चीन के वुहान से जब यह खबर निकली कि कोरोना संक्रमण अब बेकाबू हो चला है तब महामारी और जैविक हथियार आदि का खेल खेलने की हैसियत रखने वाले कथित शक्तिशाली देश भी खुद को संभाल नहीं पाए। यह शायद उनका ओवरकान्फिडेन्स रहा होगा लेकिन इस वैश्विक सत्ता शीर्ष के पिछलग्गू देशों का नेतृत्व भी मस्त रहा। शायद इस उम्मीद में कि, “वो हैं न, सब संभाल लेंगे।”
इस ओवरकान्फिडेन्स का खामियाजा विश्व शक्ति का घमण्ड पाले अमरीका को जितना उठाना पड़ा उससे पूरी दुनिया अचम्भित है। उसके छुटभैये देश की सरकारों का तो वे ही जानें लेकिन जनता न तो रो पा रही है और न ही खुल कर अपना विरोध दर्ज कर पा रही है। सरकार समर्थित मीडिया कोरोना संक्रमण से निबटने के लिए सरकार की ऐसी वाहवाही कर रहा है मानो सरकार ने सचमुच रामराज स्थापित कर दिया हो। देश की अधिकांश जनता बदहाल, परेशान और ग़म में है। वह अपने गुस्से को भी प्रकट नहीं कर पा रही। बेहाली, भूख और भविष्य की चिंता में डूबी देश की 70 फीसद से ज्यादा आबादी खौफ़ज़दा है और किसी तरह लॉकडाउन खुलने के इन्तज़ार में है।
यह जानना बेहद जरूरी है कि कोरोना संक्रमण के नाम पर देश में सामाजिक, राजनीतिक स्तर पर क्या क्या खेल हुए और उससे समाज और देश का कितना नुकसान हुआ। इस संक्रमण से हुए आर्थिक नुकसान के अनुमान पर मैं पहले लिख चुका हूं। यहां हम इसके सामाजिक, राजनीतिक पहलू पर चर्चा करेंगे। यह चर्चा इसलिए जरूरी है कि कोरोना संक्रमण के दौर में जो राजनीतिक पहलकदमी हुई उसके दूरगामी असर होंगे।
प्राध्यापक प्रो. फैसल देव जी ने अंग्रेजी के एक अखबार द हिन्दू में लिखे अपने लेख में सत्तर साल पहले उपजे अराजक के बारे में बताया है कि जब हिंसा का इतिहास आजादी के विचार को अपने साये में ले लेता है, तब या तो उसके नाम पर आजादी का बलिदान किया जा सकता है या उसे अधकचरा अथवा पिछड़ा बने रहने दिया जा सकता है। भारत का विभाजन साम्प्रदायिक निष्ठा की शक्ति का प्रदर्शन और उसी की जीत थी क्योंकि इसमें हिन्दुओं और मुसलमानों ने स्वेच्छा से अपने पड़ोसियों को त्याग दिया था। इस विभाजन में विश्वासघात बेहद अहम था। आज भी हिन्दू-मुसलमान, अमीर-गरीब के बीच विभाजन को सत्ता ने स्पष्ट कर दिया है। किसी भी देश में नागरिकों का पारस्परिक सम्बन्ध न तो प्रेम से परिभाषित होता है और न ही नफरत से। यह परिभाषित होता है उदासीनता से। सांस्कृतिक या धार्मिक एकता की तड़प और विश्वासघातियों का शिकार देश की एकता को महज जोखिम में ही डालेगा।
कोरोना संक्रमण के प्रसार की रोकथाम के लिए 20 मार्च को प्रधानमंत्री ने एक दिन के लिए जनता कर्फ्यू के बहाने लॉकडाउन का जायजा ले लिया था। फिर 24 मार्च को अचानक देश के लम्बे समय के लिये लॉकडाउन की घोषणा कर दी गयी। देश जानता है कि लगभग 30 से 40 करोड़ लोग देश में रोजगार और अन्य कारणों की वजह से अपने घर, गांव, शहर, प्रदेश और देश से बाहर रहते हैं। उन्हें अपने स्थान पर लौटने के लिए पांच छह दिन तो चाहिए ही थे लेकिन महज चार घंटे की मोहलत देकर प्रधानमंत्री ने जो लॉकडाउन घोषित किया उसकी वजह से हजारों लोग विदेश में फंसे रह गये। करोड़ों लोग देश के विभिन्न हिस्से में ही रोक दिये गये। कुछ लाख मजदूर लॉकडाउन में जीवन की दुश्वारियों का अन्दाजा लगाकर पैदल ही हजार-डेढ़ हजार किलोमीटर का सफ़र तय कर घर पहुंचने की जिद में निकल लिए। कुछ रास्ते में ही ढेर हो गये तो कुछ बीमार पड़ गये। कुछ भूख से मरे तो कुछ ने आत्महत्या कर ली।
24 मार्च को लॉकडाउन की घोषणा के बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) ने भी अपनी सफाई दी की उसने भारत को इस लॉकडाउन के लिए कोई अपील या चेतावनी जारी नहीं की थी। यह सवाल अब भी जवाब के इन्तजार में है कि बिना किसी पूर्व तैयारी या विपक्ष से सलाह मशविरा के प्रधानमंत्री को ऐसी क्या जरूरत आ पड़ी कि अचानक देश में लॉकडाउन करना पड़ा।
आज न तो सशक्त विपक्ष है और न ही जनपक्षीय मजबूत मीडिया, जो सरकार से यह पूछ सके कि एक अनाड़ी की तरह उसने लॉकडाउन की जानलेवा घोषणा क्यों की जिसमें सैकड़ों जानें गयीं और लाखों लोग परेशान हुए। हाँ, लॉकडाउन के दौरान मध्य प्रदेश में कमलनाथ की सरकार गिराकर शिवराज चौहान को सत्ता सौंपना, पश्चिम बंगाल में ममता सरकार पर दबाव बनाना, महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की विधानसभा सदस्यता जैसे कई राजनीतिक मामले हैं जिसमें भाजपा को एकतरफा फायदा था और भाजपा ने इस लॉकडाउन में यह फायदा लेने की पूरी कोशिश भी की। सीएए/एनआरसी के खिलाफ देश में चल रहे प्रतिरोध का प्रतीक बने शाहीन बाग के कुछ मुस्लिम चेहरों को कानूनी दांव में फंसा कर जेल में डालने, उत्तर पूर्वी दिल्ली में हुई हिंसा में बड़े पैमाने पर मुसलमानों को नामजद करने आदि में दिल्ली पुलिस की अतिरिक्त सक्रियता से भी स्पष्ट है कि केन्द्र सरकार ने अपने राजनीतिक मकसद से भी लॉकडाउन का उपयोग किया।
लॉकडाउन का तीसरा चरण अगले हफ्ते समाप्त हो जाएगा लेकिन तब कोरोना संक्रमण के मामले अपने पूरे शबाब पर होंगे और सम्भवतः देश में संक्रमित लोगों का आंकड़ा एक लाख को पार कर चुका होगा। लगभग पचास दिनों के लॉकडाउन के बाद इसे हटाना सरकार की मजबूरी होगी लेकिन तब यह सवाल भी मुखर होगा कि जिस महामारी से नियंत्रण के लिए देश में लॉकडाउन किया गया था वह तो और बड़े पैमाने पर फैल गयी। तब लॉकडाउन की विफलता पर पहल होगी और लॉकडाउन के दौरान किये गये सरकारी पहल पर भी चर्चा होगी। इस पूरे दौर में देश की राजनीति में कोरोना संक्रमण बनाम मोदी को ही मीडिया ने फोकस किया मगर हालात ने कुछ और तस्वीरें चेंप दीं, जैसे प्रवासी मजदूरों की बदहाली, उनकी घर वापसी की त्रासदी, कई मजदूरों की घर लौटते मौत, कोरोना संक्रमण के लिए मुसलमानों के तबलीगी जमात को बदनाम करना, इस दौरान इलाज में मुसलमानों से भेदभाव, आदि।
यह समझना मुश्किल नहीं है कि इस वायरस संक्रमण से बचने का जो नुस्खा लॉकडाउन के रूप में सुझाया गया था वह सवालों के घेरे में है। भारत की परिस्थितियां और यहां के लोगों की जीवनशैली में लगभग दो महीने का एकान्तवास कोई परिणाम दिखा पाएगा ऐसा मुझे तो भरोसा नहीं था। मैंने 5 अप्रैल को लिखे अपने लेख में यह स्पष्ट किया था कि कोरोना संक्रमण से निबटने के लिए लॉकडाउन से इतर कुछ दूसरे उपाय सोचे जाने चाहिए, मसलन रैपिड टेस्टिंग, प्रभावी सर्विलान्स एवं संक्रमण, प्रभावित जगहों पर स्थानीय लॉकडाउन। कई देशों ने ऐसा किया भी। खुद चीन ने उपरोक्त तरीके से ही अपनी अर्थव्यवस्था भी बचाई और बीमारी से भी बचा।
अब तो साफ है कि भारत में लॉकडाउन कोई खास असर नहीं दिखा पाया। हमने अन्तर्राष्ट्रीय तर्कों व नकल के आधार पर अपनी लॉकडाउन योजना बनाई। मसलन हमारा सांप भी न मरा और लाठी भी टूट गयी। लॉकडाउन का यहां के उद्योग, व्यापार, मजदूर, कर्मचारी सब पर बुरा प्रभाव पड़ा। एक तरह से देश की अर्थव्यवस्था ही बैठ गयी। अब भी लॉकडाउन−3 के बाद संक्रमण का आंकड़ा तो बढ़ ही रहा है लेकिन मृत्यु दर कम होने की वजह से थोड़ी राहत महसूस की जा सकती है। सरकार को चाहिए कि वह लॉकडाउन की अपनी नीति की समीक्षा करे और इसमें परिवर्तन लाए। इतना लम्बे समय तक लॉकडाउन देश को गहरे कुंए में धकेल देगा। फिर देश को भयावह आर्थिक और मानवीय तबाही से बचाना मुश्किल होगा।
लेखक जनस्वास्थ्य वैज्ञानिक एवं राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त होमियोपैथिक चिकित्सक हैं