आज दक्षिणावर्त को एक साल पूरा हुआ। यह मुझ जैसे एक चिर-आलसी, उदासीन, कई बार अवसादग्रस्त होने की हद तक खीझे हुए और आवेगी व्यक्ति के लिए तो एक उपलब्धि है ही, इससे बढ़कर यह संपादक के लगातार कोंचते रहने, जगाते और हिलाते रहने का परिणाम ही है। इस पूरी अवधि में केवल एक शनिवार ‘दक्षिणावर्त’ प्रकाशित नहीं हुआ, जब मैंने और संपादक ने पूरी बहस के बाद ईमानदारी से माना था कि उस बार की कथनी में कुछ दम नहीं था, उसके प्रकाशन की कोई खास जरूरत नहीं थी।
धन्यवाद, सूचना क्रांति का और सोशल मीडिया के विस्फोट का, कि हरेक व्यक्ति आज लेखक या लेखिका है। ठीक उसी तर्ज पर, जैसे हर कोई ‘पत्रकार’ है। आप इस लेखक को सामंती या विशेषाधिकार-वादी मान लें, लेकिन ये जन-पत्रकार या नागरिक-पत्रकार क्या होता है, उसी तरह अक्षर-ज्ञान वाले हरेक व्यक्ति को लेखक कैसे मान लिया जाए, वह ‘स्वांतः सुखाय’ कुछ रचे, यह उसका ‘प्रेरोगेटिव’ है, लेकिन उसे यह बात पूरी दुनिया को मनवाने का हक़ नहीं मिल जाता है।
लिखना क्या है? यह केवल की-बोर्ड पर निठल्लों का उंगली पीटना नहीं है, न ही कागद-कारे करना है, लिखना तो खून के आंसू रोना है, लिखना हृदय को जलाना है और लिखना खुद को बचाना है, खुद को उबारना है। लेखन एक तपस्या है, जिसमें आपका हृदय और मस्तिष्क समिधा बनते हैं। यह कोई हंसी-ठट्ठा नहीं है। न ही, यह अंशकालिक काम है। अगर आप लेखन को अपना सर्वस्व समर्पित नहीं कर चुके हैं, तो फिर वह लेखन भी आपको पूर्ण-काम नहीं बनाएगा। बहसें भले ही आप कितनी करते रहें। लेखन सबसे बढ़कर खुद को उबारना है।
जो भी लेखक यह कहता है कि उसे पाठकीय प्रतिक्रिया, समीक्षा या बड़ाई का शौक नहीं, परवाह नहीं तो वह झूठ बोलता या बोलती है। लेखन और खासकर हिंदी लेखन का तो पारिश्रमिक ही पाठकीय प्रतिक्रिया है। संत्रास की बात यही है कि कम से कम 80 करोड़ हिंदीभाषियों के इस देश में हमने लेखन-पाठन का ये हाल कर रखा है कि 15 सौ से 3 हजार किताबों की बिक्री पर उसे ‘बेस्टसेलर’ घोषित कर दिया जाता है। पाठकीय प्रतिक्रिया का सुख क्या है, इसे मेरे और एक दोस्त की बातचीत से समझा जा सकता है। वह फेसबुक का बस शुरुआती दौर था और हम दोनों मजाक में एक-दूसरे को बताते थे कि अपना तो काम ही यही है कि पोस्ट लिखो औऱ नोटिफिकेशन का वेट करो, लाइक्स ढूंढते रहो।
पिछले दो वर्षों से जारी इस महामारी में बड़े-बड़े लोग निबट गए, कई को अवसाद हो गया। इस लेखक जैसे कई को बस ‘लेखन’ ने ही बचा लिया, हालांकि यह गौर करने की बात है कि लगभग 12 वर्षों का भरा-पूरा पत्रकारीय जीवन जीने के बाद आपको बाइलाइन और वाहवाही की उतना मोह नहीं रह जाता, खासकर जब आप उसके बाद के पांच वर्षों में लेखन से लगभग विश्राम ले चुके हों, कट चुके हों तो आप प्रवाह का हिस्सा भी नहीं रह जाते। यहीं संपादक को धन्यवाद देना बनता है, जो एक चिर-अराजक को एक रूटीन में रहने को मजबूर कर सके। लगातार तकादे कर, डांटकर, उसकी बेहोशी से उठाकर।
हिंदी-लेखन की दो-तीन बड़ी समस्याएं हैं। पहला, किसके लिए लिखा जाए? क्योंकि आप जैसे ही कुछ गंभीर लिखेंगे, पाठकीय संख्या और प्रतिक्रिया दोनों ही न्यूनतम पर आ जाएगी। दूसरे, क्या लिखा जाए? पोस्ट-ट्रुथ के इस दौर में जब हरेक संस्था की विश्वसनीयता लगभग शून्य पर है, जब हरेक लिखित चीज शक के घेरे में है, तो आप क्या ही लिख लेंगे जो कुछ अनोखा हो या वर्णन के योग्य ही हो। तीसरी औऱ सबसे बड़ी समस्या है- क्यों लिखा जाए? इस समस्या का जवाब इसलिए भी मुश्किल है क्योंकि पहले टनों कूड़ा (क्योंकि छपे हुए कागजों को बोझ था) उत्पादित हो रहा था, अब तो गीगा-टेट्राबाइट्स में उत्पादित कूड़े का हिसाब रखना भी मुहाल है, तो आप ही भला क्यों लिख लें, जो इस कूड़े को बढ़ाने में योगदान देने के अलावा कुछ करेगा, इसकी संभावना नहीं है।
इस लेखक ने ‘खुद को बचाने’ में इस ‘क्यों’ का समाधान पाया है। यह ठीक है कि ‘राइटर्स ब्लॉक’ से जूझना हरेक लेखक की नियति है और यह लेखक कोई भी नयी बात नहीं कह रहा है, इस पर कई सफे काले हो चुके हैं, कितनी ही बातें कही जा चुकी हैं, लेकिन यह लेखक उस भाग्यशाली पीढ़ी का है, जिसने तकनीकी क्रांति के पहले (सोशल मीडिया यानी) और बाद के लेखन की दुनिया देखी है, जो प्रिंट से होकर डिजिटल तक के हरेक आयाम में कुछ वक्त गुजार चुका है।
इस लेखक के ‘पत्रकार’ ने हावी होकर इसके अंदर के ‘लेखक’ को मारा है, ऐसा इसके कई दोस्तों, शुभचिंतकों और पढ़नेवालों का मानना है। इससे आंशिक सहमति है। आंशिक इसलिए कि आज के इस ‘क्षणजीवी’ समय में कुछ ‘कालजयी’ अगर नहीं रचा जा रहा है, तो उसकी वजह यही ‘इंस्टैंट’ होने की जिद है। हमें सब कुछ इंस्टैंट चाहिए- कॉफी से लेकर स्नैक्स तक।
पत्रकारिता आपको सतही और उथला बनाती है क्योंकि उसमें तुरंत प्रतिक्रिया का महत्व है। भावनाओं में डूबकर कुछ रचने की जो स्वतंत्रता ‘साहित्य’ देता है, वह यहां मयस्सर नहीं है, हालांकि लेखक आंशिक सहमति का इस्तेमाल इसलिए कर रहा है कि आजकल के लोग जब इसे ही ‘क्लिष्ट’ और ‘गंभीर’ बताते हैं, तो लगता है कि लेखकीय क्षमताओं का पूर्ण नहीं, आंशिक ही नुकसान हुआ है।
चालीस की वय में आपका दुनिया को देखने का वह नज़रिया कतई नहीं होता, जो 20-25 वर्ष में होता है। आप स्थिर होते हैं, क्षमाशील होते हैं और समन्वय स्थापित करते हैं। हरेक जगह ‘ढूह’ नहीं लड़ाते चलते। एक लेखक के तौर पर आप विकसित होते हैं, परिपक्व होते हैं क्योंकि अनुभवों की आपकी झोली भरी होती है।
दो वर्षों से जारी इस महामारी ने हमें लेखन के न जाने कितने ही आयाम दिए हैं, जीवन की विराटता और नश्वरता के दर्शन करवाए हैं। यह दौर तो लेखन का स्वर्णकाल होना चाहिए था, अफसोस है कि हिंदी में तो कम से कम यह नहीं दीख रहा है।
इस एक वर्ष का अंतिम सबक, जो इस लेखक ने सीखा- बात में दम हो, तो चिल्लाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। आप चिल्ला रहे हैं तो इसका मतलब है कि आपके तर्क चुक गए हैं।
(Cover: The Writer से साभार)