विधानसभा चुनाव के दौरान बिहार में घूमते हुए दिमाग में बार-बार एक सवाल आ रहा था कि राज्य की बदहाली, बेरोज़गारी का कोई रिश्ता यहां के भूमि-संबंधों के साथ है क्या।
विपक्षी पार्टियों के चुनावी एजेंडे को देखें, तो लगता है कि ज़मीन उनके लिए कोई मुद्दा है ही नहीं। बिहार के चुनावी घमासान का निचोड़ निकालने में जुटे विश्लेषकों को लगता है कि बेरोज़गारी यहां का इकलौता ऐसा मुद्दा है, जिसमें बिहार की सारी समस्याएं समायी हुई हैं। बेरोज़गारी ख़त्म, तो समस्याएं ख़त्म। इसके उलट हकीकत यह है कि राज्य की क़रीब 70 प्रतिशत आबादी आज भी भूमिहीन, ग़रीब या सीमांत किसान है और निचले तबकों की अच्छी-खासी आबादी के पास खेती के नाम पर एक इंच ज़मीन नहीं है।
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ऐसे में सवाल उठता है कि बिहार को क्या अब भूमि सुधार की ज़रूरत नहीं रही? जबकि आज़ादी के बाद से ही भूमि सुधार को लेकर यहां हुए तमाम आंदोलनों और संघर्षों के बावजूद भूमि वितरण के मामले में गैर-बराबरी पूर्ववत् क़ायम है? पिछले 20-25 साल में आये बदलावों के आलोक में इस सवाल की पड़ताल ज़रूरी जान पड़ती है कि बिहार में बेरोज़गारी-बदहाली का ज़मीन के साथ क्या रिश्ता है। इसका जवाब यह तो नहीं हो सकता कि रोज़गार के लिए पलायन तो राज्य के सभी तबकों में हुआ है।
यहां लंबे समय से काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि 1950 के बाद यहां कोई लैंड सर्वे नहीं हुआ। कुछ जानकार यह भी बताते हैं कि अगर व्यापक जांच पड़ताल की जाए तो पूरा बिहार बहुत बड़े ज़मीन घोटाले का गढ़ साबित होगा। जहां तक आम लोगों का सवाल है, लंबे समय बाद ज़मीन का एजेंडा उन्हें तब महसूस हुआ जब बीते मार्च में एक सनक भरा लॉकडाउन जनता पर अचानक थोप दिया गया।
जो खेतिहर मज़दूर पंजाब, महाराष्ट्र और पश्चिमी यूपी जाकर खेतों में काम करके आजीविका कमाते थे, वे वापस आकर अपने गांवों में फंसे रह गये। लॉकडाउन की पूरी अवधि में उन्हें दिहाड़ी नहीं मिली। कुछ जगहों पर लोग भुखमरी के कगार पर पहुंच गये। रोहतास ज़िले में महादलितों के एक गांव के लोगों ने बताया कि लॉकडाउन के साथ ही उनका राशन बंद हो गया। ये लोग शब्दशः भुखमरी के शिकार हैं।
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इन लोगों के पास अगर खेती की ज़मीन होती तो इस सरकारी महाविपत्ति का सामना करने में उन्हें आसानी होती। लॉकडाउन में बेरोज़गार घर बैठने के बजाय वे अपने खेतों से उपज हासिल कर रहे होते। यह दर्द अकेले महादलितों का नहीं है। रोहतास ज़िले की कराकाट विधानसभा क्षेत्र में अपेक्षाकृत संपन्न माने जाने वाले पासवान बहुल गांव की एक महिला ने बताया कि उनका बेटा मई में महाराष्ट्र से किसी तरह घर पहुंचा। ‘’वह तब से घर पर ही है, अगर थोड़ी बहुत खेती होती तो कम से कम उसी से कुछ उपजाते।‘’
बिहार में 90 प्रतिशत आबादी ग्रामीण है, जो कि देश के बाकी राज्यों के मुकाबले सबसे अधिक है। औद्योगीकरण होने के बजाय यहां उद्योगों का विघटन अधिक हुआ है। कुछ लोगों का मानना है कि बिहार को देश के अन्य औद्योगिक इलाक़ों के एक उपनिवेश के तौर पर पिछड़ा बनाये रखने के लिए उद्योगों को व्यवस्थित तरीक़े से नष्ट किया गया। यह राज्य लेबर सप्लाई मार्केट का एक प्रमुख केंद्र बना हुआ है और यहां की अर्थव्यवस्था मनी ट्रांसफ़र प्रधान है, जिसे पुरानी शब्दावली में मनीआर्डर इकोनॉमी कहा जाता था।
अतीत में कुछ कोशिशें हुई थीं उद्योग लगाने की, जैसे रोहतास ज़िले का डालमिया नगर, लेकिन आज वहां कारखानों का कब्रिस्तान बन चुका है। सासाराम में स्टोन क्रशर का बड़ा कारोबार था, लेकिन पर्यावरण पर उसके प्रभाव के चलते बंद कर दिया गया। अब वहां धर्म का धंधा फल-फूल रहा है। एक बड़ी आबादी जो मज़दूरी करके अपनी आजीविका चला सकती थी, वो फिर से ग्रामीण व्यवस्था में शामिल हो गयी। आबादी का दबाव लगातार बढ़ता ही जा रहा है। ज़ाहिर है, यह बोझ ग्रामीण अर्थव्यवस्था को ही झेलना था।
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रोहतास में काम करने वाले कम्युनिस्ट नेता कॉमरेड भोलाशंकर का मानना है कि ‘’पहले की तरह ज़मीन अब रही नहीं। एक-एक इंच ज़मीन पर दावेदारी, खेती, व्यवसाय का बोलबाला है। ज़मीन बंटवारे का मुद्दा नेपथ्य में चला गया है।‘’
भाकपा (माले-क्लास स्ट्रगल) के नेता अरविंद सिन्हा का मानना है कि ‘’भूमि के मालिकाने की प्रकृति में बदलाव आया है। अब जोतों का आकार उतना बड़ा नहीं है, इसीलिए अब वैसे आंदोलन भी नहीं हैं, लेकिन बिहार के लिए भूमि सुधार का मुद्दा अब भी अहम बना हुआ है। अभी भी लाखों एकड़ ज़मीन ऐसी है जिसे सरकार बांट सकती है।‘’
अगर याद हो, तो 2005 में नीतीश कुमार ने एक भूमि सुधार आयोग का गठन किया था- डी. बंदोपाध्याय भूमि सुधार आयोग। इस रिपोर्ट में बताया गया था कि 21 लाख एकड़ से अधिक सरकारी ज़मीन फालतू है, जिसे बांटा जा सकता है। रिपोर्ट में कहा गया था कि क़रीब साढ़े छह लाख एकड़ से भी ज़्यादा सरकारी ज़मीन का ठीक से वितरण नहीं किया गया है।
बंदोपाध्याय आयोग ने 2008 में अपनी रिपोर्ट नीतीश सरकार को सौंपी। नीतीश 2010 में दूसरी बार सत्ता में आए, लेकिन इस रिपोर्ट की सिफारिशों को उन्होंने ठंडे बस्ते में डाल दिया। दूसरा चुनाव उन्होंने सुशासन और सड़क के नाम पर जीता था।
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जब तीसरा चुनाव आया, तो उन्होंने फिर से वादा किया कि हर भूमिहीन को घर बनाने के लिए तीन डिसमिल ज़मीन दी जाएगी। बीजेपी के साथ गठबंधन के बाद यह वादा तो पूरा नहीं हुआ, बल्कि इसके उलट जिस ज़मीन पर भूमिहीन घर बनाकर रह रहे थे, वहां से उन्हें बेदखल करने का आदेश पारित हो गया।
कैमूर, भभुआ, रोहतास से लेकर भोजपुर, अरवल और पटना तक जहां-जहां हम पहुंच सके, सरकारी ग्रामसभा की ज़मीन पर किसी तरह घर बनाकर कर रहने वालों को घर ढहाने का नोटिस मिल चुका है। उनके पास कुल ज़मीन उतनी ही है जितने में उनका घर बसा है।
यहां तक कि भोजपुर के बथानी टोला में जिन परिवारों को मुआवज़े के तौर पर लालू यादव की सरकार ने सरकारी ज़मीन दी थी, उसे भी खाली कराने का नोटिस पहुंच गया है। रणवीर सेना ने 25 साल पहले इस दलित टोले पर हमला कर 21 लोगों की जान ले ली थी, जिसके बाद यह ज़मीन दी गयी थी।
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नीतीश के 2015 में किये तीन डिसमिल ज़मीन के वादे पर लोगों ने जब सरकार से सवाल किया, तो बिहार सरकार ने इसे काग़ज़ पर तीन से बढ़ा कर पांच डिसमिल कर दिया, हालांकि यह भी ढपोरशंख का वादा ही साबित हुआ।
अब नीतीश के तीन कार्यकाल के बाद चौथा चुनाव भी निपट चुका है और भूमि सुधार व वितरण का सवाल पूरी तरह नेपथ्य में चला गया है। कल आने वाले चुनाव परिणामों के बाद राज्य में बनने वाली नयी सरकार अगर तीन डिसमिल वादे को पूरा कर दे, तो क्या उसका अगला कार्यकाल सुनिश्चित नहीं हो जाएगा?
क्या नये नेतृत्व में इतनी इच्छाशक्ति होगी कि वह बंदोपाध्याय भूमि सुधार आयोग की सिफ़ारिशों को लागू करने की चुनौती स्वीकार करेगा? महज 10 लाख रोज़गारों के चुनावी वादे से कहीं ज्यादा बड़ा है यह सवाल, जिसे बिहार के संक्षिप्त चुनावी पर्यटन से कभी नहीं समझा जा सकता।