बचपन से हम एक विज्ञापन की टैगलाइन को आत्मसात करते आये हैं- ‘हीरा है सदा के लिए’. जो चीज सदा के लिए हो, जाहिर है उसका वज़न नश्वर चीजों पर भारी ही पड़ेगा. सरकारें मानती हैं कि जंगल, पर्यावरण और वन्यजीव नश्वर हैं और इनका विनाश किसी न किसी दिन हो ही जाना है.
हीरा विकास का और समृद्धि का प्रतीक है, जंगल थोड़े न विकास है. नियतिवाद के बड़े पैरोकारों के सिद्धांतों में आप जंगल को असभ्यता का प्रतीक ही मानेंगे. मध्य प्रदेश में हीरा निकलेगा, जंगल की कोख से. यहां से सवा दो लाख पेड़ काटिए और सड़कों के किनारे लगाने का वादा कर दीजिए. ग्रीन मफलर के रूप में, हरित पट्टी का विकास करने का वादा. बिहार में वहां की सरकार ने 25 करोड़ पेड़ लगाने का वादा किया है. ऐसा ही कार्यक्रम मायावती के कार्यकाल में 2008 में बुंदेलखंड के इलाके में 10 करोड़ पेड़ लगाने की योजना से शुरू हुआ था. उस योजना के 10,000 पेड़ भी साबुत नहीं बचे होंगे (हो सकता है लगाये भी न गये हों).
फिलहाल, मध्य प्रदेश के बकस्वाहा के जंगलों को आप आखिरी बार देख लीजिए. दैनिक भास्कर ने आज के अखबार में एंकर स्टोरी भी लगायी है और इसके मुताबिक अगले कुछ महीनों में 46 नस्लों के 2.16 लाख पेड़ काट दिये जाएंगे ताकि 3.42 करोड़ कैरेट हीरे निकाले जा सकें. इन सवा दो लाख पेड़ों में झाड़ियां, छोटे पेड़, घास के मैदान, असंख्य छोटे और सूक्ष्म जीव और वनस्पतियों की तो गिनती ही नहीं है. उदार से उदार सरकार भी पर्यावरण में सूक्ष्म जीवों के अस्तित्व की गिनती नहीं करती.
मध्य प्रदेश सरकार ने बकस्वाहा के इस जंगल का पट्टा 50 साल के लिए आदित्य बिड़ला समूह की एस्सेल माइनिंग ऐंड इंडस्ट्रीज को दे दिया है, हालांकि पर्यावरण मंत्रालय के पास एस्सेल ग्रुप ने मंजूरी के लिए आवेदन दिया है और आखिरी फैसला अभी आना बाकी है.
बहरहाल, यह तय है कि पर्यावरण मंत्रालय इस परियोजना को मंजूरी दे ही देगा. खबरें हैं कि वन और पर्यावण मंत्रालय देश के पर्यावरण कानूनों में बड़े बदलाव लाने की तैयारी कर रहा है और वन्य जीव संरक्षण अधिनियम, 1972 में भी बदलाव लाया जा सकता है. अगर यह रिपोर्ट सही है तो इसका मतलब यह हुआ कि पर्यावरणीय रूप से संवेदनशील इलाकों में में भी इन्फ्रास्ट्रक्चर और औद्योगिक ढांचे विकसित किये जा सकेंगे.
हिंदुस्तान टाइम्स की एक खबर के मुताबिक मंत्रालय के वन्य जीव विभाग ने 1972 वाले वन्यजीव कानून में बदलाव का कैबिनेट नोट तैयार कर लिया है, जिसे अभी कैबिनेट की मंजूरी नहीं मिली है. दूसरी तरफ, इसी खबर में जिक्र है कि ऐसा ही एक नोट वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 में संशोधन के लिए भी तैयार किया जा रहा है और अपने अंतिम चरण में है.
मंत्रालय ने भारतीय वन अधिनियम, 1927 में भी बदलाव लाने के लिए मसौदा तैयार किए जाने की तैयारी शुरू कर दी है. यही नहीं, अखबार की खबर के मुताबिक पर्यावरण प्रबंधन के नये कानून का मसौदा तैयार किया जा रहा है जो वायु अधिनियम, 1981, जल अधिनियम, 1974 और पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 को एक साथ करके उसकी जगह लेगा.
खबरें हैं कि वन संरक्षण अधिनियम का केंद्रबिंदु वन की परिभाषा बदलना होगा. गौरतलब है कि 1996 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया था कि वन का अर्थ उसके शब्दकोश के मायने के लिहाज से ही समझा जाना चाहिए, इस बात से नहीं कि वह इलाका राजस्व के दस्तावेजों में जंगल के रूप में दर्ज है या नहीं. अदालत ने कहा था कि ऐसे इलाके (जिनसे वन का शब्दकोशीय अर्थ निकलता हो) में किसी भी गैर-वानिक गतिविधि के लिए केंद्र सरकार की अनुमति जरूरी होगी.
जंगलों के क्षेत्रफल को परिभाषा और उपग्रहीय चित्रों के आधार पर किस तरह अर्धसत्य की तरह पेश किया गया है इससे हम अनजान नहीं हैं.
विश्व पर्यावरण दिवस पर आंकड़ों की बात करना मुनासिब नहीं होगा. यह बात करना और भी बेकार होगा कि किसी उद्योग से कितना नुकसान ताजमहल को या जंगलों को होता है. हम सब अलग-अलग प्लेटफॉर्म के जरिये पढ़ते आ रहे हैं कि काई की वजह से गंगा हरी हो गयी, जलाशय काले पड़ गये हैं, मॉनसून का मिजाज बदल गया है, माटी में प्रदूषण है, भूजल के अत्यधिक दोहन से धरती का कलेजा फट गया है, वायु प्रदूषण से दुनिया भर में लाखों लोग मर जाते हैं, आदि आदि. पर इन आंकड़ों को देखकर हम एक ठंडी आह भरते हैं और फिर अपने गेट के सामने खड़े उस पेड़ को काटकर हटा देने की जुगत में लग जाते हैं जिसकी वजह से हमें अपनी कार बेसमेंट में पार्क करने में दिक्कत होती है.
फिर हम हीट वेव नहीं आने, ज्यादा चक्रवात आने या जलवायु परिवर्तन पर चिंतित हो लेते हैं. लगता है कोई चमत्कार होगा कि स्थितियां सुधर जाएंगी. ऐसी ही स्थितियों के लिए कबीर कह गये हैं-
अहिरन की चोरी करै, करै सुई को दान ऊंचे चढ़ि कर देखता, केतिक दूर बिमान
असल में दिक्कत हमारे नजरिये में है. हमसे मतलब है समाज, मैं, आप और सरकार. बतौर समाज, हमारे लिए पर्यावरण का मसला बच्चों के स्कूली प्रोजेक्ट से ज्यादा कुछ नहीं है. हमें बहुत सारे कार, एसी, फ्रिज, स्मार्ट फोन चाहिए होते हैं. इनके बिना हमारी जिंदगी अधूरी है.
हमारे नीति नियंताओं को लगता है कि जंगल का मतलब बस पेड़ ही होते हैं, जैसे कि उनके लिए नदियों में समंदर तक बह जाने वाला पानी, पानी की बरबादी होता है.
सरकार विकास चाहती है. इसलिए उसको नियामगिरि के पहाड़ों में दबा लाखों टन बॉक्साइट चाहिए और मध्य प्रदेश में पन्ना के जंगलों में दबा हीरा चाहिए. जंगल कटते हैं तो कटते रहें. वे दोबारा उग लेंगे. जरूरी तो हीरा है क्योंकि हीरा है… सदा के लिए!
कवर फोटो: साभार मोंगाबे इंडिया