9 अगस्त 2020 को बेलारूस में राष्ट्रपति चुनावों के नतीज़े आये और एक बार फिर से एलेग्जेंडर लुकाशेंको, लगातार छठी बार 80 प्रतिशत वोटों से विजयी हुए। विपक्ष की उम्मीदवार अंग्रेजी शिक्षिका स्वेतलाना तीखानोव्स्काया को मात्र 10 प्रतिशत वोट मिले। इस एक महीने में बेलारूस की जनता डर के साये से निकलकर हज़ारों की संख्या में पहली बार सड़कों पर है। रोजाना हो रहे प्रदर्शनों के कारण हालात तेजी से बदल रहे हैं और पूर्व सोवियत संघ का सबसे मजबूत सोवियत, जहां राष्ट्रपति लुकाशेंको का एकक्षत्र राज पिछले 26 साल से कायम था, ख़त्म होने के कगार पर है। इस हफ़्ते देशांतर में राजधानी मिन्स्क की सड़कों पर गूँजती आज़ादी के नारों से बदलती हवा को भाँपने के एक कोशिश।
सम्पादक
17 अगस्त को पहली बार मिन्स्क ट्रैक्टर फैक्ट्री के मज़दूरों ने हड़ताल का एलान कर दिया। सोलिगर्स पोटाश फैक्ट्री, जहां दुनिया की 20 प्रतिशत पोटाश खाद बनती है, उसके खदान मज़दूरों ने भी हड़ताल कर दिया और साथ ही वहां के राज्य टेलीविज़न चैनल के कर्मियों ने भी। हज़ारों की संख्या में सरकारी विश्वविद्यालयों के छात्र भी सड़क पर आ गये। हड़तालों के बारे में मिन्स्क ट्रैक्टर फैक्ट्री के हड़ताल समिति के सदस्य सेर्गेई डीलेवस्की बताते हैं, ‘’26 साल से हम शासन के डर से चुप बैठे हैं, लेकिन 9 अगस्त के बाद जो देश में हो रहा है अब और सहन नहीं कर सकते।‘’ इस डर का खत्म हो जाना ही सबसे बड़ी घटना है आज बेलारूस में।
बीते 9 अगस्त के चुनावी नतीजों के बाद लोगों के सब्र का बाँध टूट गया। लोग सड़कों पर आये तो हमेशा की तरह सरकारी दमन का चक्र शुरू हुआ। लगभग 7000 लोगों को गिरफ़्तारी; मीडियाकर्मियों पर हमला और निष्कासन; जेलों में यातनाएं; नौकरी से निकाला जाना और अगले ही दिन विपक्षी उम्मीदवार स्वेतलाना तीखानोव्स्काया का पड़ोसी देश लिथुआनिया में शरण लेना; जहां से भेजे अपने संदेश में उन्होंने कहा कि बहुत ही कठिन समय में अपने और परिवार की सुरक्षा के कारण वह देश छोड़ने को मज़बूर हैं- तब से लेकर अब तक प्रदर्शनों में तेज़ी आयी है। एक ओर संयुक्त राष्ट्र संघ और EU नज़र बनाये हुए हैं तो दूसरी ओर रूस ने बेलारूस को मदद का आश्वासन दिया है और अपनी सेनाओं को हाइ अलर्ट पर रखा है। लुकाशेंको ने घोषणा की है कि ज़रूरत होगी तो देश की रक्षा के लिए सेना का इस्तेमाल भी करेंगे।
1991 के बाद ‘नया’ बेलारूस
25 अगस्त 1991 को सोवियत संघ के टूटने के बाद रिपब्लिक ऑफ़ बेलारूस का उदय हुआ। बेलारूस सोवियत संघ का संस्थापक सोवियत ही नहीं है, बल्कि 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ की स्थापना हुई तब बेलारूस और उक्रेन दोनों संस्थापक सदस्य रहे। बेलारूस CIS, NAM और अन्य अंतर्राष्ट्रीय मंचों का भी सदस्य है, लेकिन यूरोपियन यूनियन का सदस्य नहीं है। आज भी इसका रूस से सबसे नज़दीकी राजनैतिक और आर्थिक रिश्ता है। 1991 के बाद से भले ही बेलारूस में एक नया संविधान बना हो और नयी शासन व्यवस्था लागू हुई हो लेकिन सोवियत संघ के दौर से चली आ रही राज्य आधारित आर्थिक व्यवस्था जारी रही और इस कारण से देश की लगभग 40 फीसद आबादी आज भी सरकारी नौकरियों में है।
यहां की अर्थव्यवस्था ट्रैक्टर, बड़ी मशीनरी, पोटाश खाद, टूरिज्म, IT उद्योग आदि पर निर्भर है। यहां रूस से बड़ी मात्रा में कच्चा माल ही नहीं आता बल्कि बहुत बड़ा हिस्सा निर्यात भी होता है। तेल और ऊर्जा की जरूरतों के लिए बेलारूस की रूस पर निर्भरता है। लोगों का जीवनस्तर काफी ऊपर है, समृद्धि है और देश का 40 फीसद भूभाग जंगलों से घिरे होने व लगभग 11000 झीलों के कारण बेलारूस बेहद खूबसूरत है। रूस, उक्रेन, पोलैंड, लातविया और लिथुआनिया से घिरा बेलारूस सामरिक कारणों से महत्वपूर्ण है क्योंकि वह यूरोपियन यूनियन और रूस के बीच एक बफ़र है।
नया संविधान बनने के बाद यहां 1994 में पहली बार चुनाव हुए। उसमें एलेग्जेंडर लुकाशेंको राष्ट्रपति निर्वाचित हुए। रूस से पुराने संबंधों के कारण और नये उभरते राजनैतिक परिप्रेक्ष्य में लुकाशेंको ने अपने आप को स्थापित करने के लिए रूस के साथ दोनों देशों को मिलाकर एक यूनियन बनाने पर बोरिस येल्तसिन के साथ 1996-1999 के बीच एक संधि की, जिसका अंतिम लक्ष्य दोनों देशों का विलय था।
राष्ट्रपति लुकाशेंको ने बेलारूस की राजनीति पर अपनी पकड़ इस कदर मजबूत बनायी की 2001, 2006, 2010, 2015 और अब 2020 में कभी भी कोई भी राजनैतिक प्रतिद्वंदी उनके सामने नहीं उभर पाया। हमेशा वह 70-80 फीसद मतों से चुनाव जीतते रहे और विपक्ष ने हमेशा चुनावों को धाँधलीपूर्ण और पक्षपातपूर्ण बताया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इन चुनावों की भी भर्त्सना हुई है क्योंकि वहां के चुनावों के नियमों के अनुसार किसी भी व्यक्ति को राष्ट्रपति चुनाव में खड़े होने के लिए सरकार से अनुमति लेना ज़रूरी है, लिहाजा सरकार अपनी सुविधानुसार ही विपक्ष के उम्मीदवारों को अनुमति देती है।
स्वेतलाना तीखानोव्स्काया : एक एक्सिडेंटल लीडर
2020 के चुनाव में स्वेतलाना तीखानोव्स्काया को सरकार ने अनुमति इसलिए दी क्योंकि उनका कोई भी पूर्व राजनैतिक अनुभव नहीं था। दरअसल, 37 वर्षीय अंग्रेजी की यह शिक्षिका और इंटरप्रेटर चुनाव के मैदान में इसलिए उतरीं कि उनके पति सर्गेई तीखानोव्स्काया, जो एक यूटूबर, ब्लॉगर और राजनैतिक रूप से सक्रिय व्यक्ति थे, को सरकार ने मई 2020 में गिरफ़्तार कर लिया। स्वेतलाना- जिन्होंने अपने बच्चों के कमजोर स्वास्थ्य के कारण नौकरी छोड़ दी थी- ने तब फैसला किया कि वह आगामी चुनावों में लुकाशेंको के खिलाफ स्वतंत्र उम्मीदवार के तौर पर राष्ट्रपति का चुनाव लड़ेंगी।
हालात ऐसे हुए कि विपक्ष के दो महत्वपूर्ण उम्मीदवारों वलेरी सपकलाओ और विक्टर बाबरकी की उम्मीदवारी खारिज होने के बाद उन दोनों ने भी स्वेतलाना को अपना समर्थन जाहिर किया। इसक बाद अचानक ही स्वेतलाना, बेलारूस की राजनीति की धुरी बन गयीं।
विपक्ष के नेता विक्टर जब कैद कर लिए गये तो उनकी पत्नी वेरोनिका सपकलाओ, स्वेतलाना और उनकी अभियान प्रमुख मारिया कोलेसनिकोवा, तीन महिलाओं की जोड़ी ने देश में विपक्ष में एक नयी ऊर्जा डाल दी। इनकी चुनावी सभाओं को जबरदस्त सफलता मिली और वहां के इतिहास में पहली बार भारी संख्या में लोग शामिल हुए, ब्रेस्ट शहर में 20000 तो मिंस्क में 60000।
राष्ट्रपति लुकाशेंको, जो यूरोप के आखिरी तानाशाह के तौर पर भी जाने जाते हैं, ने स्वेतलाना को पहले तो राजनैतिक नौसिखिया होने के कारण चुनाव में पंजीकृत होने दिया लेकिन जब उन्हें भारी समर्थन मिलना शुरू हुआ तो उन्होंने कहा कि बेलारूस अभी एक महिला राष्ट्रपति के लिए तैयार नहीं है। आखिर में उन्होंने खुलेआम धमकी दी कि उनके बच्चे अनाथालय में भेज दिये जाएंगे। स्वेतलाना ने धमकियों के कारण आखिर में अपने बच्चों को अपनी दादी के पास विदेश में भेज दिया।
उनके चुनावी अभियान में राजनैतिक बंदियों की रिहाई, 1994 के संविधान के अनुसार जनतांत्रिक प्रक्रियाओं की बहाली, रूस के साथ यूनियन संधि का खात्मा, 6 महीने के भीतर स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव (क्योंकि वह अभी हुए चुनावों को अमान्य मानती हैं जहां विपक्ष की पूरी भागीदारी नहीं हो पायी), बड़े उद्योगों के साथ छोटे और मझोले उद्योगों को प्रोत्साहन, अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों को सुरक्षा, स्वतंत्र मीडिया को प्रोत्साहन, आदि मुद्दे शामिल हैं। स्वेतलाना फिलहाल अपने बच्चों के साथ लिथुआनिया में हैं और वहां से देश में चल रहे प्रदर्शनों को सम्बोधित कर रही हैं।
EU, अमेरिका और रूस के बीच
तेजी से बदल रहे घटनाक्रम में रूस की भूमिका महत्वपूर्ण है। रूस और बेलारूस के रिश्ते गहरे तो जरूर हैं लेकिन काफ़ी उतार-चढ़ाव भरे रहे हैं। लुकाशेंको ने अपनी महत्वाकांक्षा के आधार पर रूस से यूनियन संधि उस दौर में की थी जब वह राजनैतिक तौर पर बोरिस येल्तसिन से ज्यादा मजबूत थे, लेकिन दो दशकों में व्लादिमीर पुतिन ने दोबारा रूस को स्थापित किया है और उनका बेलारूस की राजनीति में हस्तक्षेप बढ़ा है। तेल की कीमतों और कई राजनैतिक विवादों के कारण बेलारूस ने कई रुसी अधिकारियों को निष्कासित भी किया। दूसरी तरफ अमेरिका से उसने अपने संबंध बढ़ाने शुरू किये। बेलारूस ने अमेरिकी राजदूत को 2008 में देश से निकाल दिया था जब अमेरिका ने मानवाधिकारों की गिरती स्थिति का हवाला देते हुए सैंक्शन बढ़ा दिये थे। रूस से बिगड़ते संबंधों ने अमेरिका से नज़दीकी बढ़ायी, लिहाजा जनवरी में बेलारूस ने पहली बार राजनयिक कर्मचारियों की संख्या बढ़ाने के आदेश दिये और अमेरिकन विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ की बेलारूस यात्रा के बाद राजदूत स्तर पर संबंध दोबारा स्थापित करने के लिए वार्ता शुरू की है।
इस बदलते हुए घरेलू समीकरण में लुकाशेंको के सामने बहुत विकल्प नहीं हैं। इसलिए जैसे ही हालात बदले, उन्होंने तुरंत पुतिन की ओर दोबारा दोस्ती का हाथ बढ़ाया दिया है और मदद मांगी है।
बेलारूस की जनता लुकाशेंको की तानाशाही व्यवस्था से छुटकारा चाहती है क्योंकि आज भी बेलारूस की KGB (गुप्तचर संस्था जो की USSR के दौर में कुख़्यात थी) जनता की हरकतों पर कड़ी नज़र रखती है, इसलिए जनता जनतंत्र की मांग कर रही है। कुछ लोग एक नये खतरे का आभास भी दिला रहे हैं। पूरी दुनिया में कोरोना का कहर है और इस बीच राष्ट्रपति लुकाशेंको ने कोरोना को अन्तरराष्ट्रीय षडयंत्र घोषित करते हुए भारी भीड़ के बीच 9 मई को सालाना विजय दिवस मनाया और एक तरह से अपनी विफलताओं को छुपाते हुए देश में चुनावों की घोषणा कर दी। देश में आर्थिक मंदी है और राजनैतिक अस्थिरता भी, वैसे में जहां एक स्वतंत्र नगरीय समाज और राजनैतिक विपक्ष की जड़ें भी मजबूत न हों, क्या वहां एक नया तंत्र स्थापित हो पाएगा? लेकिन क्या क्रांति इन सभी पहलुओं की गिनती करके होती है? जनता की आज़ादी की चाह और भविष्य के सपने किसी भी डर से आगे हैं।
मशहूर लेखक और दार्शनिक स्लावोज ज़िज़ेक इन ताज़ा घटनाक्रम को देखते हुए लिखते हैं कि बेलारूस की अर्थव्यवस्था तेल की कीमतों में आयी गिरावट, मंदी और कोरोना से उपजे नये संकट के बीच में कहीं अंतरराष्ट्रीय राजनीति का अखाड़ा बन कर न रह जाए क्योंकि सिर्फ रूस नहीं, अमेरिका और यूरोपियन यूनियन के लिए भी इसका सामरिक महत्व है। वे आशंका जताते हैं कि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के प्रकोप से अब तक बचा रहा बेलारूस राजनैतिक अस्थिरता के दौर में कहीं आर्थिक अस्थिरता से भी न घिर जाए। उनका मानना है कि एक तरफ जनतंत्र के लिए तानाशाही वाले देशों में जनता के प्रदर्शन हो रहे हैं, लेकिन दूसरी तरफ पश्चिम के पूंजीवादी और जनतांत्रिक देशों में हो रहे प्रदर्शन उनके अंतर्निहित विरोधाभासों को भी उजागर कर रहे हैं। वैसे में बेलारूस की जनता का संघर्ष भले ही सत्ता परिवर्तन कर दे लेकिन क्या व्यवस्था परिवर्तन कर पाएगा?