आपको पता भी है कि हम कितनी तेजी से अपनी संपदा खोते जा रहे हैं? पानी को संपदा मानना शुरू करिए। इससे जुड़े विवाद आने वाले वर्षों में कई युद्धों का कारण बनेंगे। भारत में तो कई नदियों का जीवनकाल खत्म हो गया है। उनमें से अधिकतर छोटी या सहायक नदियां हैं। मिसाल के तौर पर, भरालू नदी और इसकी सहायक नदी या धारा बहिनी को ही लीजिए।
आप उत्तर भारत के हैं या कभी गुवाहाटी नहीं गये हैं तो आपको इस नदी का नाम भी पता नहीं होगा। गुवाहाटी के भी अधिकतर लोग इसको भूल गये हैं। भरालू मेघालय की तराई में खासी पहाड़ियों से निकलती है और कुछ किलोमीटर बहने के बाद यह कुछ धाराओं में बंट जाती हैः बसिस्ता, जो दीपोर बील से होकर बहती है। दीपोर बील एक रामसर साइट है। दूसरी धारा है बहिनी की जो गुवाहाटी से होकर बहती है और आखिरकार ब्रह्मपुत्र में जाकर मिल जाती है।
आदर्श स्थिति यही होती कि गुवाहाटी शहर का सारा बारिश का पानी भरालू और बहिनी के जरिये ब्रह्मपुत्र में जाकर गिरता, लेकिन स्थिति यह है कि दोनों ही नदियां भरालू और बहिनी अब बस नाले की शक्ल में मौजूद रह गयी हैं। कथित तेज विकास असल में अराजक और अफरा-तफरी में किये गये निर्माण में बदल गया है और अनियोजित शहरीकरण की प्रक्रिया इन दो नदियों के लिए प्राणांतक साबित हो रही है।
असमिया भाषा में स्थानीय लोग इस नदी के एक हिस्से को मॅरा भरालू के नाम से पुकारते हैं। मॅरा शब्द का अर्थ है मृत। जाहिर है, शहर के लोगों ने समझ लिया है कि यह नदी अब मृत हो चुकी है।
पूर्वोत्तर के द्वार के नाम से मशहूर इस शहर गुवाहाटी में बेशक ताबड़तोड़ विकास हो रहा है और इसने पर्यावरण की जो हालत की है, उस पर किसी का ध्यान नहीं जाता। आखिर, पर्यावरण हमारे विमर्श में सबसे आखिरी कतार में खड़ा विषय है, पर अभी बारिश के महीनों में गुवाहाटी में इस मृत नदी की लाश अपना तांडव दिखाती है। शहर में कृत्रिम बाढ़ आती है क्योंकि पानी को ले जानी वाली नदी में तो मलबा, प्लास्टिक और अल्लम-गल्लम भरा हुआ है। खासतौर पर भरालू के जलागम क्षेत्र में शहरीकरण की गति काफी तेज है और अतिक्रमण व ठोस मलबे का भंडार इधर जमा है।
भरालू नदी में सब कुछ भर गया है, बस धारा नहीं बची।
गुवाहाटी डेवलपमेंट डिपार्टमेंट की एक रिपोर्ट के मुताबिक शहर अपनी स्थलाकृति (टोपोग्राफी) की वजह से बाढ़ का शिकार होता है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि गुवाहाटी शहर की आकृति कटोरे जैसी है जिसमें कुछ इलाके कटोरी की तली में अवस्थित हैं। इसकी वजह से भारी बारिश के मौसम में जाकर पानी ठहर जाता है और देर तक ठहरा रहता है। इसके साथ ही, शहर में पड़ोसी मेघालय की पहाड़ियों से पानी आता है।
इसका मतलब है कि पानी का आगम पानी के गमन के मुकाबले कहीं ज्यादा हो जाता है। इसका सहज उपाय दोनों नदियों, भरालू और बाहिनी को दोबारा जिंदा करने का ही है। सस्ता और सुगम उपाय क्योंकि एक वक्त था जब अपनी मुक्त धारा के साथ भरालू नदी अपने तट पर रहने वाले हजारों लोगों को पेयजल मुहैया कराती थी। इसमें विभिन्न नस्लों की मछलियां होती थीं और इसी तरह बहिनी नदी भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती थी।
बढ़ती आबादी को अब पानी लेने के लिए नहीं, बल्कि अपने अपशिष्ट को बहाने के लिए नाले की जरूरत थी और उन्होंने इन दोनों नदियों को ही नाले में तब्दील कर दिया। बहिनी नदी के किनारे बस्तियों ने अतिक्रमण करके इसकी सांसें रोक दी हैं। इस नदी की आधिकारिक धारा 40 फुट होनी चाहिए लेकिन अब यह बमुश्किल 10 फुट रह गयी है।
इसका नतीजा हुआ है कि बरसात के मौसम में इसके अगल-बगल बसे इलाकों में बाढ़ की स्थिति बन जाती है। भरालू की चौड़ाई भी अतिक्रमण का शिकार होकर अधिकतर जगहों पर 30 फुट चौड़ी ही रह गयी है।
बहरहाल, मौजूदा स्थिति यही है कि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा जारी की गयी 71 सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में भरालू का भी नाम है। लोगों ने जिसे अभी ही मॅरा भरालू कहना शुरू कर दिया है, संतोष होता है कि चलो किसी फेहरिस्त में उसका नाम जीवित तो है। जब तक कोई इंजीनियर इनको जिलाने के लिए कुछ सौ करोड़ की कोई मोटी योजना न बना ले, इन नदियों के दिन तब तक नहीं बहुरेंगे।