दक्षिणावर्त: तनिष्क का ‘एकत्वम’ और विकृत अस्मिताओं का दोयम


पिछले सप्ताह की दो-तीन ख़बरों पर गौर कीजिए। लखनऊ में एक महिला ने आत्मदाह कर लिया, वह भी प्रशासन के सबसे ऊंचे महल के सामने। वह जन्मना हिंदू थी, फिर किसी मुसलमान से शादी की और मुस्लिम मजहब में कन्वर्ट हो गयी। आत्मदाह के पहले या बाद में जांच के दौरान पता चला कि उसका मौजूदा खाविंद उसको यातना देता था और काफी मारपीट करता था। इस ख़बर का पता इसलिए चल गया क्योंकि यह 2020 है और पिछले छह वर्षों से यहां नरेंद्रभाई दामोदरदास मोदी नामक व्यक्ति (व्यक्ति से अधिक प्रवृत्ति, पर वह अलग विषय है) का शासन चल रहा है।

एक और बात हुई, उसकी याद दिला दूं फिर पहला सिरा पकड़ूंगा। टाटा वालों के आभूषण वाले विंग तनिष्क का एक प्रचार आया, जिसमें एक मुसलमान घर में हिंदू बहू है, जिसकी गोदभराई की रस्म दिखायी जा रही है। प्रचार को लेकर जाहिराना तौर पर तथाकथित सेकुलर-फेमिनिस्ट लॉबी ने जहां अहो-महो की ध्वनि से आसमान एक कर दिया, वहीं दक्खिनी टोले का गुस्सा ट्विटर से लेकर फेसबुक तक टूट पड़ा। मीम से लेकर कड़वे बोल तक का परिणाम यह हुआ कि तनिष्क ने वह प्रचार हटा लिया। साथ ही इंदौर से एक तस्‍वीर आयी जिसमें कुछ दक्खिनी शेर-चीते तनिष्‍क के स्‍टोर के मैनेजर के गले में जबरन भगवा गमछा डाल रहे हैं। एक बार फिर कहना चाहूंगा कि यह सब इसलिए हुआ क्योंकि छह वर्षों से नरेंद्र मोदी का शासन है।

इन दोनों घटनाओं को छोड़कर आइए, ज़रा विज्ञापन-लेखन और प्रदर्शन की प्रविधि और प्रक्रिया पर बात करते हैं। करीब एक साल पहले सर्फ एक्सेल का एक विज्ञापन आया था। उसमें एक मुसलमान बच्चा जो मस्जिद जा रहा है, होली के हुड़दंग (ध्यान रखिएगा, इस शब्द का) की वजह से छुपा हुआ है। तभी एक हिंदू लड़की तमाम रंग खुद पर झेलकर उसको मस्जिद पहुंचा आती है। उसके पहले आप याद करेंगे तो टाटा का ही चाय का एक प्रचार था, जिसमें अपने बाप के साथ कुंभ में गया एक युवक उसको धकिया कर भाग आता है। एक और चाय का ही ब्रांड था, जिसके प्रचार में मुस्लिम परिवार को अपने हिंदू पड़ोसी की तुलना में बेहद सेकुलर, सीधा और सच्चा दिखाया गया था, जबकि हिंदू व्यक्ति उन लोगों से छिटकता हुआ, दूर रहने वाला दिखाया गया था। जब उसने फलाने ब्रांड की चाय पी ली, तो उसके अंदर का सच्चा सेकुलर जागा और वह मुसलमान पड़ोसी को ढंग से जान सका।

नहीं, आप इसको को-इंसिडेंस, संयोग या अनजाने में हुआ कहकर टाल नहीं सकते। इसके पीछे एक मानसिकता है, हालांकि वह मानसिकता जान-बूझकर हिंदुओं को नीचा दिखाना चाहती है ऐसा कहना जल्दबाजी होगी। यह लेखक इस बात से कतई इत्तेफाक नहीं रखता। दूसरे, अगर तनिष्क के विज्ञापन में हिंदू लड़की की जगह मुस्लिम लड़की होती तो सब ठीक हो जाता, जैसा सोच भी दक्खिनी टोले के वैचारिक शून्य को ही दिखाता है। यह लेखक उससे भी कतई सहमत नहीं है। यह सोच ही दरअसल अब्राहमिक रिलीजन या मजहब की पांत में सनातन धर्म को लाकर खड़ा कर देती है, जो कुछ वैसा ही है कि कटहल की तुलना प्याज से की जाए। यही गलती न जाने कब से होती चली आयी है।

अव्वल तो मजहब या रिलीजन के बदले हम धर्म शब्द का प्रयोग कतई नहीं कर सकते। दूसरे, अब्राहमिक मजहबों के बरक्स जिस क्षण आप सनातन धर्म को खड़ा करते हैं, आप ठीक वही गलतियां करते हैं जो 200 वर्षों तक हमारे आका रहे अंग्रेज आक्रांताओं ने सोच समझ कर की। चूंकि मुगल, तुर्क, पठान और संक्षेप में कहें तो इस्लाम की बर्बरता एक लंबे समय तक चली और बाद में वह यहीं रहने भी लगी, तो वह एक अलग अध्याय ही है।

बहरहाल, विषय पर लौटें। इस तरह के विज्ञापन बनाने वालों में हो सकता है कि कुछ लोग जान-बूझ कर ऐसा करते हों, लेकिन अक्सरहां आप देखेंगे कि ऐसे प्रचार सोचने वाले, बनाने वाले और उसका प्रदर्शन करने वाले, ये सभी उच्चवर्णीय हिंदू ही होंगे। इसके ठीक उलट आप बजाज और पार्ले जी के मालिकान को देख लीजिए, जिन्‍होंने धार्मिक रूप से सेंसिटिव खबरें दिखाने वाले समाचार चैनलों को विज्ञापन न देने का एलान किया है। दो कॉरपोरेट इकाइयों के इस फैसले पर पूरी सेकुलर जमात में धन्‍यवाद ज्ञापन जैसा भाव है, लेकिन वे इतने नादान हैं कि उन्‍हें यह समझ नहीं आता कि बिना करोड़ों के विज्ञापन दिए ही एक मामूली बयान से उनका कई गुना प्रचार हो चुका है। हर्र लगे न फिटकिरी, रंग चोखा।   

ऊपर दी हुई तमाम घटनाओं और प्रतिक्रियाओं के पीछे वही कारण है जिसे मैं मिस्प्लेस्ड आइडेंटिटी और मिस्प्लेस्ड मॉडर्निटी कहता हूं। देश के आजाद होने के बाद चूंकि पंडित नेहरू ने जान-बूझ कर इतिहास-लेखन से राष्ट्रवादी धारा को अलग किया (यह जानी हुई बात है) और शिक्षा को बरतानवी तर्ज पर रखा, चूंकि वह खुद वहां से पढ़कर आये थे और उसके मुरीद थे, तो दशकों तक जो पढ़ाया गया, जो सिखाया गया वह अब हमारे खून में है। उसके परिणाम जाने-अनजाने ही देखने को रोज़ मिल रहे हैं।

रोज़मर्रा के अनुभव को ही लें। किसी भी शिक्षण-संस्थान में या कहीं भी आप जाएं, ऊंचा पाजामा, लंबा कुर्ता और छिदरी हुई दाढ़ी पर फेज कैप लगाये मुसलमान हमें ‘अजीब’ नहीं लगते, आउट ऑफ सिंक नहीं दिखते, लेकिन कोई शिखाधारी, तिलकधारी अगर आपको दिखे तो आप पाएंगे कि हरेक आदमी उसे ही देख रहा है। बाखुदा, उसने अगर धोती पहन ली तब तो समझो कयामत ही आएगी। यह ठीक वही अबूझ आधुनिकता है, जिसके तहत फेस्टिवल के नाम पर होली में तो जेएनयू जैसे सेकुलर संस्थान में हरेक होटल में भांग घोंटी जा सकती है, लेकिन धार्मिक गतिविधि के नाम पर दुर्गा पूजा को रोकने की कोशिश की जाएगी।

सिनेमा में पुजारी हो या बनिया, बलात्कारी वही होता था। ठाकुर हो, तो जुल्मी ही होगा और ज़ंजीर का शेरखान गुंडा होकर भी रॉबिनहुड होगा। रहीम चाचा की तो खैर बात ही नहीं। 786 का बिल्ला तो गोली रोक लेगा, लेकिन विजय मंदिर की सीढ़ियों पर नहीं चढ़ेगा। इन सब के पीछे सोची-समझी साज़िश थी या नहीं, या फिर यह महज को-इंसिडेंस, इत्तेफाक या संयोगों की एक लंबी श्रृंखला थी, इस पर आप सोचिए।

हुआ दरअसल यह है कि लगातार करते, बोलते, लिखते हम सभी लोग सचमुच ही धर्मनिरपेक्षता का अर्थ हिंदू-विरोध से लगाने लगे हैं। यदि ऐसा नहीं होता, तो हमारी पाठ्यपुस्तकों में परदे को कुप्रथा क्यों कहा जाता और बुरके पर अविश्वसनीय चुप्पी क्यों होती? यहां तक कि जो तमाम बुद्धिजीवी हिंदू धर्म की तमाम रीतियों को कुरीति बताने से नहीं चूकते, उनके लिए भी तसलीमा नसरीन अछूत हो जाती हैं, हैदराबाद में उनकी पिटाई पर भी कहीं चूं तक नहीं होती। सती-प्रथा से लेकर परदे और तमाम रीतियों की तो पढ़ाई होती है, पर चार शादी, हलाला, तीन तलाक, तहर्रुष आदि पर मौन क्यों?

इसमें से कई बातें दोहराव लग सकती हैं, कई को आप सिरे से खारिज करना चाहेंगे, पर यह खारिज करने का ही परिणाम है कि आज सोशल मीडिया पर बिना कहे-सुने चीजों का विरोध होने लगा है, जिससे हम सब बराबर चमत्कृत हैं। यह हम सब की देन है कि मोदी दूसरी बार लगातार बंपर वोटों से विजयी होते हैं और बुद्धिजीवियों को इसका राज़ ही नहीं पता चलता है।

दरअसल, जिनको ट्रोल बोला जाता है या किसी पार्टी का आइटी सेल, वह इस देश की आम जनता है। इंटरनेट पर कोई रेग्युलेशन है नहीं। बहुतेरे सच जो जाने-अनजाने छिपाये गये, वह अब उघाड़ दिये गये हैं। उसके साथ ही बहुतेर सच बनाये भी जा रहे हैं। इसका परिणाम यह हुआ है कि बहुसंख्यक हिंदुओं के दिमाग में यह बात समा गयी है कि 1947 में करोड़ों हत्याओं के बाद भी उनको फिर से कई पाकिस्तानों के लिए तैयार किया जा रहा है। कश्मीर, बंगाल और बिहार के सीमांचल की घटनाएं (कई सारी) इसकी ताईद भी करती हैं।

इन प्रश्नों से टकराना वक्त की जरूरत है। आप इसको संघी, दक्खिनी टोला, ट्रोल आर्मी, आइटी सेल कहकर खारिज नहीं कर सकते। न तो 25 करोड़ मुसलमानों को आप देश से निकाल सकते हैं, न ही बहुसंख्‍यक हिंदुओं की हिंसा पर आप पहरा लगा सकते हैं। सबकी बेहतरी के लिए ज़रूरी है कि बात हो, संवाद हो, उन ज्‍वलंत मसलों पर जिन पर अब तक मुकम्‍मल बात हुई ही नहीं है। केवल प्रतिक्रिया हुई है। ये नहीं किया, तो निकट भविष्‍य में भारत को हम सीरिया और पाकिस्तान बनने से रोक नहीं पाएंगे।



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