धर्म और राष्ट्रवाद आधारित समूह ‘अन्य’ के प्रति हमारी संवेदना को क्यों हर लेते हैं? कैसे बचें?


मानवजाति की प्रारंभिक छह प्रजातियों में से सिर्फ ‘होमो सेपियंस’ ही आज मौजूद है। उनके जीवित रहने का कारण सबसे मजबूत या सबसे ताकतवर होना नहीं था, और ना ही वो औरों से ज्यादा बुद्धिमान थे। इतिहासकार और दार्शनिक ‘युवाल नोआ हरारी’ के अनुसार उनके जीवित रहने का कारण था उनका सामाजिक समन्वय और उनका परिस्थिति अनुकूल होना।

वस्तुतः मानव समाज की अवधारणा परस्पर सहयोग और निर्भरता पर आधारित है। मनुष्य अकेला सब कुछ नहीं कर सकता। बल्कि इस पृथ्वी के सन्दर्भ में एक अकेला मनुष्य बहुत तुच्छ है। परन्तु मानव जाति ने सामूहिक तौर पर स्वयं को भोजन श्रृंखला में सर्वश्रेठ सिद्ध किया है। आज इस संसार का भविष्य मनुष्य के हाथों में है। मनुष्यों के निर्णय अन्य जीवों का जीवन निर्धारण करते है और हमने यह स्थान एक दूसरे के साथ मिल कर बनाया है।

जब यह बात इतनी स्वाभाविक और सरल है कि हम एक दूसरे के सहयोग के बिना प्रगति नहीं कर सकते, तो फिर क्यों विश्व भर में मनुष्यों के बीच संघर्ष हो रहे हैं?

Spear Crafting Illustration by Zdenek Burian, 1952 “Prehistoric Man,” 1960

यह प्रश्न विचारणीय है। क्या कारण हैं कि मनुष्य एक दूसरे के प्रति इतनी बर्बरता से व्यवहार कर सकते हैं या दूसरों को हानि पहुंचा सकते हैं? क्यों हम मनुष्यों का हृदय जो एक जानवर की पीड़ा में भी द्रवित हो जाता है दूसरे मनुष्य के दुःख पर घृणा से मुख फेर लेने में सक्षम हो जाता है? जानबूझ दूसरों को तकलीफ देता है या दूसरों का कष्ट नजरंदाज़ कर देता है?

हमें अपने आसपास भी ऐसे अनगिनत उदाहरण मिल जाएंगे जहाँ एक मनुष्य जो एक परिस्थिति में सरल हृदय और स्नेही है, किसी और परिस्थिति में क्रूर और असहिष्णु हो जाता है। सबसे ज्वलंत उदाहरण दंगों का है। बरसों से साथ रहने वाले लोग एक दूसरे के दुश्मन बन जाते हैं। शांत से लगने वाले लोग भी इतनी बर्बरता कर बैठते हैं। आखिर क्यों?

इस विषय पर स्तान्फोर्ड विश्वविद्यालय के न्यूरो वैज्ञानिक डेविड एगलमैन और यूनिवर्सिटी ऑफ़ कैलिफोर्निया के डॉन वॉन ने एक बहुत अच्छा लेख प्रकाशित किया है। इस लेख में उन्होंने यह जानने की कोशिश की है कि किसी के प्रति सहानुभूति के कारक क्या हैं। वो क्या चीज है जो हमें किसी का हमदर्द बनाती है जबकि किसी और के दुख के प्रति उदासीन रखती है।

उनके अनुसार हमारा दिमाग दूसरों के अनुभवों का अपने दिमाग में अनुसरण करता है। सही परिस्थितियों में यह अनुसरण दूसरों के लिए सहानुभूति उत्पन्न करता है। यह सहानुभूति ही हमारी वर्चस्‍व की भूख, बर्बरता और हिंसक प्रवृत्ति को नियंत्रित करती है। सहानुभूति के कारण की हम दूसरों के साथ परस्पर मिल कर बड़े समूह में काम कर पाते हैं। सहानुभूति ही हमारे समाज का आधार है। परन्तु अगर परिस्थितियां सही ना हों तो हमारी यह सहानुभूति महसूस करने की क्षमता बदल जाती है। अब प्रश्न आता है कि क्या हैं वो परिस्थितियाँ जो सहानुभूति को पैदा नहीं होने देती?

मनोविज्ञानिक हेनरी ताज्फेल के अनुसार मनुष्य अपनी सामाजिक पहचान के लिए स्वयं को अलग-अलग समूहों का हिस्सा बनाते है। यह ‘इनग्रुप’ और ‘आउटग्रुप’ की बात ‘सोशल आइडेंटिटी थ्योरी’ के अंतर्गत समझी जा सकती है। समूहों में विभाजन दिमाग की सामान्य संज्ञानात्मक बोध प्रक्रि‍या है। यह हमें अपने आसपास की चीजों को समझने में मदद करती है। यह विभाजन लोगों के लिए गर्व और आत्मसम्मान का विषय होता है। कुछ लोग उनके समूह का हिस्सा होते हैं और अन्य उस समूह से बाहर।

इस तरह के समूह सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक, धार्मिक आदि किसी भी आधार पर हो सकते हैं। यह समूह हमें एक संबद्धता देते हैं। सामान्यतः एक समूह के लोग अपनी आत्मछवि अच्छी करने के लिए अपने समूह से बाहर के लोगों के नकारात्मक पहलू ढूंढते हैं। यही सोच हमें दूसरों की तकलीफों को पहचानने और उनसे सहानभूति करने से रोकती है।

इस सोच के कारकों को जानने के लिए एगलमैन और वॉन ने एक प्रयोग किया। इस प्रयोग के पहले चरण में उन्होंने कुछ प्रतिभागियों को वीडिओ स्क्रीन पर छह हाथ दिखाए। फिर उन हाथों में से बिना किसी आधार एक हाथ को चुन कर उसे सुई चुभोई गयी। इस पर प्रतिभागियों के मस्तिष्क की गतिविधि MRI मशीन द्वारा नोट की गई।

प्रयोग के दूसरे चरण में, उन छह हाथों पर ईसाई, मुस्लिम, यहूदी, हिंदू, वैज्ञानिक या नास्तिक जैसे लेबल लगाये गए। और फिर पहले वाली प्रक्रिया दोहराई गयी। वैज्ञानिकों ने पाया कि ‘आउटग्रुप’ की तुलना में प्रतिभागियों ने ‘इनग्रुप’ के लिए ज्यादा सहानुभूति प्रदर्शित की। यह प्रतिक्रिया इतनी ज्यादा थी कि वैज्ञानिकों ने 72% प्रतिभागियों का ‘इनग्रुप’ उनकी प्रतिक्रिया के आधार पर सही बताया। यहाँ तक कि नास्तिक लोगों ने भी धार्मिक प्रतिभागियों जैसा ही झुकाव अपने ‘इनग्रुप’ के प्रति दिखाया।

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जब सिर्फ एक शब्द से भी हमारी सहानुभूति बदल जाती है फिर बहुत गहरी जुड़ी भावनाओं वाले विषय जैसे धर्म या राष्ट्रवाद आधारित समूह मनुष्य की अमानवीय प्रवृति को बहुत सहज ही उकसा कर उसे हत्या और बर्बरता के लिए प्रेरित कर सकते हैं। इसलिए हमारे लिए यह जानना जरूरी है कि हम स्वयं को ऐसे समूह आधारित भेदभाव करने से कैसे बचा सकते हैं।

इस विषय पर वैज्ञानिकों ने कुछ बहुत ही आसान से तरीके सुझाये हैं। इन तरीकों को अपना कर समूह आधारित भेदभाव से स्वयं को रोक सकते हैं।

अपने आप को जानना अपना व्यवहार बदलने की सबसे पहली सीढ़ी है। जितना हम स्वयं के विचार करने के तरीके से अवगत होंगे उतना ही हम उसमें सुधार कर सकेंगे। अतः हमेशा अपने व्यवहार को एक वस्तुनिष्ठ (या दूसरे व्यक्ति के) परिदृश्य से देखने की चेष्टा करें। आपके किसी भी निर्णय के कारण क्या हैं और क्या वो कारण आपने मन में दबी कोई गलत अवधारणा तो नहीं है? अपने आप से ये सवाल करें कि अगर सामने वाला किसी और पृष्ठभूमि से हो तो भी क्या आप उसके बारे में ऐसा ही सोचेंगे? या फिर आप अगर उसके स्थान पर होते तो कैसे व्यवहार की अपेक्षा करते? इस सवाल का ईमानदार जवाब आपको भेदभाव करने से रोकेगा।

दूसरा अच्छा तरीका है किताबें, थियेटर और फिल्में। यह हमें दूसरों के दृष्टि‍कोण को समझने का अवसर देते हैं। इनके द्वारा हम दूसरों की उन वास्तविकताओ से परिचित हो सकते हैं जिनके विषय में हम सोच भी नहीं सकते। जैसे जिसने भी बंकिमचंद्र जी की ‘आनंद मठ’ पढ़ी वो अकाल पीड़ितों की दुर्दशा सहज ही समझ सकता है, या फिर जिसने ‘आर्टिकल 15’ देखी है वो दलितों और गरीबों की स्थिति स्वत: ही समझ सकता है। ऐसे अनेक उदाहरण हैं हमारे जीवन में। यह अभिव्यक्ति के वो माध्यम हैं जो हमें संसार में किसी अन्य व्यक्ति की दृष्टि से देखना सिखाते हैं और दूसरों का दर्द महसूस करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।

एक और महत्वपूर्ण बात है स्वयं को दूसरे समूहों के अमानवीकरण से बचाना। दूसरे शब्दों में, उनको अपनी तरह इन्सान  समझना। कई बार जब हम किसी को अपने से बहुत भिन्न पाते हैं तो उन्हें अपने जैसा इन्सान समझ पाना मुश्किल होता है। जैसे कोई दूसरे धर्म, जाति, रीति-रिवाज, शारीरिक बनावट, यौन वरीयता के लोग हमें अजीब लगते हैं और जानकारी के अभाव में हम उनके लिए कुछ अवधारणा बना लेते हैं। और जब भी हम दूसरों के विषय में एक नकारात्मक सोच बना लेते हैं तो हमारे लिए उनका पक्ष सुनना और समझना कठिन हो जाता है। इससे बचने का सहज तरीका है कि जब भी आप किसी को उसके तर्कों की बजाय उसके व्यक्तित्व, पहनावे या जीवनशैली की वजह प्रतिरोध झेलते देखें तो समझ जाएं कि यह अमानवीकरण है और इससे बचें। दूसरों के विचार हमेशा तर्क की कसौटी पर परखें, फिर मानें। और बार-बार नयी जानकारियों के आधार पर उन्हें परखते रहें कि क्या वो विचार अपनी सामयिकता या विश्सनीयता तो नहीं खो रहा।

अपनी समूह सदस्यता को उलझा लें अर्थात आप सामने वाले व्यक्ति के साथ अपना कोई न कोई साझा समूह ढूंढ लें। उसके बाद आप उस व्यक्ति के प्रति ‘इनग्रुप’ जैसा ही झुकाव महसूस करेंगे। जैसे अगर सामने वाला किसी अन्य धर्म या राज्य का है तो आप अपनी आर्थिक स्थिति में मेल ढूंढ सकते हैं या फिर उसका उसके प्रियजनों के प्रति लगाव या काम के प्रति समर्पण को अपनी भावनाओं के समान देख सकते हैं।

उपरोक्त तरीकों से हम अपने अन्दर सबके लिए सहानुभूति जगा सकते है। ये हमें एक बेहतर इन्सान बनने में मदद करेगा, साथ ही ये आपसी सामंजस्य को भी बढ़ाएगा। और हम विनाश की जगह प्रगति के मार्ग पर अग्रसर हो पाएंगे।


डॉ. भावना अंजली एक शोधकर्ता हैं। वह ‘चैरिटी ऐड फाउंडेशन, इंडिया’ के साथ एक सीनियर मैनेजर के रूप में कार्यरत हैं। कवर तस्वीर वेलकम कलेक्शन से साभार।


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