तन मन जन: COVID-19 के बीच ग्‍लोबल वार्मिंग के खिलाफ़ अपनी इम्‍यूनिटी बढ़ा रहे हैं वायरस


कोरोना वायरस संक्रमण का कहर कब तक जारी रहेगा कहना मुश्किल है। इस संक्रमण की आड़ में दुनिया की अर्थव्यवस्था भी हिली हुई है। भारत में आर्थिक मंदी के लक्षण दिखने लगे हैं। विकास की रफ्तार न केवल थम गयी है बल्कि नकारात्मक चल रही है। पहले से चले आ रहे रोगों के और जटिल होने के संकेत मिल रहे हैं और नये रोग भी दस्तक दे रहे हैं। ऐसे में दुनिया में वैश्विक तापमान बढ़ने (ग्लोबल वार्मिंग) से कई नये वायरसों के उत्पन्न होने की आशंका बढ़ गयी है।

अमरीकन केमिकल सोसाइटी ने हाल ही में एक महत्त्वपूर्ण शोध निष्कर्ष जारी किया है। यह शोध ‘‘एन्वायरोन्मेन्टल साइंस एण्ड टेक्नोलॉजी जर्नल’’ में प्रकाशित हुआ है। अध्ययन का निष्कर्ष है कि वायरस गर्मी के प्रति अपनी प्रतिरोधी क्षमता को विकसित कर रहे हैं और वे प्रभाव में पहले से ज्यादा घातक हो रहे हैं। इसका असर इन्सानी जिन्दगी पर पड़ेगा। स्विस वैज्ञानिकों के इस अध्ययन के अनुसार पानी में पनपने वाले वायरस जो बढ़ते तापमान में रहने योग्य बन जाते हैं, वे लम्बे समय तक रोगों को फैला सकते हैं। इन पर क्लोरीन जैसे कीटाणुनाशकों का भी असर नहीं होता। उल्लेखनीय है कि पानी के जीवाणुओं को खत्म करने के लिए पानी में क्लोरीन मिलायी जाती है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) के आंकड़ों के अनुसार आज भी दुनिया में 2 अरब लोग दूषित पानी का उपयोग करने को मजबूर हैं। इसकी वजह से डायरिया, पेचिश, टायफाइड, हैजा, पोलियो जैसी बीमारियां फैलती हैं। डब्लूएचओ का अनुमान है कि हर साल कोई 4,85,000 लोग डायरिया की वजह से मौत के मुंह में समा जाते हैं। इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं ने एन्टेरोवायरस की जांच की तो पाया कि वातावरण में तापवृद्धि के कारण यह वायरस अपने को ज्यादा अनुकूल बनाते जा रहे हैं। यह वायरस शहर की नालियों, गन्दे पानी तथा गन्दगी में आसानी से पनपते हैं।

पाठकों की जानकारी के लिए यहां बता दें कि ये एन्टेरोवायरस आरएनए वायरस के अंश हैं जिनके कारण सर्दी, जुकाम, पोलियो, हेपेटाइटिस ए (पीलिया), फुट एण्ड माउथ डिजीज़ जैसी बीमारियां हो सकती हैं। यह वायरस आमतौर पर मनुष्य के पाचन तंत्र में होता है जो सेन्ट्रल नर्वस सिस्टम से होता हुआ शरीर के अन्य अंगों में भी पहुंच सकता है। शोधकर्ताओं के अनुसार जब वायरस एक बार गर्म वातावरण को अपना लेते हैं, तो वे आसानी से गर्मी में निष्क्रिय नहीं होते। ऐसे में जब वे ठंडे वातावरण में जाते हैं तो भी वे लम्बे समय तक सक्रिय बने रह सकते हैं और उन पर क्लोरीन जैसे कीटाणुनाशकों का भी असर नहीं होता।

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यहां मैं एक जरूरी बात आपसे बताना चाहूंगा। कोरोना वायरस संक्रमण से उबर चुके लोगों को लेकर जो अध्ययन और जानकारियां आ रही हैं वह भी चिंताजनक है। कोविड-19 से ठीक हो चुके लोग अब एक दो महीने बाद ही शरीर में दर्द, खांसी, गले में खराश, सांस लेने में परेशानी जैसी शिकायतें कर रहे हैं। भारत में केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने अभी 13 सितम्बर 2020 को कोविड-19 से ठीक हुए लोगों के लिए एक प्रोटोकॉल जारी किया है जिसमें कहा गया है कि व्यक्तिगत स्तर पर लोग अपने शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के लिए आयुष के विशेषज्ञ चिकित्सकों की मदद से हर्बल व जड़ी बूटियां आदि का नियमित सेवन करते रहें। प्रोटोकॉल में योग, ध्यान, व्यायाम आदि के सहारे इम्यूनिटी बढ़ाने की सलाह है।

भारत में ग्लोबल वार्मिंग के खतरनाक परिणामों की आशंका ज्यादा है क्योंकि एनवायरनमेंट परफॉरमेंस इन्डेक्स 2020 में 180 देशों में भारत का क्रम 168वां है। येल एवं कोलम्बिया विश्वविद्यालय द्वारा जारी एक रिपोर्ट में भारत की स्थिति बेहद चिंताजनक है। इसकी वजह से यहां की जनता को कई दिक्कतें झेलनी पड़ सकती हैं, मसलन स्वास्थ्य समस्याएं तथा खाद्य व पोषण सम्बन्धी दिक्कतों के और गम्भीर होने की आशंका है। इसके पहले देश के पर्यावरण पर एक और रिपोर्ट ‘‘स्टेट ऑफ इन्डियाज़ एनवायरनमेंट-2020’’ आ चुकी है। इसे भारत के ‘‘सेन्टर फार साइंस एण्ड एनवायरनमेंट’’ (सीएसई) नामक संस्था ने जारी किया है। इसमें साफ कहा गया है कि भारत में गर्वनेन्स की स्थिति बदतर है जिसकी वजह से यहां की हवा, पानी गुणवत्ता, जैव विधिता, जलवायु परिवर्तन जैसे मुद्दे न तो सरकार की प्राथमिकता सूची में हैं और न ही जनता इसके लिए चिंतित है। रिपोर्ट में भारत को पर्यावरण से जुड़े सभी प्रमुख पांच मापदण्डों पर क्षेत्रीय औसत से भी कम अंक मिले हैं।

कोविड-19 संक्रमण ने भारतीय व्यवस्था की पोल खोल रख दी है। स्वास्थ्य और पर्यावरण से सम्बन्धी व्यवस्था की हालत इतनी खस्ता है कि यह सब अब जगजाहिर हो चुका है। शासक वर्ग की निजी महत्वाकांक्षा एवं मानव विकास को लेकर उनकी संकीर्ण मानसिकता ने स्पष्ट कर दिया है कि शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, आजीविका आदि से भी ज्यादा उनके लिए मन्दिर, पुतले, जाति, धर्म आदि के ज़हरीले मुद्दे ही महत्त्वपूर्ण हैं।

कोविड-19 संक्रमण ने दुनिया में कहर तो बरपाया ही है कि लेकिन यह मानवता, शासक और व्यवस्था के लिए एक सबक भी है। आपदा को मजाक समझकर हल्के में लेने वाले हमारे शासकों का दिमागी दिवालियापन भी देश ने देखा जब अस्पताल की व्यवस्था को मजबूत करना था तब हम मन्दिर, दंगे और एनआरसी, सीएए में व्यस्त थे। लोगों के स्वास्थ्य की चिंता के बजाय हम अपनी राजनीति कर रहे थे। परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे कोविड-19 संक्रमण ने कम्यूनिटी प्रसार का रास्ता अख्तियार कर लिया और पूरे देश में संक्रमण के मामले बढ़ने लगे। आंकड़े बढ़े और मौत की रफ्तार भी बढ़ी। लॉकडाउन ने लोगों को कंगाल बना दिया और बदहाल स्वास्थ्य व्यवस्था ने उनके जीने की उम्मीदें तोड़ दीं। मीडिया अपवाहों और झूठी खबरों का गटर बन गया। हालात इतने खराब हो गये कि लोग मानवता, सामाजिकता, सहकारिता, सेवा जैसी बातों के सहारे चलते तो रहे लेकिन अपनी सरकार के दोगलेपन से दुखी होकर भी कथित देशभक्ति, देशद्रोही का खेल खेलते रहे। शासक वर्ग भी इसी को अपनी कामयाबी मानकर स्वयं अपनी पीठ थपथपाता रहा। अब जब हालात खराब हैं, करोड़ों युवा नौकरी चले जाने और बेरोजगार नौकरी न मिलने की कसक के साथ निराशा में जी रहे हैं तब चिंता और बढ़ जाती है।

कोविड-19 के इस चिंताजनक दौर में एक और खतरे की चेतावनी आयी है। वह यह है कि हिमालय में मौजूद जियोथर्मल स्प्रिंग्स बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑइक्साइड को वातावरण में छोड़ रहे हैं। इससे वहां के स्थानीय वातावरण तथा वैश्विक जलवायु पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है। वाडिया इन्स्टीच्यूट ऑफ हिमालयन जियोलॉजी (डब्लूआइएचजी) द्वारा किये एक शोध के अनुसार हिमालय में मौजूद जियोथर्मल स्प्रिंग से वायुमंडल में 7.2 गुणा 106 एचओएल प्रतिवर्ष की दर से कार्बन डाइआइक्साइड का उत्सर्जन हो रहा है।

यह अध्ययन वैज्ञानिक शोध जर्नल ‘‘एन्वायरनमेन्टल साइन्स एण्ड पॉल्यूशन रिसर्च’’ में प्रकाशित हुआ है। उल्लेखनीय है कि वाडिया इन्स्टीच्यूट ने हिमालय के गढ़वाल क्षेत्र में लगभग 10,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में स्थित जियोथर्मल स्प्रिंग्‍स का अध्ययन किया है। मई 2020 में यह आंकड़ा 417.1 पीपीएम पर था। इससे कई बीमारियों के बढ़ने का अंदेशा है। खासकर श्वास सम्बन्धी रोगों के और जटिल होने का खतरा ज्यादा है।

डब्ल्यूएचओ ने सन् 2018 में 10 रोगों की एक ऐसी सूची तैयार की थी जो महामारी उत्पन्न कर सकते हैं। ये सभी वायरल बीमारियां हैं। जीका, इबोला, सार्स, कोरोना जैसे वायरसों के अलावा इस सूची में एक अज्ञात वायरस एक्स का भी जिक्र है। यह एक्स भी कोविड-19 की तरह ही खतरनाक है।

नीदरलैंड के इरास्मस यूनिवर्सिटी मेडिकल सेन्टर के वायरोलाजी विभाग की अध्यक्ष मैरियन कूपमैस जर्नल में लिखती हैं कि यह कोविड-19 डिजीज़ एक्स श्रेणी में फिट बैठता है। बहरहाल, जलवायु परिवर्तन के दौर में डिजीज़ एक्स (कोविड-19) का खतरनाक संक्रमण कई सवाल खड़े करता है। शोधकर्ता ने यह भी कहा था कि यह वायरस एक प्रकार का ज़ूनोटिक वायरस है। ज़ूनोटिक यानि जानवरों से मनुष्य में आया वायरस।

यूनिवर्सिटी ऑफ हांगकांग के वैज्ञानिकों ने चिंता व्यक्त की है कि हमारे पास वायरसों से बचने के व्यक्तिगत सुरक्षात्मक उपाय जैसे फेसमास्क, हाथ की स्वच्छता, भौतिक दूरी आदि एन्फ्लूएन्जा या वायरस के प्रसार को कम करने में मदद नहीं करते। वायरसों के बढ़ते खतरे के बावजूद हमारे पास वैश्विक निगरानी की व्यवस्था नहीं है जो सम्भावित महामारी के उद्भव या प्रसार पर नजर रख सके।

सन् 2018 में डब्लूएचओ ने एक प्रोजेक्ट लांच किया था जिसमें अगले 10 वर्षों में सभी जगहों को मिलाकर एक ग्लोबल एटलस विकसित करने की बात है जहां प्राकृतिक रूप से जूनोरिक वायरस पाये जाने की सम्भावना है। आज दुनिया में कोई 260 ऐसे खतरनाक वायरसों की जानकारी हमारे वैज्ञानिकों को है जो कोविड-19 की तरह मनुष्यों को संक्रमित कर परेशान करने की क्षमता रखते हैं। यह सम्भावित जूनोरिक वायरसों का महज 0.1 फीसद ही है। यानि दुनिया अभी भी 99.9 फीसद सम्भावित जूनोरिक वायरसों से अनभिज्ञ है।

दुनिया भर के वैज्ञानिक विगत कई वर्षों से बढ़ते ग्लोबल वार्मिंग और इसके खतरों की चेतावनी दे रहे हैं। जलवायु परिवर्तन पर इन्टरगवर्मेन्टल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आइपीसीसी) की ताजा रिपोर्ट कहती है कि अगले 10 वर्षों में (2030 तक) उठाये गये कदम ही यह तय करेंगे कि दुनिया में असामान्य मौसम और आपदाओं से हम बचेंगे या उसके चंगुल में फंसते जाएंगे। अमीर देशों के पास जलवायु परिवर्तन के खतरों से लड़ने के लिए धन और संसाधनों की कमी नहीं है लेकिन भारत समेत तमाम विकासशील और गरीब देशों के लिए यह चिंता का विषय है।

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आइपीसीसी की यह रिपोर्ट 40 देशों के 200 से ज्यादा वैज्ञानिकों ने तैयार की है जिसे 1000 से ज्यादा वैज्ञानिकों ने रिव्यू किया है। जलवायु परिवर्तन की सबसे बड़ी चिन्ता लगातार बढ़ती प्राकृतिक आपदाओं की वजह से तबाह अर्थव्यवस्था और उससे सबसे पहले प्रभावित होनेवालों में दुनिया के 4 अरब गरीब लोग हैं जो किसी भी तरह से अपना जीवन चला रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग ने न केवल आर्थिक बल्कि स्वास्थ्य पर मंडराते खतरे को और बढ़ा दिया है। भारत सहित अन्य विकासशील देशों में रह रहे 80 फीसद मेहनतकश लोगों को इस आपदा के भावी संकटों से बचाने के लिए स्वयं को तैयार करना पड़ेगा। अब सरकारों या अमीर लोगों की राहतों से गुजारा नहीं हो पाएगा क्योंकि संकट बड़ा है और सरकार तथा पूंजीपतियों की नीयत में खोट है। समय रहते नहीं संभले तो बहुत देर हो जाएगी और तिल-तिल कर मरने के सिवा और कोई चारा नहीं बचेगा।


लेखक जन स्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं


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