प्रख्यात अराजकतावादी राजनीतिक कार्यकर्ता एमा गोल्डमैन की उक्तियाँ अक्सर उद्धृत की जाती हैं, जिनमें से एक है- “यदि मैं इस धुन पर नहीं थिरक सकती हूँ, तो यह मेरी क्रांति नहीं है”. ‘कैंसिल कल्चर’ के मौजूदा माहौल और उसे लेकर चल रही बहस के संदर्भ में मुझे इस उक्ति की याद आयी.
इस कथन की तमाम व्याख्याएँ हो सकती हैं और इसका अपने विचारों व वैचारिकी को सही या श्रेष्ठ बताने के लिए भी उपयोग किया जा सकता है. मुझे याद आता है कि 2011-12 में अन्ना हज़ारे के नेतृत्व में चल रहे ‘भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन’ के समय उस आंदोलन के अनेक विरोधी इस पंक्ति को उद्धृत किया करते थे. यह लिखते हुए मुझे आदिवासी संस्कृति और आंदोलन के एक बड़े स्तंभ रहे प्रोफ़ेसर रामदयाल मुंडा की बात भी याद आती है- “जे नाची, से बाची”. जो नाचेगा, वही बचेगा. झारखंड में कुछ आदिवासी समुदायों का जीवन सूत्र ही है- चलना ही नृत्य है, बोलना ही गीत है.
अपने विचारों को चुनने और उसके अनुसार व्यवहार करने तथा उससे अलग या विरोध में खड़े विचारों व व्यक्तियों की आलोचना करना या उनका विरोध करना मानव सभ्यता के मूलभूत आचरणों में शामिल है. तो, फिर कैंसिल कल्चर’ को लेकर इतनी चिंता क्यों होनी चाहिए? सांस्कृतिक व्यवहार का यह रूप सूचना तकनीक के प्रांगण में घटित होता है, इसलिए यह विरोध या आलोचना का आधुनिकतम रूप है. इसमें किसी लोकप्रिय या प्रतिष्ठित व्यक्ति, सिलेब्रिटी या प्रभावशाली राजनेता या कारोबारी के किसी बयान या हरकत को सोशल मीडिया पर झुंड बनाकर निशाना बनाया जाता है. इसी के साथ उसके बहिष्कार या उसे सामाजिक उपस्थिति से अपदस्थ करने की कोशिश होती है.
यह कल्चर अब एक स्थायी सोशल मीडिया आचरण बन गया है और इसके निशाने पर कुछ भी और कोई भी हो सकता है. उदाहरण के रूप में अमेरिका में, यूरोप में भी, सांस्थानिक और सांस्कृतिक रंगभेद व नस्लभेद के विरुद्ध चल रहे समूचे आंदोलन को उसके कुछ व्यवहारों के आधार पर ख़ारिज़ करने की क़वायद. इस आंदोलन में अनेक जगहों पर ग़ुलामों की ख़रीद-बिक्री के कारोबारियों तथा ग़ुलामी के समर्थक राजनेताओं की मूर्तियों को हटाने-गिराने की कोशिशें हुई हैं. इन कोशिशों को और आंदोलन को समझने के बजाय आंदोलनकारियों को उपद्रवी और हिंसक बताया जा रहा है. यह केवल सोशल मीडिया में नहीं हो रहा है, बल्कि राजनेताओं और मुख्यधारा की मीडिया के द्वारा भी हो रहा है. इस तरह से ‘कैंसिल कल्चर’ अब सामाजिक और सांस्कृतिक व्यवहार है. जिस तरह से कुछ समय पहले तक ट्रोलिंग, हिंसक व अभद्र भाषा, प्रतिष्ठित लोगों को परेशान करना, सोशल मीडिया व इंटरनेट तक सीमित था तथा उन्हें फ्रिंज या फ़ेक कहकर लगभग टाल दिया जाता था, अब वे भारत, अमेरिका, ब्रिटेन समेत कई कथित लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में सत्ता व मीडिया में वर्चस्व बना चुके हैं.
लेकिन यह कहना कि ‘कैंसिल कल्चर’ केवल दक्षिणपंथी या धुर दक्षिणपंथी राजनीतिक आचरण है, ठीक नहीं है. उदारवादी और वामपंथी खेमों की ओर से भी इस कल्चर का ख़ूब व्यवहार होता है. ‘मी टू मूवमेंट’, एकेडेमिया के कथित दुराचारियों की नेमिंग-शेमिंग, स्टैंड अप कॉमेडी, विचारधारा की आड़ में हमले, जैसे कि सामाजिक न्याय के आग्रहों की आड़ में जातिवादी गोलबंदी करना, आदि इसके कुछ उदाहरण हैं. आए दिन सोशल मीडिया पर हिंदी साहित्य की चिरकुटी बहसों को भी इस श्रेणी में रखा जा सकता है. यदि वामपंथी ख़ेमे में ‘कैंसिल कल्चर’ को देखना चाहते हैं, तो किसी भी धुर या अल्ट्रा वामपंथी से दस मिनट सीपीएम और सीपीआइ के बारे में या इनसे उनके बारे में बात करके देखिए.
‘कैंसिल कल्चर’ की व्याख्या की कोशिशें भी हो रही हैं. इसके विस्तारित होने का एक मुख्य कारण तकनीक का लोकतांत्रिकरण है. डेढ़ जीबी रोज़ाना की पॉलिटिकल इकोनॉमी इसका आधार है. जो बातें बार में और नुक्कड़ पर हुआ करती थीं या इंटरनेट के शुरुआती दौर में चैट रूमों में होती थीं, अब वे सोशल मीडिया के मंचों और राजनीतिक भाषणों में जगह पा रही हैं. लामबंदी के नाम पर भीड़ जुटायी जा रही है. ‘मॉब कल्चर’ भी ‘कैंसिल कल्चर’ से ही जुड़ा हुआ है. तमाम तरह की वंचनाएँ, कुंठाएँ और आकांक्षाएँ घालमेल होकर लोगों को निशाना बनाने में ज़ाया हो रही हैं. कहने की आवश्यकता नहीं है कि ‘कैंसिल कल्चर’ और ‘मॉब मानसिकता’ ने कई लोगों का करियर चौपट कर दिया, कई लोगों को बीमार बना दिया, कई लोगों को आत्महत्या के कगार तक पहुँचा दिया. इसका पूर्ववर्ती रूप पीत पत्रकारिता और प्लांटेड न्यूज़ हुआ करता था, जो अब भी जारी है.
इसमें कोई दो राय नहीं है कि उदारवादी लोकतंत्र की त्रासद विफलता ऐसी स्थिति के लिए सबसे अधिक उत्तरदायी है. लेखक-पत्रकार आनंद गिरिधरदास सही ही कहते हैं कि अगर यह दुनिया कम विषम होती, तो शायद ऐसे सांस्कृतिक दुराग्रहों की आवश्यकता नहीं होती. यह कहना कि इंटरनेट ने लोकतंत्र को व्यापक किया है और बड़ी आबादी को अपने को अभिव्यक्त करने का अवसर दिया है, यह भी मानना है कि उदारवादी लोकतंत्र के ढांचे में कुछ ऐसा है, जो उसे लोकतांत्रिक नहीं होने देता या उसकी चाहत नहीं है. ‘कैंसिल कल्चर’ के साथ धुर दक्षिणपंथी राजनीति के उभार में भी यह कारक बड़ा कारण है. कई बार उचित आलोचनाओं को भी ‘कैंसिल कल्चर’ का उदाहरण मानकर कमतर दिखाने की कोशिश होती है. यह भी अधिकतर उदारवादियों की ओर से होता है. धुर दक्षिणपंथी लम्पट तत्व तो इसे सम्मान मानते हैं कि वे लोगों के निशाने पर हैं. अपने ऊपर बनी फ़िल्म में कुख्यात राजनीतिक चालबाज़ रोजर स्टोन ने कहा है कि यदि लोग उनसे घृणा करते हैं, तो इसका मतलब यह हुआ कि उन्होंने कुछ हासिल किया है.
चौतरफ़ा हार से घिरे उदारवाद, वामपंथ और समाजवाद के लिए यह समय है आत्ममंथन का, ऐतिहासिक भूलों के आकलन का और भविष्य की रणनीतियों पर विचार का. इस प्रयास में कुछ दिन के लिए नाचना-थिरकना यानी सतही आंदोलनों और बदहवास विरोधों को स्थगित करने की आवश्यकता हो, तो वह भी किया जाए. जब रोग पुराना है, तो उसका उपचार भी संयम से होना चाहिए. समय लगेगा.