महात्मा गांधी: मसीहा और सुपरमैन में फर्क होता है

जब तक महात्मा गांधी के अनुयायियों का राज रहा, तब तक उनकी मूर्ति पूजा होती रही। अब जब दूसरे किस्म के लोगों के हाथ में सत्ता आई है तो उन्होंने वे तमाम चमत्कारी बातें गांधी जी से हटा दीं। ऐसे में बहुत से सामान्य लोग जो मसीहा की पूजा भी सुपरमैन की तरह करना चाहते हैं उनके लिए महात्मा गांधी एक बूढ़े, निरीह, लुंज पुंज, वृद्ध बन कर रह गए।

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संत क्यों करें हिंदुत्व की बदनामी?

क्या उन्हें पता नहीं है कि हमारे राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मंत्री और सभी सांसद उस संविधान की रक्षा की शपथ लेते हैं, जो धर्म-निरपेक्ष है? ये लोग अपने आपको संत कहते हैं तो क्या इनका बर्ताव संतों की तरह है? ये तो अपने आपको उग्रवादी नेताओं से भी ज्यादा नीचे गिरा रहे हैं।

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COP26: गहराते जलवायु संकट के बीच देशों और निगमों का जबानी जमाखर्च व पाखंड

ऐसा लगता है कि ये देश अपने यहां के कॉरपोरेट प्रतिष्‍ठानों के प्रवक्‍ता के रूप में काम कर रहे हैं जो ग्‍लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेंटिग्रेड (प्राक्-औरद्योगिक दौर से) तक सीमित रखने के लक्ष्‍य के प्रति बेपरवाह हैं। स्‍पष्‍ट है कि इन देशों के निगमों ने अंतिम समझौते को कमजोर करने के लिए भारत का इस्‍तेमाल किया है। ये वही निगम हैं जो भारत के सत्‍ताधारी राजनीति दलों को बेनामी चंदा देते हैं।

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एक जनरल की मृत्यु से उठते सवाल! जवाब कब और कौन देगा?

देश के सामान्य नागरिक की समझ से बाहर है कि एक ऐसे व्यक्ति, जिनके कंधों पर तीनों सेनाओं के प्रमुखों को साथ जोड़कर करोड़ों देशवासियों को बाहरी ताक़तों से सुरक्षा प्रदान करने की ज़िम्मेदारी थी, की अतिसुरक्षा प्राप्त संसाधनों के बीच भी मौत कैसे हो गई?

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किसान आंदोलन की मांगें WTO की उन शर्तों के विरोध में हैं जिन पर भारत सरकार पहले ही सहमति दे चुकी है!

जनता को अब यह मांग करनी ही पड़ेगी कि भारत सरकार विश्‍व व्‍यापार संगठन से अपने पांव वापस खींचे, उसके चंगुल से राष्‍ट्रीय अर्थव्‍यवस्‍था से जुड़े फैसलों को मुक्‍त करे और देश को बहुराष्‍ट्रीय साम्राज्‍यवादी कंपनियों के बजाय जनता की हित में चलाए।

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विजय समारोहों के बीच किसान आंदोलन की चिंताएं

प्रधानमंत्री द्वारा तीन कानूनों को निरस्त करने के निर्णय की घोषणा करने के लिए अपनाया गया तरीका भी उनके जनविरोधी फासीवादी मानसिक बनावट का एक और सबूत साबित हुआ है।

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जाति की सलीब पर कवि को टाँगे जाने के विरुद्ध: दिवाकर मुक्तिबोध से एक संक्षिप्त संवाद

दिवाकर मुक्तिबोध को मैंने फोन लगाया, हालांकि वो नहीं चाहते थे कि इस पर कुछ लिखूं या विवाद को और तूल दिया जाए या फिर मुक्तिबोध को जाति की सलीब पर लटका दिया जाए लेकिन चूंकि यह ज़रूरी है इसलिए दिवाकर मुक्तिबोध से माफ़ी सहित, उनसे हुई बातचीत यहां जस का तस प्रकाशित कर रहा हूं।

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तालिबान को मान्यता का सवाल बनाम अफगान जनता की भुखमरी और अराजकता

इस समय जरूरी यह है कि अफगान जनता को भुखमरी और अराजकता से बचाया जाए और इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए तालिबान को यदि अपने अनुयायिओं के विरुद्ध कठोर कदम उठाना पड़ें तो वे भी बेहिचक उठाए जाएं।

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पेगासस जासूसीः सरकार की किरकिरी

जैसे किसी ज़माने में औरतें अपने पति का नाम बोलने में हिचकिचाती थीं, वैसे ही पेगासस को लेकर हमारी सरकार की घिग्घी बंधी हुई है। अदालत ने सरकारी रवैए की कड़ी भर्त्सना करते हुए कहा है कि राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर उसे कुछ भी उटपटांग काम करने की इजाजत नहीं दी जा सकती।

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पंजाब: जहां मंडियों के सहारे चलती है जीवन की गाड़ी

पंजाब के किसानों का कहना है कि पूरे प्रदेश में व्याप्त मंडियों का विशाल और सुलभ नेटवर्क उनके अनुकूल है और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) व दूसरी अन्य भरोसेमंद प्रक्रियाओं के साथ-साथ व्यापार के लिहाज़ से उन्हें तनिक सुरक्षित माहौल उपलब्ध कराता है। अब किसानों को इस बात का डर लगातार सता रहा है कि नए कृषि कानूनों के लागू होने का सीधा असर इस नेटवर्क पर पड़ेगा।

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