़कर उन्हें ऐसा करने से रोका जाना चाहिए। उन्होंने इस्तीफ़ा दे दिया तो वे नायक हो जाएंगे, ‘राष्ट्रधर्म’ निभा लेने के त्याग से महिमामंडित हो जाएंगे और किसी अगली और भी ज़्यादा बड़ी त्रासदी के ठीक पहले राष्ट्र का नेतृत्व करने के लिए पुनः उपस्थित हो जाएंगे।

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बेकाबू हो चुकी महामारी और मिस्टर मोदी: भारत पर The Guardian का संपादकीय

भारत एक ऐसा विशाल, जटिल और विविध देश है जिसे सबसे शांत दौर में भी चला पाना मुश्किल होता है, फिर राष्‍ट्रीय आपदा की तो क्‍या ही बात हो। आज यह देश कोरोना वायरस और भय की दोहरी महामारी से जूझ रहा है।

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रोज़ी बनाम ज़िंदगी की लड़ाई जैसे गैस चैम्बर और यातना शिविर में से किसी एक को चुनना!

ऑक्सिजन और अन्य जीवन-रक्षक चिकित्सकीय संसाधनों की उपलब्धता और उनके न्यायपूर्ण उपयोग को लेकर राष्ट्रीय नेतृत्व के द्वारा जिस तरह से चेताया जा रहा है उससे तो यही लगता है कि हालात ऐसे ही अनियंत्रित होकर ख़राब होते रहे तो नागरिक एक ऐसी स्थिति में पहुँच सकते हैं जब उनसे पूछा जाने लगे कि वे ही तय करें कि परिवार में पहले किसे बचाए जाने की ज़्यादा ज़रूरत है।

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कुशाभाऊ के भतीजों की मौत और ‘गैंगस्टर पूंजीवाद’ में बदल चुके एक विचार की जकड़बंदी

भाजपा के पितृपुरुष के परिवारीजन सही इलाज के बिना तड़प-तड़प कर मर गए।
पता नहीं, बैकुंठ में बैठे कुशाभाऊ ठाकरे क्या सोच रहे होंगे इस पर। उन्होंने अपने जीवन और चिंतन का बेहद महत्वपूर्ण हिस्सा राम मंदिर आंदोलन में लगाया था। क्या उनके मन में आ रहा होगा कि जितनी ऊर्जा मन्दिर के लिये लगायी, अगर उतनी ऊर्जा देश और राज्य के अस्पतालों की दशा सुधारने के लिए लगाते तो आज उनके भतीजे अकाल मौत न मरते…?

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