तिर्यक आसन: वह तीसरा आदमी कौन है, जो सिर्फ कविता से खेलता है?


वर्ष के अंत और नए वर्ष की शुरूआत में साहित्य जगत का भी लेखा-जोखा प्रस्तुत किया जाता है। कवियों, लेखकों की रचनाओं की समीक्षा की जाती है- अमुक के रूप में साहित्य की नई सम्भावना का उदय हुआ। अमुक कवि ने प्रभावी उपस्थिति दर्ज कराई। अमुक लेखक ने अपनी रचनाओं से नई बयार चलाई। अमुक उपन्यास ने नई चेतना का संचार किया।

वार्षिक लेखा-जोखा प्रस्तुत करने वाली साहित्य की एक अन्य ‘ब्रांच’ ने दावा किया- ‘इस वर्ष कविता का नया युग भी आया है’। कविता का नया युग लाने में एक-दूसरे की मिजाजपुर्सी और कविता की मातमपुर्सी करने वाले कवियों ने जी-तोड़ मेहनत की है। उनके द्वारा किया गया परिश्रम कविता ‘लाइक’ करने वालों की सूची में भी नजर आता है। कविता लाइक करने वाले नब्बे प्रतिशत कविता लिख रहे हैं। प्रकाशित हो रहे हैं। तुमने मेरी कविता पसंद की, लो मैं तुम्हारी करता हूँ। तुमने मेरी कविता पर वाह-वाह की, लो मैं तुम्हारी पर करता हूँ। तुम मुझे निराला कहो, मैं तुम्हें पंत। 

इधर एक कवि रहते हैं। वर्षों तक संग्रह के लिए कविता से संघर्ष करते रहे। संग्रह पूरा नहीं हो रहा था। अपने पड़ोस में रहने वाले एक पाठक को कविता सुनाते। पाठक खारिज कर देता। वे पाठक से नाराज हो जाते- कविता के बारे में जानते ही क्या हैं आप? कविता लिखकर बताने लगे- कविता ऐसी होती है। मैं कविता के बारे में इतना जानता हूँ। उस कवि की कविता सिर्फ चलती है। मेरी कैट वाक करते हुए चलती है। उस कवि की कविता सिर्फ भांगड़ा करना जानती है। मेरी कविता तो हिप हॉप भी कर लेती है। 

पाठक द्वारा कविता पर सवाल उठाने के बाद वे भावनाओं के बहाव में नई कविता लिखते- कविता ऐसी होती है। मैं कविता के बारे में सबसे अधिक जानता हूँ। पाठक को कविता के बारे में बताते। ‘मैं कवि हूँ’ साबित करते उनका संग्रह तैयार हो गया। संग्रह में मैं भी था। तुम भी था। नहीं थी तो बस कविता। पाठक ने उन्हें संग्रह की बधाई देने की औपचारिकता निभाई और पूछा- अगला संग्रह कब आएगा? कवि ने बताया- मैंने अपनी आत्मकथा पद्य के रूप में लिख दी। आत्मकथा और संस्मरण लिखने के बाद साहित्यिक सफर पूरा हुआ, ऐसा माना जाता है। आत्मकथा खुद को दी गई श्रद्धांजलि है। मरने के बाद खुद को श्रद्धांजलि नहीं दी जा सकती, तो जीवित रहते ही दे दी।   

कविता के बारे में मैं भी थोड़ा बताता चलूँ, भले ही वे खारिज कर दें- तुम आउट ऑफ डेटेड बात करते हो। कविता डिस्कोथेक में रीमिक्स हो रही है, तुम अभी वहीं अटके हुए हो। कविता की सबसे अच्छी परिभाषा सुदामा पांडेय ‘धूमिल’ की मानता हूँ- कविता भाषा में आदमी होने की तमीज़ है। तमीज़ ही थी जिससे धूमिल ने गुदाद्वार की देशज पर्यायवाची से मारक पटकथा लिख दी। धूमिल पर अधिक नहीं कहना है। अधिक कहने पर ‘मादा’ खटकने लगेगा। विषयांतर हो जाएगा। केंद्र धूमिल बन जाएंगे। जबकि उनसे सिर्फ भूमिका बनाने का काम लिया है।

कविता पर चर्चा के दौरान किसी ने कहा- कविता भावनाओं का बहाव है। कविता की ये परिभाषा भी मुझे समझ आई। समझ इसलिए आई, क्योंकि इससे मेरा काम बनता है। जिससे मेरा काम बनता है, वही समझ आता है। कविता की और भी परिभाषाएँ हैं। पर उनसे मेरा काम नहीं बनता है। इसलिए वे परिभाषाएँ मुझे समझ नहीं आतीं। भविष्य में अगर किसी और परिभाषा से मेरा काम बना तो उसका भी उल्लेख करूँगा। 

किसी परिभाषा या विचार आदि पर विश्वास तब जमता है, जब वो हमारे जीवन में या आस-पास घटित हो। इस अनुसार धूमिल की परिभाषा से मेरा विश्वास डगमगा गया है। इसीलिए धूमिल की परिभाषा से मेरा काम नहीं बनेगा। कविता भावनाओं का बहाव है, ये परिभाषा मेरे आस-पास के दैनिक जीवन में अक्सर घटित होती है। इससे अपना काम बनाता हूँ।

कविता बहुत सोच कर नहीं लिखी जाती। जब भावना की नदी बहती है, कविता की संरचना का रास्ता खुद बना लेती है। रास्ते में पड़ने वाले बिम्ब, शिल्प आदि बाधाओं के पत्थरों को तोड़ती अपनी मंजिल तक पहुँच जाती है। बाढ़ का रौद्र रूप धारण करने के बाद भी भावनाओं की नदी अति नहीं करती। अपने दायरे को सँभाले रखती है। गुदाद्वार के देशज पर्यायवाची के प्रयोग से भी आक्रोश का सौंदर्य पैदा कर देती है। आक्रोश का सौंदर्य प्राथमिकता पर निर्भर करता है। एक निरीह जब शक्तिशाली के सामने प्रतिरोध करता है, आँख में आँख डाल उसके सामने अड़ जाता है, इस आक्रोश में सौंदर्य होता है। साहस का आकर्षण होता है। वहीं जब एक शक्तिशाली, झुंड बनाकर किसी एक निरीह को कुचलता है, उसके आक्रोश में भोंडापन होता है। साहस में विद्रूपता होती है। खैर, कविता में ‘अतिक्रमण’ नहीं करना चाहता। अतिक्रमण के लिए आवश्यक भाषा के लच्छेदार सौंदर्य से वंचित हूँ। 

इधर एक कवि हैं। कविता रचने के उनके अंदाज से लगता है कि उनके पास जो भावनाओं की नदी है, वो हमेशा बाढ़ग्रस्त रहती है। वे नदी के आक्रोश को सँभाल नहीं पाते। सँभालने के लिए नदी पर बाँध बना दिया है। बाँध अत्याधुनिक तकनीकी से निर्मित है। स्वचालित है। बायें कान में पेन डालते हैं, तो बाँध के फाटक खुल जाते हैं। भावनाएँ शोर मचाते, उफनते हुए बहने लगती हैं। दाहिने कान में पेन डालते हैं, तो बाँध के फाटक बंद हो जाते हैं। भावनाएँ सूख जाती हैं। 

एक सुबह उन्होंने बायें कान में पेन डाली। बाँध का फाटक खुला। भावना बही। कविता बाहर आई। एक पंक्ति के बाद दाहिने कान में पेन डाल फाटक बंद कर दिया। आलमारी से एक मोटी किताब निकाली- कविता कैसे लिखें। फाटक खुलने से निकली कविता की एक पंक्ति को ‘कविता कैसे लिखें’ की कसौटी पर कसना शुरू किया। तीन-चार घंटे की काँट-छाँट कर उसे ‘कविता कैसे लिखें’ के निर्देशों पर खरा उतार दिया। फिर ‘कविता कैसे लिखें’ को वापस आलमारी में रख दूसरी पंक्ति के लिए दाहिने कान में पेन डाल दी। ये कवि दूसरी पंक्ति को भी कविता कैसे लिखें की कसौटी पर कसेंगे।

साम्राज्यवाद की बाढ़ आई। उनकी भावनाओं का फाटक खुला। एक पंक्ति आई। आलमारी से………। साम्राज्यवाद की बाढ़ सब कुछ तबाह कर चली गई, तब उनकी भावनाओं ने कविता का रूप धरा। शीर्षक- बाढ़ आई है। इनकी भावनाएँ कविता का सौंदर्य पाने में बहुत समय लगाती हैं। दूसरे कवि के पास चलते हैं। उनकी भावनाओं का फाटक हमेशा खुला ही रहता है। लप्प-लप्प कविता उत्पादित करते हैं। 

उनकी कविता पढ़ता हूँ, तो लगता है अनुवाद पढ़ रहा हूँ। जिसके अनुवादक स्वचालित फाटक वाले कवि हैं। हालाँकि ऐसा है नहीं। उनके मूल को अनुवादित समझ लेता हूँ, इसमें उनका क्या दोष? दोष मेरी समझ का है। जिससे काम बनता है, उसे पता नहीं क्या-क्या समझ लेती है।

हिंदी वर्णमाला के सभी स्वर और व्यंजनों का थैला उनके पास है। अपने लड़कपन के दिनों में होली के दौरान वे अपने झोले (स्कूल बैग) में आलू रखते थे। बीच से कटे आलू पर उल्टा चोर लिखा रहता था। चोरी से वे किसी की पीठ पर आलू से बनी मुहर मार देते थे। फिर किसी के कान में चोरी से प्राप्त की गई अपनी उपलब्धि बताते- उसकी शर्ट पर चोर लिखा है। 

उनके प्रौढ़ होने के साथ झोले की समझ भी बढ़ी। वो थैला हो गया। थैले में वे अपनी प्रौढ़ावस्था के सबूत लेकर चलते हैं। उनके थैले में रखे स्वर और व्यंजन प्लास्टिक के बने हैं। जैसे आँगनबाड़ी केंद्र पर मिलते हैं। उनको भी आँगनवाड़ी केंद्र पर ही मिले थे। 

वे बच्चों से बेहद प्रेम करते हैं। बच्चों का प्रेम उन्हें आँगनबाड़ी केंद्र खींच ले जाता है। वहाँ बच्चों के बीच वे भी बच्चा बन जाते हैं। बच्चों के साथ खेलते हुए वे अपना थैला खोलते हैं। स्वर और व्यंजन बिखेर देते हैं। बच्चे स्वर और व्यंजन के साथ खेलने लगते हैं। एक निश्चित समय के बाद वे सभी बच्चों को ‘स्टैच्यू’ बोल देते हैं। फिर बारीकी से बिखरे हुए स्वर और व्यंजनों में बिम्ब, शिल्प और सौंदर्य खोजते हैं। उसे कागज पर कविता का रूप देते हैं। कागज पर कविता के रूप में उतारने के बाद वे ‘स्टैच्यूज’ को अगले दिन तक की छुट्टी दे देते हैं। कविता लिखना उनके लिए बच्चों का खेल है। वे स्वच्छंद छंद के क्रांतिकारी कवि हैं। 

इन दोनों कवियों और उनके पर्यायवाचियों ने धूमिल की परिभाषा पर कायम मेरे विश्वास को डगमगा दिया है। फिर भी उनकी कविता पर मेरा विश्वास जमा हुआ है- एक आदमी रोटी बेलता है, एक आदमी रोटी खाता है, एक तीसरा आदमी भी है, जो न रोटी बेलता है, न रोटी खाता है, वह सिर्फ रोटी से खेलता है, मैं पूछता हूँ यह तीसरा आदमी कौन है? मेरे देश की संसद मौन है।

कोई मुझे बताएगा- वह तीसरा आदमी कौन है, जो सिर्फ कविता से खेलता है?



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