क़रीब डेढ़ साल पहले देश की बड़ी और प्रभावशाली केंद्रीय ट्रेड यूनियनों में से एक के महासचिव ने एक निजी बातचीत में कुछ विजयी भाव से कहा था कि “नरेंद्र मोदी की सरकार भले ही चोर दरवाज़े से श्रम क़ानूनों में बदलाव कर रही हो लेकिन अभी केंद्रीय श्रम क़ानूनों पर हाथ लगाने की उसकी हिम्मत नहीं हुई है।“
अपने पहले कार्यकाल में मोदी सरकार बीजेपी शासित राज्यों में धीरे-धीरे श्रम क़ानूनों को निष्प्रभावी करने में जुटी हुई थी। राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, उत्तराखंड, असम जैसे राज्यों में कंपनियों को हायर एंड फ़ायर की छूट दे दी गयी थी।
उस समय केंद्रीय ट्रेड यूनियनों को लग रहा था कि राज्य के स्तर पर श्रम क़ानून में बदलाव हो रहे हैं तो सत्ता जाने के बाद इन्हें पलटा भी जा सकता है, जब तक केंद्रीय स्तर पर कोई बदलाव नहीं होता है।
बीते शनिवार को आखिरकार श्रम मंत्री संतोष गंगवार ने ट्रेड यूनियनों के भारी विरोध के बीच संसद में तीन श्रम संहिताएं (लेबर कोड) पेश कर दीं।
मोदी सरकार जब प्रचंड बहुमत से दोबारा सत्ता में आयी तो ये स्पष्ट हो चुका था कि श्रम क़ानूनों में तोड़-मरोड़, जिसे थोड़ा सभ्य दिखाने के लिए ‘सुधार’ का नाम दिया जाता है, उसकी पहली प्राथमिकता रहेगी।
आशंका के मुताबिक मोदी सरकार ने इसमें रत्ती भर भी देरी किये बिना 44 श्रम क़ानूनों को ख़त्म कर 4 लेबर कोड में रूपांतरित करने का ख़ाका बना डाला। इसमें वेज कोड ऑन लेबर पिछली बार ही बिना बहुत हो-हल्ले के पास भी हो चुका है।
बाकी तीन लेबर कोड बिल- इंडस्ट्रियल रिलेशन कोड, कोड ऑन सोशल सिक्योरिटी और ऑक्युपेशनल सेफ्टी, हेल्थ एंड वर्किंग कंडीशंस कोड को स्टैंडिंग कमेटी के पास भेजा गया था और मामूली रद्दोबदल के साथ वो अब सीधे लोकसभा में प्रवेश कर चुके हैं।
सत्तापक्ष के संख्याबल के आधार पर यह लोकसभा में पास हो जाएगा और राज्यसभा में भी सरकार की जैसी नीयत है, ध्वनिमत से इसके पारित होने की पूरी आशंका है- उसी तरह जैसे किसान संगठनों के भारी विरोध के बावजूद कृषि अध्यादेश पारित करा लिए गये।
इन लेबर कोड या श्रम संहिताओं के आने से श्रम क़ानूनों को लेकर पूंजीपति वर्ग पर जो नाम मात्र की जवाबदेही-ज़िम्मेदारी थी, वो भी ख़त्म हो जाएगी। मसलन, अब हड़ताल करना पहले की बनिस्बत अधिक मुश्किल हो जाएगा, नई ट्रेड यूनियन बनाना कठिन तो हो जाएगा ही, मौजूदा ट्रेड यूनियनों की मान्यता रद्द करने का अधिकार भी सरकार के पास आ जाएगा।
जो श्रम क़ानून पहले बने थे, वो ख़त्म हो जाएंगे। मसलन, इम्प्लाई स्टेट एंश्योरेंस क़ानून, पीएफ़ एक्ट, कंपनसेशन एक्ट, मैटर्निटी बेनेफ़िट ऐक्ट, ग्रेच्युटि एक्ट, असंगठित क्षेत्र के वर्करों के लिए सामाजिक सुरक्षा एक्ट, निर्माण मज़दूरों के कल्याण के लिए वर्कर्स वेलफ़ेयर सेस एक्ट, बीड़ी वर्कर वेलफ़ेयर सेस एक्ट, आयरन ओर माइंस, मैग्नीज़ ओर माइंस और क्रोम ओर माइंस वेलफ़ेयर फंड एक्ट, माइका माइंस लेबर वेलफेयर सेस एक्ट, लाइमस्टोन एंड लोटोमाइट माइंस लेबर वेलफेयर फंड एक्ट और सिने वर्कर्स वेलफ़ेयर फंड एक्ट, आदि।
ईपीएफ़ओ पर भी भारी संकट है, जो सोशल सिक्योरिटी कोड के तहत कर्मचारियों के पीएफ़ और पेंशन को संभालता है। ईपीएफ़ओ का कितना बड़ा फंड है, इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि 2019-20 में नियोक्ता और कर्मचारी के हिस्से से एक लाख 63 हज़ार करोड़ रुपये इकट्ठा हुए थे। (फ़ाइनेंशियल एक्सप्रेस की रिपोर्ट)
ट्रेड यूनियनों का आरोप है कि लेबर कोड असल में बंधुआ मज़दूरी का दस्तावेज़ है और महामारी के समय में मज़दूर वर्ग की मदद करने के बजाय मोदी सरकार इसका फ़ायदा उठाने की कोशिश में है।
ट्रेड यूनियनें इसका विरोध करने में हालांकि खुद को असहाय पा रही हैं। लॉकडाउन ख़त्म होते ही देशव्यापी प्रदर्शन आयोजित हुआ। मज़दूर और किसान संगठन दोनों सड़क पर उतरे और देशव्यापी प्रदर्शन हुए। ये तब हुआ जब लॉकडाउन हटाने के बाद भी उसकी दशहत क़ायम रखने की प्रशासन ने भरपूर कोशिश जारी रखी। जंतर-मंतर पर हुए इस प्रदर्शन के लिए दिल्ली पुलिस ने ट्रेड यूनियनों पर मुकदमे तक दर्ज किये।
‘क़ानून ख़त्म करेंगे और विरोध भी नहीं करने देंगे’- मोदी-शाह का संदेश दीवार पर लिखी इबारत की तरह बिल्कुल साफ़ है।
मज़दूरों के अधिकार छीन लेने वाला एक क़ानून अंग्रेज़ लेकर आये थे 1929 में- ट्रेड डिस्प्यूट बिल। पूरे भारत में इसका भारी विरोध हुआ। उस समय ब्रिटेन की लेबर पार्टी के नेता रैमसे मैकडोनल्ड ने इस क़ानून को मज़दूरों के ख़िलाफ़ ‘वर्ग युद्ध’ क़रार दिया था।
आज इतिहास अपने को दुहराता प्रतीत होता है और भारत के ट्रेड यूनियन आंदोलन के सामने विकट हालात बन गये हैं। केंद्रीय ट्रेड यूनियनों के नेता उससे भी कड़े शब्दों में मोदी सरकार की निंदा कर रहे हैं। अगस्त से ही मज़दूर हड़तालों का सिलसिला बना हुआ है। 28 सितम्बर को भगत सिंह के जन्मदिन पर देशव्यापी विरोध प्रदर्शन का आह्वान किया गया है। उससे पहले 25 सितम्बर को किसान संगठनों ने भारत बंद का ऐलान किया है। ऑर्डिनेंस फ़ैक्ट्रियों में 12 अक्टूबर से अनिश्चितकालीन हड़ताल का नोटिस भेजा जा चुका है।
इन सबका कोई फर्क पड़ता दिखायी नहीं देता। कोई नैरेटिव खड़ा होता नहीं दिखायी देता जबकि अपेक्षाकृत कम संगठित बेरोज़गारों, किसानों के प्रतिरोध में एक नैरेटिव मौजूद है।
ये नहीं पता कि ट्रेड यूनियन के उक्त महासचिव का आशावाद अब भी टिका होगा, जबकि कोड बिल संसद की देहरी तक पहुंच चुका है!
यह कहना ग़लत नहीं होगा कि मज़दूरों पर मोदी सरकार के छेड़े गये ‘वर्ग युद्ध’ के पीछे एक मज़बूत ‘वर्ग विचार’ काम कर रहा है। हां, दूसरा सच यह है कि उक्त ‘वर्ग विचार’ ट्रेड यूनियनों की सदिच्छा से संचालित नहीं है।